Wednesday, February 11, 2015

वादा कोई, कहीं नहीं था सचमुच ...


तुम्हारी खामोशियों में ज़ब्त
तमाम वादों की शिकन
दर्ज है तुम्हारे माथे पे सदियों से

दर्ज है लकीरों से खाली पड़ी हथेलियों पे
तुम्हारे अनकिये वादों की
गुमसुम जुम्बिश

तुम्हारे दूर जाते क़दमों की आहटों में
दर्ज है थकन
लौट के न आने की

हर रोज शाम के साथ उतरती है
एक उधड़े हुए वादे की याद
चाय की प्याली में
घुल जाती है, चुपचाप

सप्तपदी के वचनों से मुक्त रात
अपने दोनों घुटनों में सर डाले
समेटती है वादियों में गूंजती
तमाम उदासियाँ

तुम्हारी खामोशियों से
जिंदगी में भर उठा है सन्नाटे का शोर

वादा कोई, कहीं नहीं था सचमुच
बस एक बोझ था, तन्हाई का

टूट्ने के लिए
वादा किया जाना ज़रूरी नहीं...

(सुना है आज प्रॉमिस डे है )



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