Sunday, November 15, 2015

जो छूट जाता है वही हासिल है...


जाने कब किससे सुना था कि दीवारों से घर नहीं होता, उसमें रहने वाले लोगों से होता है...अच्छा लगा था सुनना। लेकिन सच्चा नही। क्योंकि दीवारों, खिड़कियों, रास्तों का अपनापन भी बहुत महसूस किया है। लौटकर आने पर ताला खोलते वक्त ऐसा नहीं लगता कि यहां किसी को मेरा इंतजार नहीं था। मानो इस घर के कोने-कोने को मेरा इंतजार रहता है। घर के पर्दे, दीवारें, खिड़कियां, सोफे पर आधी पढ़कर छूटी हुई किताब, दरवाजे के बाहर लगा अखबारों का ढेर...पानी के लिए पड़ोसी की छत पर पहुंचाये गये पौधे...सुबह दाना खाने आने वाली चिड़िया, कबूतर, तोते...सब तो बाहें पसारे इंतजार करते मिलते हैं। अपने कमरे की महक, सिरहाने लटका चार्जर, जल्दबाजी में आधा उलटा रह गया डोरमैट, ठीक से न बंद हुई तेल की शीशी, छूटा रह गया एक छोटा सा जाला सब जैसे किसी लाड़ से देखते हों। जाते वक्त की हड़बड़ी में भी जाने के ठीक पहले दो पल को ठहरना और सांस भर घर को जीना जैसे आदत हो...।

इस कदर जज्ब करने की इतनी सी मोहलत कभी जिंदगी ने नहीं दी, इश्क ने भी नही...।

मालूम होता है दीवारें सांस लेती हैं मेरे साथ, कभी तेज कभी मध्धम। इन दीवारों ने मुझे उस तरह संभाला है जिस तरह कोई आत्मीय दोस्त संभालता है, बिना सवाल किये, बगैर तर्क किए, बिना कठघरे में घेरे। मुठ्ठियों के प्रहार और गुस्से के भीतर छुपे प्यार को सहेजते हुए।

कितना गुस्सा उतरा इन दीवारों पर...कितनी रातों को इनसे बातें करते हुए रातें गुजारीं...खिड़की से बाहर झांकते कभी तो कभी छत पे टंगे पंखे पर अपनी आंखें टांगकर भी। कितनी बार अपनी खुशियां भी उछालीं इन दीवारों के भीतर...तब धीमे से मुस्कुराते हुए भी देखा इन दीवारों को...लोगों से गले लगकर प्यार जताते हुए कभी खुद को पूरी तरह सौंप दिया हो याद नहीं। कभी-कभार मां के कंधे पर समूचा लुढ़क जाने को जी चाहा जरूर लेकिन वो इच्छा भी समेट ही ली। लोगों को मिलते वक्त, बिछड़ते वक्त रोते हुए देखना सहज लगता है, शायद उनकी मुलाकातें, या बिछोह हल्के हो जाते हांेगे, तरल होकर उनका भारीपन बह जाता होगा... मैं ऐसा कभी कर नहीं पाई। मेरा कुछ भी शिद्दत से महसूसना एकांत मांगता है। उस वक्त दीवारें ही होती हैं आसपास।

इन दीवारों के पास वो सब है जो व्यक्ति के पास नहीं, रिश्तों के पास नहीं। छूटते लम्हों और लोगों से बिछड़ते वक्त जो नमी बचा लाये थे न हम वो इन दीवारों के साये में महफूज है। जो छूट जाता है असल में वही हासिल है...


2 comments:

  1. मेरी दीदी
    इन्तजार तो रहता है मुझे भी
    आपका..हरदम
    एक बार तो कम से कम..
    पांच लिंकों के आनन्द में..
    देखिए चुनी हुई रचनाएँ स्तरीय है या नहीं
    मेरी गलतियों को उघाड़िए...
    सादर
    यशोदा

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