कागज पर कोई शब्द नहीं थे...
मैंने अब दरवाजों की ओर देखना छोड़ दिया है. वहां से कोई उम्मीद नहीं आती. खिडकियों को भी गहरे नीले रंग के पर्दों के भीतर छुपा दिया है. हालाँकि परदे के हिलने पर खिड़की के पार घनी फूलों की बेल के बीच छुपम छुपाई खेलते चिड़िया और उसके बच्चों पर नजर जाती हैं. दीवार पर घंटों नजर गडाए रह सकती हूँ. सामने वाली दीवार को एकदम खाली छोड़ा हुआ है. ताकि स्म्रतियों के प्रोजेक्टर पर जब अतीत की रील घूमे तो दीवार पर टंगी किसी चीज़ से टकराए नहीं. मौसम पूरी अराजकता के साथ कमरे में अपना अस्तित्व जमाये हुए है. जैसे कह रहा हो मुझे निकालो तो जानूं.
रोज अंजुरी भर शब्द सिरहाने जमा हो जाते हैं. मैं उन्हें इकठ्ठा करना नहीं चाहती क्योंकि शब्दों पर मेरी कोई ख़ास आस्था नहीं है. मुझे यकीन है कि भाषा के निर्माण के पहले भी संवाद होते रहे होंगे और बेहतर रहे होंगे. अब तो यूँ लगता है कि शब्दों पर काई सी जम गयी है. वो फिसल जाते हैं. शब्द चालाक हो गए हैं, उन्होंने अपने कई अर्थ गढ़ लिए हैं. उन कई अर्थों में बचाव के पेच भी हैं. कभी कभी दिल चाहता है कि सारे शब्दों की कोई पोटली बनाऊं और गोमती में विसर्जित कर आऊं. लेकिन जब मैं उन्हें पकड़ने चलती हूँ कमबख्त भाग जाते हैं...मै मुंह फुलाकर लिहाफ में सिमट जाती हूँ तो सब के सब आस पास मंडराते हैं. मैंने भी ठान लिया है नहीं उलझना है शब्दों के चक्रव्यह में मुझे भाव का संसार रचना है. रोने के लिए रोना नहीं लिखना ना हंसने के लिए हँसना. न क्रांति के लिए क्रांति ना प्रेम के लिए प्रेम....
मुझे रचना है सब कुछ नए सिरे से नयी भाषा में. लगातार इस्तेमाल होते होते सारे शब्द पुराने पड़ चुके हैं अपना असल अर्थ खो चुके हैं. लेकिन मैं जिस भाव की भाषा में लिखूंगी उसे कोई पढ़ पायेगा क्या. क्या किसी के सीने में उडेला जा सकेगा भावनायों का समन्दर बिना कुछ कहे और लौटाया जा सकेगा जाते हुए क़दमों को वापस. क्या बिना कहे बीने जा सकेंगे वो सारे भाव जो शब्दों को चुनते वक़्त फिसलकर गिर पड़े थे...पूरी धरती भावों से भर गयी थी और किताबों में रह गए थे महज शब्द...
चिड़िया के बच्चे बारिश की ओट में कूद फांद मचा रहे हैं... सामने पड़े कागज पर कोई शब्द नहीं थे...लेकिन वो कागज मुस्कुरा रहा था. उस कागज का हवाई जहाज बनाकर चिड़िया के बच्चों की तरफ उछालती हूँ. सब के सब डाल से उड़ जाते हैं...कागज का जहाज अब भी वहीँ अटका है...मुस्कुरा रहा है...
कुछ आवारा से ख्याल... यूं ही बेमतलब.. शब्दों की हद में आने से बगावत करते हैं। डायरी का एक पन्ना लगी यह पोस्ट
ReplyDelete@ Deeoika- डायरी का पन्ना ही तो है.
ReplyDeleteबहुत खूब ... कागज पर शब्द नहीं थे पर मुस्कान थी ...
ReplyDeleteशब्द अक्सर ही धोका दे जाते है।
ReplyDeleteकिसी के सीने में उडेला जा सकेगा भावनायों का समन्दर बिना कुछ कहे और लौटाया जा सकेगा जाते हुए क़दमों को वापस. क्या बिना कहे बीने जा सकेंगे वो सारे भाव जो....sunder
ReplyDeleteगहरे भाव।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति।
rochak prastuti
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर शैली में लिखी गई , मन से उपजी और मन को छूती रचना, वाह !!!
ReplyDeleteहम्म्म... बढ़िया है प्रतिभा.. शब्दों को पकड़कर बस में कर पाना वाकई मुश्किल है. ये तो धूप को मुट्ठी में कैद करने जैसा है... धूप हथेलियों से फिसली जाती है, और गरमाहट है कि नख-शिख तक तारी हो जाती है...
ReplyDeleteशब्द चालाक हो गए हैं, उन्होंने अपने कई अर्थ गढ़ लिए हैं. उन कई अर्थों में बचाव के पेच भी हैं...
ReplyDeleteसच में प्रतिभा जी ...
अब तो कई बार अपने बोलने पर भी पछतावा ही होता है और और सुनायी देने वाले शब्दों पर हैरानी.
...
अरे वाह !
मैंने भी ठान लिया है नहीं उलझना है शब्दों के चक्रव्यह में मुझे भाव का संसार रचना है. रोने के लिए रोना नहीं लिखना ना हंसने के लिए हँसना. न क्रांति के लिए क्रांति ना प्रेम के लिए प्रेम....
पर मैं फिर आपको फालो कैसे करूँगा :( :(
जो भी हो मुझे जीना है आप वाली बिना भाषा कि दुनिया में !!
सुंदर अभिव्यक्ति,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
anjuri bhare shabdon se sundar abhivakti,
ReplyDeleteचलिए...इन चालाक शब्दों से पीछा छुडा ही लेते हैं
ReplyDeleteकुछ ख्याल खामाखवाह ही दिमाग का एक हिस्सा बेदर्दी से काबिज कर लेते हैं.
ReplyDelete"शब्द चालाक हो गए हैं, उन्होंने अपने कई अर्थ गढ़ लिए हैं. उन कई अर्थों में बचाव के पेच भी हैं....."
ReplyDeletesahi kaha....harek shabd anekaarthi ho gaya hai...aap bhale hi ek arth mein bolen..sunne vala uska kya matlab nikaalega..ye uski dayadrishti par nirbhar karta hai....!!
aur bhaavnaaon ke liye bhaashaa koi maayne nahin rakhti...jab bhaav umadte hain to shabd kamzoor pad jaate hain....
सुन्दर गहन भाव अभिव्यक्ति.....
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