रोज सुबह
उगता है एक घर
सूरज के साथ,
कभी टहनियों पर
जा टिकता है,
कभी रास्तों पर साथ चलता है
कभी किसी मोड़ पर
छूट ही जाता है बस.
कभी किसी आंख में
बस जाता है
तो कभी किसी आवाज में ही
बना लेता है ठिकाना
कभी तो श्मशान के
किनारे धूनी सी रमा लेता है
बस जाता है
तो कभी किसी आवाज में ही
बना लेता है ठिकाना
कभी तो श्मशान के
किनारे धूनी सी रमा लेता है
घर, जहां मिलता है
वजूद को विस्तार ,
जहां हर सपने को
मिलता है निखार
जहां दु:ख की वीणा को
सुख के राग से
झंकृत किया जाता है
वजूद को विस्तार ,
जहां हर सपने को
मिलता है निखार
जहां दु:ख की वीणा को
सुख के राग से
झंकृत किया जाता है
जहां पहुंचकर
जिस्म को अलगनी पर
टांगकर
रूह को कैसे भी विचरने को
आजाद छोड़ दिया जाता है,
जिस्म को अलगनी पर
टांगकर
रूह को कैसे भी विचरने को
आजाद छोड़ दिया जाता है,
ईंट, पत्थरों से घिरी दीवारों में
लौटकर रोज
आवाजों के वीतराग
में डुबो देती हूं खामोशियां
और अगली सुबह
सूरज के साथ
घर के उगने का
इंत$जार होता है.
लौटकर रोज
आवाजों के वीतराग
में डुबो देती हूं खामोशियां
और अगली सुबह
सूरज के साथ
घर के उगने का
इंत$जार होता है.
जीवन एक बहुत से विचारों से जुदा हुआ सपना ही तो है जी . बहुत सुन्दर कविता .
ReplyDeleteमेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है .
धन्यवाद.
विजय
हर घर के अनेक वजूद होते हैम जैसे इंसानों के.
ReplyDeleteजिस्म को अलगनी पर
ReplyDeleteटांगकर
रूह को कैसे भी विचरने को
आजाद छोड़ दिया जाता है....बहुत सुंदर
अति सुन्दर
ReplyDeletehttp://tinyurl.com/q8oqmm6
सौजन्य-@[699991806774491:]
और अगली सुबह
ReplyDeleteसूरज के साथ
घर के उगने का
इंत$जार होता है.
Waaah!