ऑफिस पहुंचने पर हमें एक मशीन पर अपनी उंगली रखनी होती है. किर्रर्रर्र सी आवाज आती है और उंगली रखने वाले का नाम मशीन पर उभरता है. समय भी. इस तरह हम अखबार के कारखाने में अपनी आमद दर्ज करते हैं. कभी-कभी मशीन उंगली को पहचानने से इनकार कर देती है. लिखकर आता है इनवैलेड फिंगर. जब भी ऐसा होता है, अनायास मेरे चेहरे पर मुस्कान बिखर जाती है. अब मैं दूसरी उंगली कहां से लाऊं...मेरे पास तो यही है. अपनी ही उंगली को देखती हूं कहीं किसी से बदल तो नहीं गई. चेहरा टटोलती हूं, अपना नाम पुकारती हूं. सब कुछ तो है ठिकाने पर. फिर मशीन से मनुहार करती हूं, मान लो ना प्लीज. ये मेरी ही उंगली है. रोज वाली. सच्ची. मशीन मुस्कुराती है. नहीं मानती. मैं फिर मनाती हूं. मानो किसी अदालत में जज को कनविंस कर रही होऊं कि जज साहब मैं ही हूं प्रतिभा...सौ फीसद. हालांकि मेरे अपने होने के सारे प्रमाणपत्र कहीं खो गये हैं. फिर भी हूं तो मैं ही ना? मशीन काफी ना-नुकुर के बाद रहम करते हुए, इतराते हुए 'हां' कह देती है और मेरा नाम कारखाने के रजिस्टर में दर्ज हो जाता है...ये खेल मुझे बहुत पसंद है.
सोचती हूं कभी यूं भी हो सकता है कि आइने के सामने खड़ी हूं और आईना पहचानने से इनकार कर दे. उसमें कोई अक्स ही न उभरे या ऐसा अक्स उभरे जिसे मैं जानती ही न होऊं. रास्तों के साथ तो ऐसा अक्सर ऐसा होता है. जिन रास्तों से रोज गुजरती हूं, किसी दिन वही रास्ते छिटककर मुझसे दूर हो जाते हैं . मैं उन्हें हैरत से, कभी हसरत से देखती हूं. इसी तरह कई बार ऑफिस के पीसी का पासवर्ड नखरे करता है. बार-बार मनुहार करवाता है और फिर एहसान जताते हुए धीरे से मान लेता है.
अपना ही नंबर डायल करती हूं कभी तो आवाज आती है दिस नंबर डज नॉट एक्जिस्ट. या कई बार इंगेज की टोन मिलती है. कई बार ट्राई करने के बाद अचानक मिल जाता है. हालांकि इनवैलेड वाली ध्वनियां काफी जगह से मिलती रहती हैं. न जाने कितने लोग, कितने कामों को, कितनी बातों को, कितनी ख्वाहिशों को, अरमानों को इनवैलेड करार देते हैं. कोई किर्रर्रर्रर्र की आवाज भी नहीं आती. वे फिर बार-बार कोशिश करने से भी नहीं मानते.
दिल के किसी कोने से आवाज आती है कि कभी यूं भी तो होगा कि सांसें इस देह की गली का रास्ता भूल जायेंगी या उसे पहचानने से इनकार कर देंगी. अचानक...एरर आ जायेगा और शरीर सांसों से कहेगा दिस इज एन इनवैलेड एरिया टू एक्सेस ब्रेथ...
marvelous..
ReplyDeletenice one..
badoya..
not words to feel expression..
wah!wah!
ReplyDeleteऐसा भी होता है क्या...? होता हो या न होता हो लेकिन आपका लिखा हमेशा दिल को छू जाता है प्रतिभा जी...आइना मुझसे मेरी पहले सी सूरत मांगे...
ReplyDeleteजब अपने न होने का प्रश्न उठता है तो विचार झंकृत हो जाते हैं।
ReplyDeleteऐसे भी सोचा जाता है...
ReplyDelete"दिस इज एन इनवैलेड एरिया टू एक्सेस ब्रेथ...nice one...soch achi lagi:)
ReplyDeleteNice observation !
ReplyDeleteकभी यूं भी तो होगा कि सांसें इस देह की गली का रास्ता भूल जायेंगी या उसे पहचानने से इनकार कर देंगी. अचानक...एरर आ जायेगा और शरीर सांसों से कहेगा दिस इज एन इनवैलेड एरिया टू एक्सेस ब्रेथ... कोई नज़्म है गोया
ReplyDeleteदिस इज एन इनवैलेड एरिया टू एक्सेस ब्रेथ...
ReplyDeleteलेकिन किस्सा यहां खत्म नहीं हो जाएगा... आप फिर मनाने का प्रयास करेंगी। शरीर फिर मना करेगा... आप फिर मनाएंगी.. आखिर शरीर इतराता हुआ मान जाएगा। आखिर उसका भी अपना ईगो है... :)
ये बात मुझे अन्दर तक छू गयी.. आराम से पढ़ना चाहूंगी आपको .
ReplyDeleteपरतिभा जी
ReplyDeleteआदाब तसलीमात
इन्टरनेट भी किया अजीब चीज़ है. एक लम्हे में इंसान को कहाँ से कहाँ पोहंचा देता है. आप की तहरीर पढ़ी और मन में जैसी कुभ सी गई. बोहत हसास और लतीफ़ जज्बात को आप ने ख़ूबसूरती से अल्फाज़ की शकल में ढला है. कुछ अपनी बरी में बता दूं . मेरा नाम मालिक बिलाल है और आप के परोसी मुल्क पाकिस्तान से हूँ. हिंदी जुबान का एक लफ्ज़ भी नहीं आता मुझी. न लिखना न ही पढ़ना. अब आप सोच रही हों गी के फर आप को में ने केसी पढ़ा और कमेंट्स केसी दिए? तो इस के लिए में शुकर गुज़र हूँ जनाब गूगल का. एक ग़ज़ल ढून्ढ रहा था. कहीं से नहीं मिली उर्दू और इंग्लिश में टाइप कर बोहत तलाश की अचानक ज़ेहन में आया क गूगल से तर्जुमा करवा के हिंदी में तलाश करून. खैर वो ग़ज़ल तो नहीं मिली लेकिन गूगल मुझी आप की देरी तक ले आया. और आप के मज़मून को उर्दू में तर्जुमा कर क मेरी संन्य रख दिया. पढ़ना शरू किया तो पढ़ता ही चला गिया. ज्जितनी भी तारीफ की जय कम है. बोहत अल. उम्दा, कमल, अफरीन. इस से ज़ादा और किया कहूं?
अल्लाह कार्य जोर इ कलम और ज़ादा
खुश रहें , बोहत जियें .
ये भी में ने गूगल की मदद से लिखा है. मुझी नहीं पता क इस में ग़लती है या ठीक से लिखा गिया. अगर कुछ ग़लती हुई तो मुआफ फार्म दीजिये गा.
anwerbilal@yahoo.com
shaid dobara aap ka page na dhoond paoon. is internet k samunder me se lekin aap ki likhi hui baten hamesha yado me basi rahen gi
ReplyDeletesalam