Monday, December 28, 2015

चीज़ें माटी हैं, लम्हे हीरे के थे...


नज़र के ठीक सामने शाम का सूरज डूब रहा था. गज़ब की कशिश होती है डूबते सूरज की भी. वैसे डूबना अगर सलीके से आ जाये तो हर डूबने की कशिश लाज़वाब ही होती है. और बगैर ठीक से डूबे उगने का कोई मजा ही नहीं। बहरहाल, इस वक़्त बात डूबने की नहीं, भूलने की है. तो डूबते सूरज की कशिश को कैद करने का जी चाहा। तो देखा कैमरा नदारद। ठीहे पे चीज़ न हो तो तुरंत अपनी लापरवाही पे भरोसा पुख्ता होने लगता है, सो तुरंत दिमाग दौड़ाया कि वो तो मैं कहीं भूल आई हूँ. इस बात को काफी दिन भी हो चुके हैं. जिन दोस्तों की संगत में ये भूलने का प्रकरण हुआ उन्हें फोन लगाया। जाने क्यों जी घबराया नहीं, एकदम नहीं लगा कि खो भी सकता है. दोस्त कहीं व्यस्त था, थोड़ी देर बाद फोन लगाया, दोस्त फिर व्यस्त, तीसरी बार लगाया तो वो बोला 'कितनी लापरवाह हो, मैं सोच रहा था कि देखूं कब याद आता है?' मैंने कहा, 'दोस्त किसलिए बनाये हैं, इसीलिए न कि मेरी लापरवाहियों को सहेज लें.' हम दोनों हंस दिए.

आज ही दोपहर पार्किंग में गाड़ी लगायी और चाबी उसी में लगी छोड़कर चली गयी. लौटी तो चाबी गुम. सारी जेबें ढूंढी, न मिली। पार्किंग वाला सिक्योरिटी का बंदा आया, 'मैम चाबी ढूंढ रही हैं क्या', मैंने कहा हाँ, तो उसने चाबी दे दी.' ये दोनों घटनाएँ आज ही की हैं.

बचपन से लापरवाह हूँ. बहुत डांट खायी हूँ. स्कूल में टिफिन, पेन्सिल बॉक्स भूल आती थी तो खोया पाया विभाग संभाल देता था. थोड़ा बडी हुई तो इन्गेज़मेंट हुई और तब पहली बार अंगूठी पहनी, हफ्ते भर में गुमा दी, अंगूठी झाड़ू में माँ को मिली तीन दिन बाद. डांट मुझे अब तक मिलती है. घर में हमेशा गहना पैसा घडी सब खुला ही पड़ा रहा, कभी सहेजना आया ही नहीं। कई बार घर में हाथ बंटाने आने वाली साथी सुबह को कभी झुमका कभी पायल दिया करती। माँ की जगह वो डांटतीं, मैं हंस देती। सम्भालना सीखा ही नहीं, हाँ जिन चीज़ों को लेकर इतनी मगजमारी करनी पड़े उन्हें पहनना ही बंद कर दिया, नो गहना शहना। फिर भी खोने को बहुत कुछ था. हालाँकि कभी कुछ खो भी गया तो बहुत गम नहीं हुआ किताबें खोने के सिवा. घर की चाभियां खोने का रिकॉर्ड होगा मेरा। ओरिजिनल सर्टिफिकेट की फ़ाइल कई साल खोयी रही. लोग कहते हैं कि दुनिया बहुत ख़राब है, आँख से काजल चुरा लेते हैं लोग, मुझे तो वापस ही लौटाते मिले लोग चीजें'

फिर सोचती हूँ, अगर ऐसा है तो क्यों तमाम लम्हों को ढूंढती फिरती हूँ, तमाम बिछड़ गए लोगों को तलाशती फिरती हूँ, देखती हूँ अजनबी चेहरों की ओर कि कोई गुमे हुए सोने के बुँदे की तरह लौटाएगा कोई बीता लम्हा, कोई खो गया सा अपना कहते हुए, 'कितनी लापरवाह हो, लो सम्भालो अपनी चीज़ें, अब मत गुमाना।' लेकिन ऐसा कोई नहीं कहता।

चीज़ें जो मिल गयीं वो माटी हैं लम्हे जो गुम गये हीरा थे....

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