मैं शायद गहरी नींद में थी. बहुत गहरी नींद. तभी अचानक हथेली पर कुछ रेंगता हुआ सा महसूस हुआ. हथेली को बंद करना चाहा लेकिन नहीं कर पाई. उंगलियां मुडऩे से इंकार कर देती हैं. मैं इस रेंगने की ओर से ध्यान हटाते हुए गहरी नींद की चादर के भीतर छुप जाती हूं. लेकिन हथेली पर हलचल कायम रहती है. मैं हाथ झटककर नींद में ही छुपी रहती हूं. लेकिन ...लगातार कुछ रेंगता ही जाता है. अब मैं नींद से बाहर निकलकर हथेली पर नजऱ डालती हूं. कुछ भी नहीं है वहां. आस पास देखती हूं. वहां भी कुछ नहीं. रेंगना अब बंद हो चुका है. जब कुछ है ही नहीं तो दिखेगा कैसे. मैं भी ना....बस. वापस नींद की चादर ओढ़ती हूं. नींद थोड़ी सा ना-नुकुर के बाद करीब आ ही जाती है. लेकिन फिर वही रेंगना शुरू. मैं किसी सधे हुए खिलाड़ी की तरह झट से से मुट्ठी बंद करती हूं...लेकिन उंगलियां सख्त और ठंडी हैं. बर्फ की तरह. उठकर बैठ जाती हूं, बायें हाथ से अपने दाहिने हाथ को टटोलती हूं. सब ठीक तो है. एक एक उंगली को मोड़ती हूं. वो मुड़ जाती हैं. मुड़ेंगी कैसी नहीं...मैं हंस देती हूं.
मैं दाहिने हाथ की हथेली पर बायां हाथ रखती हूं. उंगलियों से अपना नाम लिखती हूं. दाहिने हाथ की हथेली को चूमती हूं. नींद की पनाहगाह में लौट जाती हूं. थोड़ी ही देर में फिर से हथेली पर कुछ रेंगने लगता है. इस सोने जागने के बीच रात अपना आंचल समेट लेती है. सुबह की पहली किरन में मैं अपना दाहिना हाथ अपने सामने खोले बैठी हूं. रात भर इस हाथ की लकीरों ने कोई खेल खेला है. कोई भी लकीर अपनी पुरानी जगह पर नहीं है...मैं मुस्कुराती हूं.
सुबह की ठंडी हवा में आलस की खुशबू भर जाती है. मैं नींद के आंचल में दुबक जाती हूं. अब कहीं कोई हलचल नहीं...
कितना सुखद सा अहसास है ना ………लकीरो ने खेला और हमने महसूस किया और उसे आपने बहुत ही सुन्दरता से पेश किया………वाह!!
ReplyDeleteकाश..हम सबके साथ ऐसा ही हो जाता..रात में सोते..सवेरा होता..तो देखते की हाथ की रेखाएं ,अपना खेल ..खेलती रहीं..सब बदलती रहीं .कोमलता से भरपूर ,रोचकता से परिपूर्ण ..!!बधाई .
ReplyDeleteये जानना सुखद है कि हाथ की रेखाओं ने क्रान्ति कर दी है .
ReplyDeleteबदलाव सुखद और स्वागत योग्य.
खुश रहो.
बहुत प्यार और दुलार सहित.
- बाबू
oh.... kuch reng gaya meri hatheliyon per
ReplyDeleteअब कहीं कोई हलचल नहीं...
ReplyDeleteएक गहरी साँस और स्वप्नों पर सहमति।
ReplyDeleteपाठकराम पढ़ते हुए थोड़ा विचलित हुआ लेकिन विचलन के दौरान उसे अपनी हथेली का ख्याल आया। फिर हाथ की लकीरों का..सचमुच अलग-अलग कोणों पर सोचने के लिए काफी है यह मन-आलाप।
ReplyDeleteपहले मुझे लगा.. it is one of those!!!! लेकिन अंत तक आते-आते एक मुस्कराहट होठों पर आ गई... अच्छा लिखा है, बात कहने का तरीका बेहतरीन है... दुआ है, हर सुबह नई हो, हर सुबह हाथों पर खुशी की नई लकीरें खिंची हों...
ReplyDelete@ Ajay ji- thanks! :)
ReplyDeleteरात भर इस हाथ की लकीरों ने कोई खेल खेला है. कोई भी लकीर अपनी पुरानी जगह पर नहीं है...मैं मुस्कुराती हूं.
ReplyDeleteजादू सा उतरता है आपकी कलम से ...सच कहा आपने एक ही रात में सारे खेल दिखा गयीं ये हाथ की लकीरे और सुबह होने तक कोई भी अपनी जगह पर नहीं थी.