याद है तुमको
कैसे हम दोनों मिलकर
सारा कोहरा जी लेते थे
कॉफी के कप में
सारे लम्हे घोल-घोल के पी लेते थे
याद है तुमको
कोहरे की खुशबू कितना ललचाती थी
देर रात भीगी सड़कों पर
मैं कोहरे की सुरंग में
भागी जाती थी
याद है तुमको
कोहरे की चादर कितना कुछ ढँक लेती थी
दिल के कितने जख्मों पर फाहे रखती थी
दिन के टूटे बिखरे लम्हों को
अंजुरी में भर लेती थी
याद है तुमको
एक टूटे लम्हे को तुमने थाम लिया था
भीगी सी पलकों को रिश्ते का अंजाम दिया था
वो रिश्ता अब भी कोहरे की चादर में महफूज रखा है
कोहरे की खुशबू में अब उसकी भी खुशबू है....
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteगहरे अहसासों से भरी सुंदर रचना।
ReplyDeleteलम्हा कैसा भी हो याद तो बस वो आते ही हैँ ।>> http://zindagikenasheme.blogspot.in/2013/05/whirling-memories.html
ReplyDeleteऔर आज तक जी रहे हैं उस कोहरे की खुशबू को … अद्भुत भाव
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (15-12-2014) को "कोहरे की खुशबू में उसकी भी खुशबू" (चर्चा-1828) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूबसूरत यादें।
ReplyDeleteशुक्रिया धीरेन्द्र!
ReplyDelete
ReplyDeleteबहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर!!!