समय बदल रहा है, ज़ाहिर है फिल्मों में भी बदलाव की झलक दिखती है. स्त्री का अपनी देह पर अधिकार, अपनी इच्छाओं पर अधिकार तो दूर उसे महसूस तक करने की इज़ाज़त जो समाज न देता हो वहां अब स्त्री न सिर्फ अपनी इच्छा को समझ रही है बल्कि अपनी देह पर अपने अधिकार को मजबूती से पकड़ रही है. स्त्री देह पर पर नैतिकताओं, शुचिताओं की जाने कितनी बेड़ियां कसी गयीं। आज जब समूचा देश निर्भया के पैरोकार वकीलों की दलीलों पे एकजुट होकर उनकी मज़म्मत कर रहा है ,ऐसे ही वक़्त में अब भी लाखों लोग जिनमें तथाकथित पढ़े लिखे , जिम्मेदार लोग भी शामिल हैं स्त्रियों को खांचों में फिट करके ही देख रहे हैं. दस मिनट की फिल्म 'बेस्ट गर्लफ्रेंड 'के बहाने बदलाव और आधुनिकता व हिपोक्रेसी की परतें उधेड़ता ज्योति नंदा का यह आलेख आज काफी मौजूं लग रहा है..... प्रतिभा
"किसी स्त्री का जीवन है, उसकी देह है, कोई और इसे लेकर क्यों जजमेंटल हो ?"
दस मिनट की शार्ट फिल्म "बेस्ट गर्लफ्रेंड" देखने के बाद बेचैनी और कुछ सवालो ने ऐसा घेरा कि शब्दों से भेदने के सिवा दूसरा रास्ता नहीं बचा। अगर नहीं लिखती तो सवाल पूछने की जिम्मेदारी से बच निकलने वाले पाले में खुद को खड़ा पाती। फिल्म ने ऑनलाइन रिलीज़ मिलने के साथ लाखों दर्शक बटोर लिए। कुछ कहानियां क्लाइमेक्स के बाद एंटी क्लाइमेक्स पे ख़त्म होती है। या कहें कि वहीँ से शुरू होती हैं। विषय पे बहस, चर्चा और सवालों के मज़बूत सिरे उंगलियो में थमाकर।
"बेस्ट गर्लफ्रेंड कि सोना बड़े शहर की अच्छी लड़की जो अपने ब्वायफ़्रेंड के साथ रहती है। छुट्टी के दिन उसका पार्टनर उसे बड़े अधिकार से जगाता है यह कहकर की आज बाई नहीं आएगी। खुद डाइनिंग टेबिल पर बैठ कर चायनाश्ते का इंतज़ार करते हुए अखबार पढ़ने लगता है। वह उठती है और साथी के लिए मनपसंद लंच पकाने की तैयारी में जुट जाती है, क्योंकि कुछ घंटो बाद अपने पिता से मिलने दूसरे शहर चली जाती है। उसके बाद कहानी अंत की ओर बढ़ती प्रतीत होती है, जब फ़्लैट में अकेले रह गए साथी के दोस्त का प्रवेश होता है। दोस्त ऐसे लहज़े में उसे एस्कॉर्ट सेवा के जरिये रात बिताने के लिए राज़ी कर लेता है जैसे, यदि नायक ऐसा प्रस्ताव अस्वीकार करे तो उससे बड़ा बेवकूफ कोई नहीं, जैसे इसमें कौनसी बड़ी बात है। नायक का यह कहना कि "उसकी सेक्स लाइफ बहुत अच्छी है।" बावजूद इसके वह "मज़ा आएगा" प्रस्ताव को हाँ कर देता है। लगता है क्लाइमेक्स आया ही समझो, गर्लफ्रेंड का क्या रिएक्शन होगा जब उसे इस हरकत का पता चलेगा। लेकिन असली क्लाइमेक्स तब हुआ जब उन्हें मालूम हुआ कि सोना खुद एस्कॉर्ट है। यह उन्हें, उसी एस्कार्ट की सेवाए हासिल करने के दौरान पता चलता है। पासा पलट चुका है। कहानी का क्लाइमेक्स यही है।
यहीं बरबस याद आ जाती है अट्ठारह साल पुरानी 1997 में आई अभिनेत्री रेखा और ओमपुरी अभिनीत "आस्था" की। तब भी क्लाइमेक्स यही था-- साधारण हाउस वाइफ का रिश्ते से बाहर प्यार के लिए नहीं पैसे के लिए। तब वह एक बच्ची की माँ है। साडी पहने टूटे फूटे से आत्मविश्वास को समेटते,पति की आमदनी पर निर्भर हाउस वाइफ। जो बच्चे के लिए अच्छे जूते और पति के लिए हीरे की अंगूठी खरीदने की चाह मन में लिए एक रोज़ लड़खड़ाते कदमो से चल कर किसी कमरे में खुद को अजनबी के साथ पाती है। आज की सोना आत्मविश्वास से भरी है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है। घर के काम भी संभालती है। "वीमेन ऑफ़ सब्स्टेंस" की परिभाषा को जीती हुयी सी दिखती है। बहस भी करती है "किसी स्त्री का जीवन है, उसकी देह है, कोई और इसे लेकर क्यों जजमेंटल हो ?"
जजमेंटल होना, वह भी स्त्रियों के प्रति, पितृसत्ता में पुरुषो का जन्मसिद्ध अधिकार है।
सारी गालियां जो एक पुरुष, दूसरे पुरुष को देता है, जिसका असर सबसे गहरा हो, वो माँ और बहनो के लिए होती है। किसी औरत के लिए सबसे गन्दी गाली उसका पर पुरुष सम्बन्ध यानि वेश्या हो जाना है। पुरुष के लिए परस्त्री गमन कोई नयी बात नहीं है। "गलती हो गयी","बहक गया था" ''जस्ट अ पासिंग अफेयर'' 'वन नाइट स्टैंड' इन संवादों को हम सबने कितनी बार सुना है। ऐसे अंदाज़ में कि उसे माफ़ किया ही जाना चाहिए। यही मानसिकता सोना के ब्वायफ़्रेंड की भी दिखती है, दोस्त की ओर से आये हठात प्रस्ताव स्वीकारते समय। जैसे दोस्तों को अक्सर जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है बुरी लत के लिए। यही नायक कुछ देर पहले नायिका से अखबार की खबर के आधार पे किसी अभिनेत्री के एस्कॉर्ट हो जाने के कारणों पे चर्चा करते हुए तर्क रखता है कि "सिवाय एन्जॉयमेंट के इनकी क्या मज़बूरी होगी।"
आस्था की रेखा को फ़िल्मकार कई तरह के कारणों मसलन उपभोक्ता वाद के शिकंजे में स्त्रियों का फसना तथा देह की अधूरी चाहतो को पूरा करने की इच्छा के बीच उलझा देते है। नवजोत गुलाटी की दस मिनट की फिल्म में किसी बौद्धिक बहस की गुंजाइश नहीं है। अट्ठारह सालो की यात्रा के बाद भी कहानी स्त्री देह के आस पास भटकती है। दो बाते दोनों में समान है। पहला क्लाइमेक्स --बहुत अच्छी लड़की और घरेलू औरत का वेश्या हो जाना। दूसरा नायको का एंटीक्लाइमेक्स -- पत्नी/गर्लफ्रेंड का सच पता चलने पर उनकी प्रतिक्रिया।
"आस्था" में ओमपुरी एक जहीन प्रोफ़ेसर है। पूर्ण बौद्धिकता के साथ पत्नी का सच स्वीकारना। "बेस्ट गर्लफ्रेंड" में लिवइन पार्टनर आखिरी दृश्य में साथी के घर लौटने के दृश्य में शराब पी रहा है। नज़रे उठाता है तो आँखे लाल है। यह समझ पाना जरा कठिन लगता है कि उसे दुःख है या गुस्सा, जिसे नशे में घोल के पी रहा है। या परिस्थितियों का आकलन कर अपनी गलती का अहसास है। आखिर का कन्फ्यूज़न दर्शको के कमेंट में भी साफ़ दिखाई देता है।
लड़की का फिर झूठ बोलना "वह उसे अगली बार पापा से जरूर मिलवायेगी।" और लड़के का सच बोलना कि उसकी माँ ने सोना को उसकी अब तक की बेस्ट गर्लफ्रेंड का ख़िताब दिया है। फिर लड़की का उसे देखते रह जाना। कहानी ख़त्म।
मुझे दोनों के एंटीक्लाइमेक्स में एक किस्म की हिप्पोक्रेसी नज़र आती है । एक, बौद्धिक बहस में उलझाती हुयी स्त्री को अपराध बोध से ग्रसित करती है। दूसरी चालाकी से स्त्री पुरुष के रिश्तो में बढ़ते कैलकुलेशन का केवल आभास देते हुये स्त्री को "बुरी लड़की" के खांचे में खड़ा करती दिखती है। वर्ना फिल्म का शीर्षक "बेस्ट गर्लफ्रेंड" क्यों रखा जाता ?
जो नहीं बदला वो है, सवाल -- स्त्री का अपनी देह पर अधिकार है या नहीं?
आज की पीढ़ी के की अलग समस्याएं और अलग इच्छाएं ... इनको समझने के लिए भी इतना कोम्लिकेट होना पड़ेगा ...
ReplyDeleteबेहद शानदार और जानदार रचना प्रस्तुत की है आपने।
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