Tuesday, August 18, 2015

विरक्ति भी एक अभ्यास है...


कभी-कभी सांस न लेने का जी करता है. उन्हू कोई उदासी नहीं, सिर्फ चुप रहने की चाह. यूँ चुप ही रहती हूँ अक्सर। बोलने और न बोलने के बीच मैंने अपनी चुप को छुपा रखा है. इस तरह चुप को सहेजना भी एक अभ्यास है। अजीब बात है, जी न पाने का अनभ्यास कितने अभ्यासों को जन्म देता है.

कभी अपने होने के बीच अपने न होने को रख देने का अभ्यास, कोलाहल के सीने में एक गहरा मौन रख देने का अभ्यास। खिलखिलाहटों में उदासियों को सहेजने का अभ्यास, रास्तों में थककर पसर जाने के बाद भी चल रही हूँ ऐसा महसूस करने के भ्रम का अभ्यास।

आजकल एक और अभ्यास में हूँ, शब्दों से भरे कागजों में से कुछ खालीपन चुरा लेने का अभ्यास। ढेर-ढेर पढ़ने के बाद खाली हाथ लौट आने का अभ्यास।

आलस बहुत है लेकिन नींद नहीं, नींद है महज ख्वाब में. नींद में ख्वाब नहीं हैं. नींद की ड्योढ़ी पर कुछ ख्वाब भटकते रहते हैं, वो पलकें भारी तक नहीं होने देते कि डर लगता है. जाने कौन कब किसको मार देगा ख्वाब में, किस तरह. आँख खुले तो भी ख्वाब जारी ही रहता है, दरअसल वो ख्वाब नहीं, डर है, डर बेवजह भी नहीं।

जितनी पनाहगाहें थीं सबकी दीवारों पर खून लगा है. हर ओर से साज़िशों की गंध आ रही है. न आँख खोलते बनता है न बंद करते। हाँ, कभी-कभी सांस लेने का जी नहीं करता इसका ये अर्थ किस तरह हुआ कि मरने का जी करता है.…

जो सिर्फ सांस लेना सीखा होता तो इतने अभ्यास न करने पड़ते बेवजह। कम्बख्त, न जीना आया न सांस लेना, जब तब साँसों की रफ़्तार भी बिगड़ने लगती है. अब एक और अभ्यास चाहिए सांस लेते-लेते मर जाने का अभ्यास।

देखो न, चुप रहने के अभ्यास में शब्द उलीचना ये भी कोई अभ्यास ही होगा। अपने ही मौन को घायल करना। दरअसल सिर्फ एक दुनियादार होने के अभ्यास वंचित होना ही तमाम अभ्यासों को जन्म देता है. सब अन अभ्यास ही है.....

महान कविताओं के ऊंचे बुर्ज़ से कूद जाने की चाह, महबूब के साये में मोहब्बत से दूरी बना पाने की चाह, अपनी देह को सांस से मुक्त होते देखने की चाह, ये कोई उदासी नहीं विरक्ति है.…

2 comments: