वर्जीनिया वुल्फ के कमरे से बाहर आते हुए दूर-दूर तक कोई कमरा नजर नहीं आता।
एक कमरा। एक स्त्री के लिए एक कमरा? कैसी अजीब सी बात लगती है ना सुनने में? भला एक स्त्री के लिए एक कमरे के अलग से होना का क्या अर्थ है। जरूरत ही क्या है ऐसी कोई? अरे जनाब, जिस जमाने में दो कमरे के मकान में पूरा परिवार बसर करता हो, भला किसी स्त्री के लिए एक कमरे की बात का भी क्या औचित्य हो सकता है? तो यहां मेरा तात्पर्य कम से कम ईंट और गारे से बने कमरे भर से नहीं है, उससे भी हो सकता है लेकिन उतना ही नहीं। मेरा तात्पर्य है एक स्त्री के जीवन के 24 घंटों में से उसके लिए एक टुकड़ा स्पेस होने से। ऐसा स्पेस जहां वह खुद को महसूस कर सके। अपनी तमाम चिंताओं, परेशानियों को उतारकर रख सके। तमाम हिदायतों और नसीहतों से पीछा छुड़ा सके। रियाज कर सके, लिख सके, खेल सके, गप्पें मार सके, खुलकर हंस सके या रो भी सके।
आमतौर पर इस तरह के स्पेस की स्त्रियों के जीवन में कोई जरूरत भी है यह उन्हें सारी उम्र पता नहीं चल पाता। यूं एक कमरे साॅरी स्पेस की जरूरत तो पुरुषों को भी है ही फिर स्त्रियों के लिए ही इसकी पैरवी की बात क्यों? सवाल तो वजिब है, लेकिन अपने भीतर ही इसका जवाब भी छुपा है। जिस समाज में हम जी रहे हैं पुरुषों के लिए अपना स्पेस क्रिएट करना कोई मुश्किल काम नहीं है, मुश्किल है स्त्रियों के सामने जिन्हें एक ही वक्त पर पाॅवर प्वाॅइंट प्रेजेंटेशन भी बनाना होता है, और बच्चे का दूध भी। एक ही वक्त पर आॅफिस में कोई मीटिंग काॅल करनी होती है और घर में शाम के डिनर की तैयारी भी करवानी होती है। भागकर मेटो पकड़नी होती है और बुखार में तपती देह को इग्नोर करना होता है।
सारी जिंदगी दौड़ते-भागते जूझते हुए छोटे से घर के सपने को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी जब उन्हें खुद का दामन थामना होता है तो इस पूरी समूची दुनिया में एक कोना नजर नहीं आता। वाॅशरूम में नल चलकर अपनी सिसकियों को बहा देने के सिवा कोई नया आॅप्शन अब तक ईजाद नहीं हो सका है।
यह बात और है कि अब इसकी जरूरत महसूस करने वाली स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है। रूस की कवियत्री मरीना अपनी डायरी में लिखती है कि एक सतही फूहड़ व्यंग्य लिखने वाले लेखक भी अपने लेखन के लिए एक कमरा, मेज और समय का जुगाड़ कर लेते हैं जबकि स्त्रियों के लिए यह बेहद अप्राप्य है। कथाकार शिवानी के उपन्यासों के बनने की प्रक्रिया में हल्दी, तेल लगे कागज हों या ममता कालिया के एक पत्नी के नोट्स से गुजरना हर जगह उस एक कमरे की कमी नज़र आती है।
आमतौर पर इस तरह के स्पेस की स्त्रियों के जीवन में कोई जरूरत भी है यह उन्हें सारी उम्र पता नहीं चल पाता। यूं एक कमरे साॅरी स्पेस की जरूरत तो पुरुषों को भी है ही फिर स्त्रियों के लिए ही इसकी पैरवी की बात क्यों? सवाल तो वजिब है, लेकिन अपने भीतर ही इसका जवाब भी छुपा है। जिस समाज में हम जी रहे हैं पुरुषों के लिए अपना स्पेस क्रिएट करना कोई मुश्किल काम नहीं है, मुश्किल है स्त्रियों के सामने जिन्हें एक ही वक्त पर पाॅवर प्वाॅइंट प्रेजेंटेशन भी बनाना होता है, और बच्चे का दूध भी। एक ही वक्त पर आॅफिस में कोई मीटिंग काॅल करनी होती है और घर में शाम के डिनर की तैयारी भी करवानी होती है। भागकर मेटो पकड़नी होती है और बुखार में तपती देह को इग्नोर करना होता है।
सारी जिंदगी दौड़ते-भागते जूझते हुए छोटे से घर के सपने को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी जब उन्हें खुद का दामन थामना होता है तो इस पूरी समूची दुनिया में एक कोना नजर नहीं आता। वाॅशरूम में नल चलकर अपनी सिसकियों को बहा देने के सिवा कोई नया आॅप्शन अब तक ईजाद नहीं हो सका है।
यह बात और है कि अब इसकी जरूरत महसूस करने वाली स्त्रियों की संख्या बढ़ रही है। रूस की कवियत्री मरीना अपनी डायरी में लिखती है कि एक सतही फूहड़ व्यंग्य लिखने वाले लेखक भी अपने लेखन के लिए एक कमरा, मेज और समय का जुगाड़ कर लेते हैं जबकि स्त्रियों के लिए यह बेहद अप्राप्य है। कथाकार शिवानी के उपन्यासों के बनने की प्रक्रिया में हल्दी, तेल लगे कागज हों या ममता कालिया के एक पत्नी के नोट्स से गुजरना हर जगह उस एक कमरे की कमी नज़र आती है।
इस एक कमरे की तलाश सिर्फ लिखने, पढ़ने की दुनिया से जुड़ी स्त्रियों की बात भर नहीं है। यह एक कमरा दरअसल स्त्रियों को उन्हें उनके करीब ले जाने, अपने आपको समझने, महसूस करने, अभिव्यक्त कर पाने की आजादी की तलाश है। भले ही जिंदगी की दौड़ भाग ने उन्हें यह महसूस कर पाने की इजाजत भी न दी हो लेकिन अब उनका अंतर्मन इस भाग-दौड़ में भी यह कमी महसूस करने लगा है। आज की स्त्री ने अपने कोने की तलाश शुरू कर दी है।
पिछले बरस की ही तो बात है जब मेरी एक दोस्त ने बताया कि उसने वक्त से पहले रिटायरमेंट सिर्फ इसलिए लिया कि वो कुछ समय अपने लिए जीना चाहती थी। 35 बरस की शादी के बाद भी उसके लिए अपने संभ्रात पति को यह बता पाना आसान नहीं हो पाया कि उसके लिए उसके अपने स्पेस के मायने क्या हैं।
सदियों से स्त्रियों की दुनिया से यह कमरा गुम है। वो कई कमरों के मकान में भले ही रह लें लेकिन उनकी जिंदगी में उनका कमरा, उनके 24 घंटों में से एक लम्हा जो उनका हो नदारद ही है। शायद इसी कमी से जूझने के लिए वो गोल घेरों के बीच नज्में गाने लगीं। उनकी बतकहियों के किस्से मशहूर होने लगे। मशहूर होना लगा कि स्त्रिया ंतो चुप ही नहीं रह सकतीं....कभी कोई नहीं समझ पाया कि स्त्रियां दरअसल चुप ही तो हैं सदियों से। और अब उन्होंने उस चुप के दरवाजे पर दस्तक दी है। वो निकल पड़ी हैं अपने कोने की तलाश में। वक्त के किसी हिस्से पर वो अपने होने की मुहर लगाने को व्याकुल हैं। दौड़ती भागती जिंदगी में से कुछ लम्हे चुराकर वो अपना होना तलाश रही हैं, इस बड़ी सी जिंदगी में एक कोना तलाश रही हैं। ये उनके अपनी ओर बढ़ते कदमों की आहट है....ये तलाश उनकी खुद को महसूस करने की तलाश है।
सदियों से स्त्रियों की दुनिया से यह कमरा गुम है। वो कई कमरों के मकान में भले ही रह लें लेकिन उनकी जिंदगी में उनका कमरा, उनके 24 घंटों में से एक लम्हा जो उनका हो नदारद ही है। शायद इसी कमी से जूझने के लिए वो गोल घेरों के बीच नज्में गाने लगीं। उनकी बतकहियों के किस्से मशहूर होने लगे। मशहूर होना लगा कि स्त्रिया ंतो चुप ही नहीं रह सकतीं....कभी कोई नहीं समझ पाया कि स्त्रियां दरअसल चुप ही तो हैं सदियों से। और अब उन्होंने उस चुप के दरवाजे पर दस्तक दी है। वो निकल पड़ी हैं अपने कोने की तलाश में। वक्त के किसी हिस्से पर वो अपने होने की मुहर लगाने को व्याकुल हैं। दौड़ती भागती जिंदगी में से कुछ लम्हे चुराकर वो अपना होना तलाश रही हैं, इस बड़ी सी जिंदगी में एक कोना तलाश रही हैं। ये उनके अपनी ओर बढ़ते कदमों की आहट है....ये तलाश उनकी खुद को महसूस करने की तलाश है।
(Published- 8 March 2014 )
http://epaperhindi.absoluteindianews.com/epapermain.aspx?ednm=11
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सचमुच हर जगह स्त्रियों के लिए स्पेस की कमी है हर एक को एडजस्ट करते-करते वे स्वयं वंचित रह जाती हैं .सब अपने हैं, सब के लिए करने के चक्कर में अपना भान भूल जाना जब स्वभाव बन जाये तो कभी-कभी मन की विषण्णता ,और अकारण उचटन भीतरी पुकार जैसे उभरती हैं.मानसिकस्वा स्थ्य के लिये भी इसका होना ज़रूरी है.
ReplyDeleteपैर टिकाने के लिये कमरा, कल्पनाओं के लिये आकाश, वह भी अपना।
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