Sunday, October 12, 2014

जंगल से उठती धुन और चीड़ों पर चौदहवीं का चांद...


 





एक सर्पीली सी राह थी...पगडंडडियों का सफर...चीड़ों का जंगल और सर पर चौदहवीं का चांद. चांदनी छलकने को बेताब...चांद इतना करीब...कि मानो हाथ बढ़ाने भर की देर...आगोश में उतरने को बेताब...आप चौदहवीं के चांद को गौर से देखिएगा, उसमें एक अलग सा ही एटीट्यूड होता है...वो पूनम के चांद में नहीं होता। तेरस के चांद में भी नहीं...सिर्फ चौदहवीं के चांद में।

निर्मल वर्मा की जानिब से चीड़ों पर चांदनी को इस कदर बूंद-बूंद पिया है कि उन घने चीड़ के जंगलों में जब चांद को देखा तो निर्मल वर्मा को आवाज देने का जी चाहा। कदमों की आहट से भी चीड़ों के जंगल में पसरी नीरवता...महकते सन्नाटे को भंग करना किसी हिमाकत सा मालूम होता।

न...कोई बात नहीं...सिर्फ मौन....एक गहरा मौन...शायद इसीलिए उन वादियों में, उस घने जंगल में न कोई नेटवर्क था और न उसकी कोई चाह। अपनी देह पर रेंगती चांदनी और मन के भीतर चहलकदमी करते मौन के साथ सुकून उतर आया था। आत्मिक...ऐन्द्रिक...सुख।

कोई नदी आंखों के कोटरों में करवट लेती है...चांद इतने करीब मैंने कभी नहीं देखा था, उसे अपने इतने करीब कभी महसूस नहीं किया था। जाने क्यों लगा कि ये चांद 'सिर्फ' मेरे लिए ही उगा है...'सिर्फ मेरे लिए...' ये 'सिर्फ' कितनी मुश्किलें पैदा करता है इस बात से नावाकिफ नहीं हूं....इसके जोखिम इतने घने हैं कि अक्सर उनमें पूरी उम्र उलझ जाती है...फिर भी बार-बार इस 'सिर्फ' में उलझने से बच नहीं पाती...

जंगल से कोई धुन उठती है...एक खुशबू....आगोश में लेने को तत्पर...कि बचने की कोई गुंजाइश भी नहीं...और ख्वाहिश भी नहीं...खुद को उस समूचे मंज़र के हवाले करते वक्त कितना हल्का महसूस हुआ था...जीवन की वो तमाम दुश्वारियां जिनके लिए बिसूरते-बिसूरते सूरतें खराब कर लीं, कितनी दयनीय हो चली थीं।

खुद को दोशाले में समेटकर मद्धम कदमों से निशब्द की ओर बढ़ना...

न बोलने वाला मौन नहीं...न होने वाला मौन...कोई आंतरिक संवाद भी नहीं...ऐसे मौन परिमार्जन होते हैं...मन के कमरे में जमी खर-पतवार को उखाड़ फेंकते हैं। मेरा 'मैं'....उस जंगल में विलीन हो चुका था...और वो जंगल अपनी तमाम खुशबू और समूचे चांद के साथ व्यक्तित्व में पैबस्त था।

एक गाढ़ा रूदन उभरता है...बहुत गहरा...बाहें पसारने का जी चाहता है...चाँद को छू लेने का जी चाहता है. चांद को छू लेने की इच्छा को मुक्त करते हुए उस रूदन के कांधे से टिकना मुफीद लगता है। इच्छाओं को मुक्त करना ही श्रेष्ठतम है...लेकिन श्रेष्ठतम जानते हुए भी इच्छाओं में उलझते रहते हैं...बार-बार...आंखों की नदी गालों को पार करते हुए गर्दन को सहलाने लगती है.

इच्छा...मुक्ति...इच्छा...मुक्ति...इच्छा...मुक्ति...स्क्रीन पर उभरती छवियों की तरह उभरते हैं और गुम होते हैं...फिर उभरते हैं फिर गुम होते हैं...दर्शक दीर्घा में मैं और वो चौदहवीं का चांद....

तभी कंधे पर किसी का हाथ महसूस होता है....चौंक के मुड़ती हूं...देखती हूं...वो कोई स्मृति थी....मुस्कुराती हुई सी...इच्छा से मुक्ति का अभी वक्त नहीं आया है शायद...अभी आसक्तियों के महासागर में और हिचकोले खाने हैं...समझ जाती हूं...चांद मुस्कुरा रहा है... करीब बैठा हुआ....मैं हाथ बढ़ाकर उसे छू लेने की इच्छा को मुक्त नहीं कर पायी आखिर...उसे छूने को हाथ बढ़ाती हूं तो वादियों से कोई मीठी धुन उठती है...

आधी रात को उस घने बियाबान में अपनी इच्छा को जोर से भींच लेती हूं...मुक्त नहीं कर पाती...चांद जो आसमान से उतरकर चीड़ों पर टंगा हुआ था हथेलियों में सिमट आता है...मैं ओस की चादर लपेटे हथेलियों में चौदहवीं का चांद लिए सो जाती हूं....

(तस्वीरें- सुभाष रावत )


4 comments:

  1. सुंदर लेख और चित्र

    ReplyDelete
  2. । मेरा'मैं'....उस जंगल में विलीन हो चुका था...और वो जंगल अपनी तमाम खुशबू और समूचे चांद के साथ व्यक्तित्व में पैबस्त था।
    आपने बहुत खुब लिख हैँ। आज मैँ भी अपने मन की आवाज शब्दो मेँ बाँधने का प्रयास किया प्लिज यहाँ आकर अपनी राय देकर मेरा होसला बढाये

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन, उम्दा एक बार फिर आनंद आ गया.
    आपके ही शब्दों में कहें तो ...

    आत्मिक...ऐन्द्रिक...सुख।

    ReplyDelete