Monday, December 3, 2012

धूप का उबटन और भागते दिन...


7 नवंबर

हथेलियों पर सूरज को उगाने का अपना मजा है. बीता दिन इतना दौड़ भाग भरा रहा कि सिरहाने ढेर सारी स्म्रतियों के साथ एक कुंटल थकान भी छोड़ गया. थकान के समंदर में गोता लगाते हुए यह सुकून भी था कि सूरज हथेलियों में है. जब हम चाहेंगे तब सुबह होगी. सारी रात मुट्ठियों में सूरज लिये हम सोते रहे और उठे तो माथे पर धूप का उबटन लगा था. गुनगुनी धूप हौले-हौले पलकों को सहला रही थी. सामने कबूतरों की मटरगशती चल रही थी. शहरों को जानने के लिए टूरिस्ट की तरह जाने की बजाय एक इनसाइडर की तरह जाना हमेशा से भला लगता रहा है. हम टूरिस्ट नहीं थे. हम यहां एक रिश्ता बनाने आये थे. लोगों से मिलने. कुछ लेने नहीं, देने भी नहीं बस कि एक जैसी सोच के लोगों का कारवां बनाने. आज कई कालेजों में लोगों से मुलाकात हुई, टीचर्स से, छात्रों से भी. सबसे ज्यादा हैरत उन्हें यह जानकर होती कि क्या कोई बिना किसी काम के सिर्फ एक काम का हिस्सा होने के नाते मिलने आ सकता है...इतनी दूर...

तहजीब, सलीका, मिठास बेहिसाब. लोग ऐसे मोहब्बत भरे कि गले लग के रो लीजिये जी भर के. हम भागते थे सारा दिन और दिन की हमसे होड़ होती थी. वो और तेजी से सरकता. जब हम थक हार के पांव पसार के बैठते...भूख को महसूस करते तब तक षाम कंधे से कंधा मिलाकर बैठ जाती...अरे...शाम कहां...शाम को छूकर निकलती हुई सी रात. दिन यहीं ठहरता था आकर. गहरी तनहाई और लंबी फुरसत.

यहां सिर्फ एक ही कमी खली अपने वेजिटेरियन होने की. हालांकि ये कमी हर जगह चुभती ही है. खासकर तब, जब बाकी लोग नान वैजेटिरयन हों. सारे दिन की भूख पर नानवेज की खुशबू काबिज होती और भूख आमतौर पर गायब ही हो जाती. दिन के कुछ फल, बिस्किट दाल और सब्जी के बीच भूख से दो-दो हाथ करना. हालांकि सारा दिन प्रदीप जी हमारे खाने का ख्याल रखते. इतना कि कभी-कभी हैरत भी होती और खुद पर गुस्सा भी आता. क्यों इतना साॅफेस्टिकेशन है खाने को लेकर. ये नहीं...वो नहीं...यहां नहीं...वहां नहीं...

आज जुबेर से मिली. जुबेर सोनमर्ग का रहने वाला है. उसने हमें ज्वाइन कर लिया है आफिशियली भी, पर्सनली भी. भोली सी सूरत वाला भला सा वो लड़का बता रहा था कि कल रात सोनमर्ग में बर्फ गिरी है...उसके कहने भर की देर थी हमने हथेलियों पर बर्फ झरती देखी...शीशे के पार का मौसम झांककर हमें देख रहा था. दोस्ती तो अब हो ही चली थी.
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सारे दिन उत्साह हमारे सर पर नाचता रहता. शाम की थकान में वो भी अपना हिस्सा मांगता...रातें खिलखिलाते हुए आतीं और देर तक पास में बैठी रहतीं.
प्रदीप जी ने आज हीर सुनाई. मद्धिम रोशनी के बीच रेशमा आपा की आवाज घुल रही थी. हम कितने ज्यादा खामोश थे. कोई किसी के एकांत में दस्तक नहीं दे रहा था. साथ होते हुए भी तन्हा हुआ जा सकता है बशर्ते कि जिसके साथ आप हैं उसे तनहाई की हिफाजत करने का हुनर आता हो. आंखों का पता नहीं पर अंदर से हम सब भीगे से थे.
देर रात गये ख्याल आया कि कल सूरज हमारी मुट्ठियों में नहीं होगा...हमें उसके पीछे भागना है. सुबह अनंतनाग और पहलगाम के लिए निकलना जो था. बड़े बेमन से हमने अपने-अपने कमरों का रुख किया...हालांकि नींद ने ज्यादा नखरे नहीं दिखाये...

जारी...

2 comments:

  1. भूख जहाँ के शब्द न जाने..

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  2. उस धूप की गर्माहट हमने भी महसूस कर ली प्रतिभाजी।

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