बची रहती है धूप के भीतर की नमी
पत्थरों के भीतर की हरारत
रेत के भीतर
उग ही आता है कोई समंदर
आग की आंखों में
छलक उठते हैं दो आंसू
बंजर धरती पर उगती हैं उम्मीदें
सब कुछ खत्म होने के बाद भी
बचा रहता है इंतजार...
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मेरी हथेली पर एक सूर्य रखा था
उँगलियों पर तारों का था ठिकाना
हथेली के ठीक आखिरी कोने पर
चाँद ने जमाया था डेरा,
अपनी हथेली पर जमा करके
समूचा आसमान
निकल पड़ी हूँ धरती की तलाश में
किसी कैलेण्डर के किसी कोने में
नहीं टंका है धरती से आसमान का मिलन
बस हथेली को उलटकर
आसमान गिराने भर की देर है
न जाने किसने थामा है मेरी हथेलियों को...
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मेरी हथेली पर एक सूर्य रखा था
उँगलियों पर तारों का था ठिकाना
हथेली के ठीक आखिरी कोने पर
चाँद ने जमाया था डेरा,
अपनी हथेली पर जमा करके
समूचा आसमान
निकल पड़ी हूँ धरती की तलाश में
किसी कैलेण्डर के किसी कोने में
नहीं टंका है धरती से आसमान का मिलन
बस हथेली को उलटकर
आसमान गिराने भर की देर है
न जाने किसने थामा है मेरी हथेलियों को...
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सुंदर ....
ReplyDeleteआस बची कुछ रहती है,
ReplyDeleteमन का वीराना सहती है।
दोनो ही रचनायें शानदार्।
ReplyDeleteबंजर धरती पर उगती हैं उम्मीदें
ReplyDeleteसब कुछ खत्म होने के बाद भी
बचा रहता है इंतजार...
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बस हथेली को उलटकर
आसमान गिराने भर की देर है
न जाने किसने थामा है मेरी हथेलियों को...
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दोनों ही रचनाएं खूबसूरत हैं.......
दोनों रचनाओं से ली गई कुछ पंक्तियों के माध्यम से अपने भावों को दिखाने की नाकाम कोशिश कर रही हूँ...क्यूँ कि भाव छूटते से हैं लेकिन मजबूरी है...क्या करूँ...?
कई बार पढ़ गई....लेकिन हथेलियाँ रीती की रीती ही हैं....मन करता है कि जिसने थामी है ये हथेली छोड़ दे और आसमान धम्म से मेरी हथेली पर गिर जाए....!!
आगे कुछ भी नहीं...कुछ कहना भी नहीं...
@ Punam-बहुत शुक्रिया पूनम जी. बस यूँ ही हाथ थामे रहिये की दिल कुछ खाली हो सके...
ReplyDeleteअत्यंत खुबसूरत रचना...
ReplyDeleteसादर बधाई.
नहीं टंका है धरती से आसमान का मिलन
ReplyDeleteबस हथेली को उलटकर
आसमान गिराने भर की देर है
न जाने किसने थामा है मेरी हथेलियों को...
कमाल कर दिया इन पंक्तियों ने ...पलट जाये ये हथेलियाँ औरहो जाये धरती से आसमान का मिलन... सुन्दर भाव
उग ही आता है कोई समंदर
ReplyDeleteआग की आंखों में
छलक उठते हैं दो आंसू
बंजर धरती पर उगती हैं उम्मीदें
सब कुछ खत्म होने के बाद भी
बचा रहता है इंतजार...
....
कुछ बातें भगवान के बस में भी नहीं होती ...जैसे कि इसी इंतज़ार को ही ले लो !
बस हथेली को उलटकर
ReplyDeleteआसमान गिराने भर की देर है
न जाने किसने थामा है मेरी हथेलियों को...
.....
जिसने भी थाम रखा है हथेलियों को उसे बखूबी मालूम है कि उसने शायद प्रलय को होने से रोक रखा है...
बेहतरीन भाव संयोजन ।
ReplyDeleteबहुत खूब ...शानदार
ReplyDeleteकुछ विचार मेरे भी
क्यों मै खुद को अकेली मानूँ...मै तो खुद में
परिपूर्ण हूँ ....खुद की विचारो की आंधियो में
खुद से चरपरिचित...
हां फिसलती हैं धूप..मेरी हथेलियों से
फिर भी एक पूर्ण जहान की मैं ही मालिक हूँ ....अनु
behtreen bhav ke saath behtren prastuti.......
ReplyDeleteखूबसूरत
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