यह दुःख का समाज है, यहां सुख एक उत्सव की तरह सबसे उपरी पर्त पर अपनी भव्यता के साथ उपस्थित होकर भरमाता है। इसके सीने में अवसाद है जो आंसू बनकर टपप-टपप टपकता रहता है...जो आस्था बनकर किसी नाउम्मीद सी उम्मीद के पीछे दौड़ पड़ता है।
लेकिन ये कोई किस्सागो का किस्सा नहीं...कोई फैंटेसी नहीं...यह किसी भी समाज की दुःखद तस्वीर है। तमाम आरोपों के बावजूद धर्म के इन तथाकथित फरमाबरदारों के भक्तों की आस्था में कोई कमी नहीं। वो अब भी उन्हें भगवान, कोई दूत, पैगम्बर, अवतार मानते हैं। वो नहीं मानते उन पर लगे किसी आरोप को। उनकी आस्थाएं अडिग हैं। अनगिनत आस्थाएं कब किसके पीछे चल पड़ें कहना मुश्किल है।
दुःख, पीड़ा, संघर्ष, शोषण और जाहिलियत की जड़ों से उपजी मासूम आस्थाएं। इन आस्थाओं में एक बड़ा वर्ग शोषित वर्ग का है। दुःख से डूबे लोगों का है। वो लोग जो अपनी परेशानियां अपने कंधों पर ढोते-ढोते बूढ़े होने लगते हैं। उनके कंधे पर हाथ रखकर जब कोई आत्मविश्वास से कहता है कि मैं हूं ना...मैं सब ठीक कर दूंगा...उसी वक्त आस्था का जन्म होता है। उस मैं हूं ना के प्रति आस्था....यह बात किसी एक धर्म या किसी एक घटना के बरअक्स पूरी नहीं होती। इसका कैनवास काफी बड़ा है और जिसकी जड़ों में अशिक्षा, सामाजिक जड़ता, वर्गभेद, लिंगभेद, असमानता, असंवेदनशाीलता से जाकर जुड़ती हैं।
जाहिर है इन आस्थाओं में, अंधविश्वास में स्त्रियों की संख्या ज्यादा है। किसी भी धर्म की बात हो, महिलाएं आमतौर पर ज्यादा संख्या में श्रद्धा में डूबी हुई पाई जाती हैं। क्यों न हो आखिर कि शोषित वर्ग में भी जो शोषित है वो स्त्री ही तो है। संवेदनाओं का, भावनाओं का बोझ जिसके कंधों पर है वो स्त्री है। जिसके हिस्से में अब तक शिक्षा की एक पूरी इबारत आना तो दूर कुछ अक्षर भी नहीं आये वो स्त्री है। वो भागती है ऐसे किसी तिलिस्म की ओर जहां से उसे सब ठीक होने के संकेत मिलते हैं....एक वहम उन्हें फुसलाता है...उनके कदम चल पड़ते हैं...वो सब करने को वो राजी होती जाती हैं जिसमें सब ठीक होने का आश्वासन होता है। पुरुष भी होते हैं, और पढ़े-लिखे लोग भी होते ही हैं इसमें शामिल लेकिन वो दूसरी बहस का मुद्दा है कि क्यों हमारी जो शिक्षा है वो वर्गभेद, संकीर्ण मानसिकता की जंजीरें नहीं तोड़ पाती, क्यों शिक्षित होने के बावजूद समता और समानता की जरूरत संविधान में तो शामिल हो गयी लेकिन जीवन में अब तक अपनी जगह नहीं बना पाया। लेकिन यहां बात स्त्रियों की भक्ति और आस्था की है।
मार्क्स कहते हैं कि जिसने भी जरा सा भी इतिहास पढ़ा है वो जानता है कि सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के उत्थान के बिना संभव ही नहीं है। तो हमारे समाज की मौजूदा तस्वीर साफ बयान कर रही है, कि हमारा समाज कैसा है और यहां स्त्रियों की स्थिति कैसी है।
मुझे एक तीन बरस पुरानी एक घटना याद आ रही है। एटा जिले के आसपास की एक जगह थी। जून की भरी दोपहरी। वहां के स्थानीय बाबा का आवास। भक्तजनों की भीड़। और तकरीबन एक किलोमीटर पहले से पैदल चलकर आते भक्तजन। तपती हुई सख्त जमीन पर ये लंबा सफर उन्हें जला नहीं रहा था। मुझे वहां सारे चेहरे गमज़दा नज़र आये। सबके लब पर कोई दुआ थी। कोई ऐसा नहीं मिला जो कुछ मांगने न आया हो, जो खुश दिख रहा हो। झुके हुए जिस्मों पर जिंदगी का बोझ तारी थी। भक्तों में ज्यादा संख्या महिलाओं की थी। एक सत्रह बरस की लड़की बार-बार जमीन पर सर पटक रही थी। एक स्त्री बार-बार पानी भरकर आने जाने वालों के रास्ते में गिरा रही थी। एक स्त्री चीख-चीखकर रो रही थी। उसके आसपास कुछ स्त्रियां थीं लेकिन वो उसे चुप नहीं करा रही थीं। तभी एक स्त्री पर नज़र गई, करीब 50 या 55 बरस की एक महिला लगातार एक पेड़ के चक्कर लगा रही थी। तेज दोपहर...बिना खाये पिये...नंगे पैर बस रोती जाती और घूमती जाती। पता चला कि वो करीब डेढ़ महीने से यही कर रही है। उसका 21 बरस का बेटा मर गया है। और उसे ऐसा करने से आराम आता है। वो चक्कर लगाती है...बेहोश हो जाती है...उठती है फिर चक्कर लगाने लगती है। वो सर पटकने वाली सत्रह बरस की लड़की शादी वाले दिन ही विधवा हो गई थी। ऐसी न जाने कितनी दारुण कहानियां खेतों के बीचोबीच उगे उस आस्था के पेड़ पर टंगी हुई थीं।
उस वक्त वो सारी खबरें जेहन में दोबारा जाग उठीं जिनमें कोई महिला बेटा होने की आस में किसी तांत्रिक के कहने पर अपनी दुधमुंही बच्ची को छोड़कर चली आती है...कहीं कोई जमीन को गिरवी पर से छुड़ाने के लिए अपने बच्चे को जिंदा गाड़ देती है, कहीं कोई अपनी जीभ काटकर चढ़ा आती है।
यह हमारे समूचे समाज का करुण सच है। फौरी तौर पर किसी वर्ग विशेष के गले में जाहिलियत की पहचान टांग देने भर से बात नहीं बनने वाली। उसकी जड़ों की पड़ताल जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि आखिर क्यों अचानक से आस्थाओं का भूचाल आ जाता है...क्यों इस तरह की बात करने वाले उन्हीें के हक में काम करने वालों को भी उन्हीें से माफी मांगनी पड़ती है। क्योंकि उनके दुःख ने एक खंभा पकड़ रखा है। उसे जोर से पकड़ने पर उन्हें राहत मिलती है। वहम ही सही पर इससे कुछ देर को उन्हें सुकून आता है...
कुछ लोगों ने इस दुःख से, भय से उपजी आस्थाओं को काबू करना शुरू किया। आस्था किसी उद्योग में तब्दील होने लगी। यूं ही मजाक ही मजाक में लोग कहने लगे कि बाबा होने में भी बढ़िया करियर हो सकता है...कोई कहता है जब नौकरी करने से उब जायेंगे तो बाबा बन जायेंगे...ये खाली वक्त के मजाक हो सकते हैं लेकिन इनमें हमारे समाज का विद्रूप चेहरा छुपा है। और कई सवाल भी छुपे हैं कि अगर ये मामला सिर्फ शोषित वर्ग से जुड़ा है, स्त्री वर्ग से जुड़ा है तो क्यों भला पढ़े-लिखे लोग भी, तमाम सेलिब्रिटी भी शामिल हैं इस सबमें।
कई परतें हैं...काफी जाले हैं...कई स्तर पर हैं...पढ़ भर लेना जो सब कुछ होता तो कबीर जैसा फकीर बिना कागज कलम हाथ से छुए कैसे वो तमाम पर्तें तोड़कर कह पाता कि कांकर पाथर जोड़ के मसजिद लिये बनाय...तां चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय...उसी कबीर का नाम लेकर कोई लाखों के तिलिस्मी सिंहासन पर बैठकर खुद को कबीरपंथी कहता है और भोली-भाली जनता उसे सच मानने लगती है...यह विरोधाभास वो देख पाये इसके बीच उनके जीवन की दारुण कथायें आ जाती हैं।
यह दुःख का समाज है, यहां सुख एक उत्सव की तरह सबसे उपरी पर्त पर अपनी भव्यता के साथ उपस्थित होकर भरमाता है। इसके सीने में अवसाद है जो आंसू बनकर टपप-टपप टपकता रहता है...जो आस्था बनकर किसी नाउम्मीद सी उम्मीद के पीछे दौड़ पड़ता है। इस समाज के माथे पर ऐसी ही किसी दरार को देखकर शायद प्रसून जोशी ने लिखा था दरारें-दरारें हैं माथे पे मौला....
दुःख, पीड़ा, संघर्ष, शोषण और जाहिलियत की जड़ों से उपजी मासूम आस्थाएं। इन आस्थाओं में एक बड़ा वर्ग शोषित वर्ग का है। दुःख से डूबे लोगों का है। वो लोग जो अपनी परेशानियां अपने कंधों पर ढोते-ढोते बूढ़े होने लगते हैं। उनके कंधे पर हाथ रखकर जब कोई आत्मविश्वास से कहता है कि मैं हूं ना...मैं सब ठीक कर दूंगा...उसी वक्त आस्था का जन्म होता है। उस मैं हूं ना के प्रति आस्था....यह बात किसी एक धर्म या किसी एक घटना के बरअक्स पूरी नहीं होती। इसका कैनवास काफी बड़ा है और जिसकी जड़ों में अशिक्षा, सामाजिक जड़ता, वर्गभेद, लिंगभेद, असमानता, असंवेदनशाीलता से जाकर जुड़ती हैं।
जाहिर है इन आस्थाओं में, अंधविश्वास में स्त्रियों की संख्या ज्यादा है। किसी भी धर्म की बात हो, महिलाएं आमतौर पर ज्यादा संख्या में श्रद्धा में डूबी हुई पाई जाती हैं। क्यों न हो आखिर कि शोषित वर्ग में भी जो शोषित है वो स्त्री ही तो है। संवेदनाओं का, भावनाओं का बोझ जिसके कंधों पर है वो स्त्री है। जिसके हिस्से में अब तक शिक्षा की एक पूरी इबारत आना तो दूर कुछ अक्षर भी नहीं आये वो स्त्री है। वो भागती है ऐसे किसी तिलिस्म की ओर जहां से उसे सब ठीक होने के संकेत मिलते हैं....एक वहम उन्हें फुसलाता है...उनके कदम चल पड़ते हैं...वो सब करने को वो राजी होती जाती हैं जिसमें सब ठीक होने का आश्वासन होता है। पुरुष भी होते हैं, और पढ़े-लिखे लोग भी होते ही हैं इसमें शामिल लेकिन वो दूसरी बहस का मुद्दा है कि क्यों हमारी जो शिक्षा है वो वर्गभेद, संकीर्ण मानसिकता की जंजीरें नहीं तोड़ पाती, क्यों शिक्षित होने के बावजूद समता और समानता की जरूरत संविधान में तो शामिल हो गयी लेकिन जीवन में अब तक अपनी जगह नहीं बना पाया। लेकिन यहां बात स्त्रियों की भक्ति और आस्था की है।
मार्क्स कहते हैं कि जिसने भी जरा सा भी इतिहास पढ़ा है वो जानता है कि सामाजिक परिवर्तन महिलाओं के उत्थान के बिना संभव ही नहीं है। तो हमारे समाज की मौजूदा तस्वीर साफ बयान कर रही है, कि हमारा समाज कैसा है और यहां स्त्रियों की स्थिति कैसी है।
मुझे एक तीन बरस पुरानी एक घटना याद आ रही है। एटा जिले के आसपास की एक जगह थी। जून की भरी दोपहरी। वहां के स्थानीय बाबा का आवास। भक्तजनों की भीड़। और तकरीबन एक किलोमीटर पहले से पैदल चलकर आते भक्तजन। तपती हुई सख्त जमीन पर ये लंबा सफर उन्हें जला नहीं रहा था। मुझे वहां सारे चेहरे गमज़दा नज़र आये। सबके लब पर कोई दुआ थी। कोई ऐसा नहीं मिला जो कुछ मांगने न आया हो, जो खुश दिख रहा हो। झुके हुए जिस्मों पर जिंदगी का बोझ तारी थी। भक्तों में ज्यादा संख्या महिलाओं की थी। एक सत्रह बरस की लड़की बार-बार जमीन पर सर पटक रही थी। एक स्त्री बार-बार पानी भरकर आने जाने वालों के रास्ते में गिरा रही थी। एक स्त्री चीख-चीखकर रो रही थी। उसके आसपास कुछ स्त्रियां थीं लेकिन वो उसे चुप नहीं करा रही थीं। तभी एक स्त्री पर नज़र गई, करीब 50 या 55 बरस की एक महिला लगातार एक पेड़ के चक्कर लगा रही थी। तेज दोपहर...बिना खाये पिये...नंगे पैर बस रोती जाती और घूमती जाती। पता चला कि वो करीब डेढ़ महीने से यही कर रही है। उसका 21 बरस का बेटा मर गया है। और उसे ऐसा करने से आराम आता है। वो चक्कर लगाती है...बेहोश हो जाती है...उठती है फिर चक्कर लगाने लगती है। वो सर पटकने वाली सत्रह बरस की लड़की शादी वाले दिन ही विधवा हो गई थी। ऐसी न जाने कितनी दारुण कहानियां खेतों के बीचोबीच उगे उस आस्था के पेड़ पर टंगी हुई थीं।
उस वक्त वो सारी खबरें जेहन में दोबारा जाग उठीं जिनमें कोई महिला बेटा होने की आस में किसी तांत्रिक के कहने पर अपनी दुधमुंही बच्ची को छोड़कर चली आती है...कहीं कोई जमीन को गिरवी पर से छुड़ाने के लिए अपने बच्चे को जिंदा गाड़ देती है, कहीं कोई अपनी जीभ काटकर चढ़ा आती है।
यह हमारे समूचे समाज का करुण सच है। फौरी तौर पर किसी वर्ग विशेष के गले में जाहिलियत की पहचान टांग देने भर से बात नहीं बनने वाली। उसकी जड़ों की पड़ताल जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि आखिर क्यों अचानक से आस्थाओं का भूचाल आ जाता है...क्यों इस तरह की बात करने वाले उन्हीें के हक में काम करने वालों को भी उन्हीें से माफी मांगनी पड़ती है। क्योंकि उनके दुःख ने एक खंभा पकड़ रखा है। उसे जोर से पकड़ने पर उन्हें राहत मिलती है। वहम ही सही पर इससे कुछ देर को उन्हें सुकून आता है...
कुछ लोगों ने इस दुःख से, भय से उपजी आस्थाओं को काबू करना शुरू किया। आस्था किसी उद्योग में तब्दील होने लगी। यूं ही मजाक ही मजाक में लोग कहने लगे कि बाबा होने में भी बढ़िया करियर हो सकता है...कोई कहता है जब नौकरी करने से उब जायेंगे तो बाबा बन जायेंगे...ये खाली वक्त के मजाक हो सकते हैं लेकिन इनमें हमारे समाज का विद्रूप चेहरा छुपा है। और कई सवाल भी छुपे हैं कि अगर ये मामला सिर्फ शोषित वर्ग से जुड़ा है, स्त्री वर्ग से जुड़ा है तो क्यों भला पढ़े-लिखे लोग भी, तमाम सेलिब्रिटी भी शामिल हैं इस सबमें।
कई परतें हैं...काफी जाले हैं...कई स्तर पर हैं...पढ़ भर लेना जो सब कुछ होता तो कबीर जैसा फकीर बिना कागज कलम हाथ से छुए कैसे वो तमाम पर्तें तोड़कर कह पाता कि कांकर पाथर जोड़ के मसजिद लिये बनाय...तां चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय...उसी कबीर का नाम लेकर कोई लाखों के तिलिस्मी सिंहासन पर बैठकर खुद को कबीरपंथी कहता है और भोली-भाली जनता उसे सच मानने लगती है...यह विरोधाभास वो देख पाये इसके बीच उनके जीवन की दारुण कथायें आ जाती हैं।
यह दुःख का समाज है, यहां सुख एक उत्सव की तरह सबसे उपरी पर्त पर अपनी भव्यता के साथ उपस्थित होकर भरमाता है। इसके सीने में अवसाद है जो आंसू बनकर टपप-टपप टपकता रहता है...जो आस्था बनकर किसी नाउम्मीद सी उम्मीद के पीछे दौड़ पड़ता है। इस समाज के माथे पर ऐसी ही किसी दरार को देखकर शायद प्रसून जोशी ने लिखा था दरारें-दरारें हैं माथे पे मौला....
http://dailynewsnetwork.epapr.in/348410/khushboo/01-10-2014#page/1/1
(published)
(published)
दुःख और सुख एक ही सिक्के के दो पहलू है ..
ReplyDeleteगंभीर चिंतन ...
मुझे आपका blog बहुत अच्छा लगा। मैं एक Social Worker हूं और Jkhealthworld.com के माध्यम से लोगों को स्वास्थ्य के बारे में जानकारियां देता हूं। मुझे लगता है कि आपको इस website को देखना चाहिए। यदि आपको यह website पसंद आये तो अपने blog पर इसे Link करें। क्योंकि यह जनकल्याण के लिए हैं।
ReplyDeleteHealth World in Hindi
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11-12-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1824 में दिया गया है
ReplyDeleteआभार
सच की पड़ताल और जड़ों में बैठा अंधविश्वास...जब तक एक सिरे से सोच की सफाई नहीं होगी...कुछ भी नहीं बदलेगा इस समाज में।
ReplyDeleteबढ़िया आलेख