कितनी सुबहें दहलीज पर रखे-रखे मुरझाने को हुई हैं....कि वो वक्त पे आती हैं....मुस्कुराती हैं...हाथ आगे बढ़ाती हैं....लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आ जाता है कि उनकी सुनने वाला कोई नहीं. किसी को अब सुबहों का इंतजार नहीं....रातें जब तक विदा नहीं होतीं सुबहों का कोई अर्थ नहीं...मुट्ठी भर उजास को सुबह मानने का वक्त अब जा चुका...अब तो रोशनी का समंदर चाहिए...
सुबहों की रातों से जंग है इन दिनों...इधर रातें अपना आंचल फैलाती जाती हैं उधर सुबहें थोड़ा और तनकर खड़ी होती हैं. एक न जाने की जिद में है और दूसरी आकर मानने की जिद में। इनके इस जिद के खेल से दूर मौसमों की ओढ़नी ओढ़े वो शहरों शहर भटकती फिरती है....
उसने कदमों में बांध लिया है सफर और कंधे पर रखी है हमसफर की याद...आंखों में पहना है उदासियों का काजल....झरते हुए पत्तों में, छूटते हुए सफर में, राह में मिलनी वाली मुस्कुराहटों में, अंजुरी भर उम्मीदों, पेड़ों पर उगती कोपलों, पहाड़ों पर झरती बर्फ, रेत के धोरों, समंदर की लहरों के बीच अपने भीतर के घने बियाबान को लिये घूमते-घूमते उसे एक दरवेश मिला...वो मुस्कुराई...दरवेश खामोश रहा...
जा तू भटकती ही रहे हमेशा....ऐसा कहकर दरवेश ने अपनी आंखें फिरा लीं...वो जानती थी कि यह दुआ देते हुए दरवेश की आंखों में भी एक नदी उतर आई थी...उसने दरवेश की दुआ को पलकों पर उठाया और चल पड़ी नये सफर पर....
आसमान से लम्हे टूट-टूटकर उसके कांधों पर बरसते रहे...वो अपनी खामोशी की ओढ़नी में उन लम्हों को समेटती रही...चलती रही...
उसे ये तो पता है कि मरने के लिए जीना जरूरी है...लेकिन जीने के लिए...?
दूर कहीं कोई क्रान्ति की बात कर रहा है, और वो नम मुस्कुराहटों से धरती पर लिख रही है प्रेम...जिसे पढ़ते हुए ईश्वर उदास है....
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (04.04.2014) को "मिथकों में प्रकृति और पृथ्वी" (चर्चा अंक-1572)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteबहुत ही गहरी बात कही आपने इस पोस्ट में....
ReplyDeleteपहले जी लें, भरपूर।
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