सब कुछ हो रहा है,
हर शाम एक टीस का उठना,
सब कुछ होने मैं शामिल रहता है।
किस्म-किस्म की कहानियाँ, आँखो के सामने चलती रहती है।
कुछ पड़ता हूँ ... कुछ गढ़ता रहता हूँ।
दिन में आसमान दखता हूँ।
जो तारा रात में दखते हुए छोडा था...वो दिन में ढूँढता हूँ।
सपने दिन के तारों जैसे है।
जो दिखते नही हैं... ढूढने पड़ते हैं।
रात में सपने नहीं आते....
सपनों की शक्ल का एक आदमी आता है।
ये बचा हुआ आदमी है।
जो दिन के 'सब कुछ होने में'- सरकता रहता है,
और शाम की टीस के साथ अंदर आता है।
ये दिन की कहानी में शामिल नहीं होता....
इसकी अपनी अलग कहानी हैं...
जिसे जीना बाक़ी है.…
- मानव कौल
(मानव की अन्य कविताओं को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें -http://manavaranya.blogspot.in/)
सुन्दर रचना
ReplyDeleteप्रश्न अनुत्तरित हैं, जीवन जीना है
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