मेरा जीवन बहुत बुरी तरह चल रहा है. मैं लोगों से घिरी हूं. बहुत सारे लोगों से. कुछ भी लिख पाने में असमर्थ हूं. एक बूंद एकांत को तरस रही हूं. कितना मुश्किल है यह. बहुत बुरा लग रहा है. अजीब-अजीब से ख्याल आ रहे हैं. एक मामूली से व्यंग्य लिखने वाले को या स्तंभकार को भी (जो संभवत: अपने लिखे को दोबारा पढ़ता तक नहीं के पास भी) लिख पाने का समय और सहूलियतें हैं. और मेरे पास यह एकदम नहीं. दो मिनट तक की खामोशी भी नहीं. हर समय लोगों से घिरी हुई हूं.
जीवन जैसा है, वह मुझे पसंद नहीं. मेरे लिए वह कुछ अर्थ रखना तभी शुरू करता है, जब वह कला या साहित्य में रूपान्तरित होता है. इसके बिना जीवन का कोई महत्व नहीं. अगर मुझे कोई सागर के किनारे ले जाये, या फिर स्वर्ग में ही क्यों न ले जाए और लिखने की मनाही कर दे तो मैं दोनों को अस्वीकार कर दूंगी. मेरे लिए इन चीजों का कोई महत्व नहीं है.
बहुत सारे लोग हैं, चेहरे हैं, मुलाकातें हैं. लेकिन सभी सतही. कोई भी व्यक्ति प्रभाव नहीं छोड़ता. सब चेहरे एक-दूसरे से टकराते हैं. शोर-शराबे के बीच, लोगों की भीड़ के बीच एकदम अकेली हूं. जीना एकदम अच्छा नहीं लग रहा है.
- मारीना त्स्वेतायेवा
(30 नवंबर 1925 को पेरिस से अन्ना अन्तोनोव्ना को लिखे पत्र से)
ऐसा लगा जैसे मेरे अन्दर की पीड़ा को मरीना त्स्वेतायेवा जी ने बहुत पहले लिख दिया
ReplyDeleteठीक कहा अनिलकान्त जी. मरीना को पढ़ते हुए मुझे भी हमेशा यही लगता है कि ये वो नहीं मैं ही लिख रही हूं.
ReplyDeleteएक लेखक की दुनिया में कितनी घुसपैठ है !!!!
ReplyDeleteFeeling sad!
ReplyDeleteये दर्द एक लेखक समझ सकता है ...सारे विचार जुगनू की तरह चमक दिखा कर लुप्त हो जाते है
ReplyDeletekora sach likhne ka dam bharne walo ke liye.jab tak aisi aag na ho to sab vyarth hai.
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