Monday, November 19, 2012

फिर-फिर प्यार तुम्हीं से....


4 नवंबर 2012

उदासियों की चादर ताने मौन के तकिये पर सर टिकाये एक टुकड़ा नींद की अभिलाषा लिए न जाने कितने युग बीत चले थे. कभी करवटें बदलते-बदलते पीठ अकड़ जाती या आसमान टोहते-टोहते ऊब सी घिर आती तो किन्ही अनचीन्हे रास्तों को पांव में बांधकर चल पड़ती. बिना किसी मंजिल की तलाश के रास्तों पर चलने का सुख कोई-कोई ही जान सकता है. उस रोज भी एक बदली सिरहाने बैठी रही रात भर हाथ थामे, तभी रास्तों ने आवाज दी '...आ जाओ.' मैंने करवट बदलते हुए कहा '...उंहूहूं...मेरा मन नहीं.' रास्तों से मेरा नाता पुराना है. वो मेरे मन का सब हाल जानते हैं. कितने ही अनजाने रास्ते क्यों न हों....दुनिया में शायद इतने लाड़ से किसी ने मुझे न मनाया होगा जितने लाड़ से मुझे रास्ते पुकारते हैं. मेरा इनकार कब उसे स्वीकार था. उसने सिरहाने बैठी बदली को चाय बनाने भेजा और मेरे सर पर हाथ फिराते हुए कहा, चलो. कोई सम्मोहन ही था शायद कि आनन-फानन में पैकिंग हो गई. 4 नवंबर को सुबह चार बजे करीब 50 किलोमीटर का सफर तय कर चुकने के बाद जब एक जगह चाय पीने को रुके तो एहसास हुआ कि जिस रास्ते ने मुझे मनाया था वो कश्मीर का रास्ता था. कोहरे की चादर ओढ़े किशोरी अमोनकर को सुनते हुए उस रोज एक बार फिर रास्तों पर बहुत प्यार आया...

4 comments:

  1. जब रास्ते प्यारे लगने लगें तो मुकां गुम हो जाते हैं..

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  2. आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 20/11/12 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है

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  3. ओह, बहुत सुंदर
    बहुत बढिया

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  4. i am ready for kashmir yatra......

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