Monday, September 10, 2012

आओ चलें...



सड़कें मुझे बहुत पसंद हैं. मेरा दिल अक्सर सड़कों पर आ जाता है. साफ़ सुथरी दूर तक फैली सड़कें. आमंत्रण देती हुई कि आओ...चलें...सड़क या रास्ता? कुछ भी कहिये. हालाँकि मुझे पगडंडियाँ भी पसंद हैं इसलिए रास्ता कहना भला है. वो भी ऐसी ही एक सड़क थी माफ़ कीजियेगा, रास्ता था. दूर से पुकारते उस रास्ते के सीने पर आखिर खुद को रख ही दिया एक रोज. वो किस मंजिल को जाता था पता नहीं लेकिन उस रास्ते पर चलना मुझे रास आया. वो रास्ता मुझे शायद इसलिए भी पसंद था क्योंकि उसमे कोई दोराहे नहीं थे. बस कि चलते जाना था. दो राहों वाले रास्ते मुझे पसंद नहीं. वहां हमेशा एक दुविधा होती है. इधर चलूँ या उधर? जिन्दगी का कुछ ऐसा याराना रहा है मुझसे कि जब भी खुद से चुनना हुआ हमेशा पहले गलत रास्ता ही चुना. हालाँकि इसका ये फायदा भी हुआ कि मुझे दो राह फूटने वाले सभी रास्तों के बारे में विस्तार से पता होने लगा. फिर मैंने एक तरकीब चुनी.( फिर चुनाव...कभी कभी हम चाहकर भी चुनाव से बच नहीं सकते.) खैर, तो मैंने ये तरकीब चुनी कि जिस रास्ते पर कम लोग जाते दिखेंगे, मैं उन पर चलूंगी. इसमें एक बात का सुख तो पक्का था कि रास्ते में कोई भीड़ नहीं मिलने वाली थी. एकांत. दूर तक पसरा हुआ मीठा सा एकांत. इक्का-दुक्का कोई दिख जाता तो लगता कि ये भी या तो मेरी ही तरह एकांत की तलाश में है या रास्ता भटक गया है....भटकना...ओह...कितना सुन्दर शब्द है. भटकाव...जिन्दगी का सारा सार तो भटकाव में है न...हम सब भटके हुए मुसाफिर हैं. न जाने किस राह को निकलते हैं...किस राह को मुड जाते हैं. कौन सी राह तलाशने लगते हैं. भूल जाते हैं कि किस तलाश में निकले थे. तलाश....कोई थी भी या नहीं. थी शायद...अम्म्म...नहीं थी शायद. पता नहीं. पर चलना तो तय था.
देखा, भटकाव का कितना आनंद है...कहाँ से कहाँ आ पहुंची. मैं तो उस रास्ते की बात कर रही थी जिसे मैंने इसलिए चुना था कि उस पर धूप और छांव का खेल बड़ा अद्भुत चलता था. उलझाने के लिए कोई दूसरी राह नहीं. भीड़ नहीं. बस कि चलते जाने की आज़ादी. उस रास्ते पर बारिश का ठिकाना था. ये तय है कि पूरे रास्ते में आपका भीगना तय है. तर-ब-तर होना. फिर धूप का मिलना भी तय है. बारिश की बदमाशी को धूप बड़े करीने से सहेजती और देह से लेकर मन तक को ऐसे सुखाती जैसे माँ अपने बच्चे को देर तक भीगने के बाद सुखाती है..अपने आँचल से. वैसे तो ये रास्ता कहीं ले नहीं जाता लेकिन फिर भी अगर कहीं आप पहुँच गए तो आपके पास न बारिश का पता होगा, न धूप का. आप खाली हाथ ही पहुंचेंगे. हाँ, संभव है कि बादल का कोई टुकड़ा पैरों में उलझा हो और रास्ते की कारस्तानियों की चुगली कर दे.

मैंने आज न जाने कितने बरसों बाद बहुत लम्बी ड्राइव का आनंद लिया..कानों में अमीर खुसरो...कहीं न मुड़ने वाला रास्ता और शायद मेरी ही तरह भटका हुआ एक मुसाफिर कि जिसके साये के पीछे चलते जाने में खो जाने का भी सुख था और मिल जाने का भी....रास्ता...चलता गया...चलता गया...

8 comments:

  1. कम जाते हुये रास्ते पर आनन्द अधिक है..हम भी वही चुनते हैं।

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  2. चलते चले जाना रास्तों पर कि रास्ता है !

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  3. @ K K Mishra- नहीं ये रास्ता मसूरी की तरफ जाता है लेकिन मुख्य मार्ग नहीं है ये...किसी गांव से होते हुए...

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  4. फ्रॉस्ट की 'द रोड नॉट टेकन' पढो.

    अंत में दुखी और पछताता हुआ आदमी.
    मेरी यार भी उसी सड़क पर चलती है जिस पर कम लोग चले/ चलते हैं, पर वह अंत में तुम्हारी तरह पछताती नहीं मि. फ्रॉस्ट !

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  5. सुन्दर ...बढ़िया एक्सप्रेशन....
    @ बबुषा....सच कहा..
    जो एक्सप्लोर करना चाहते हैं वो पछताते नहीं:-)

    अनु

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