Sunday, December 5, 2010

एक रोज

एक रोज
मैं पढ़ रही होऊंगी
कोई कविता
ठीक उसी वक्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम.
एक रोज
मैं लिख रही होऊंगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बांधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छांव में.
एक रोज
जब कोई आंसू आंखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम.
एक रोज
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ायेंगे कदम
तो सिर्फ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम.
एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का.
एक रोज
जब मैं बंद कर रही होऊंगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे जिंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पायेंगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज....

12 comments:

  1. हम समझ नहीं पायेंगे फिर भी
    दुनिया शायद इसे
    प्यार का नाम देगी एक रोज
    क्या बात है शब्दों में भावनाएं बह रही हैं निश्छल प्रेम की अनुभूति करती कविता
    बधाई

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  2. वाह.. बहुत सुंदर !

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  3. मधुर व कोमल अभिव्यक्ति।

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  4. उस एक रोज का इंतजार है।

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  5. First time I read you n really love the way that you flow the emotions.

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  6. जूड़े में शब्‍द का सजाना
    आंसू का मोती बनना
    अंतिम समय पलकों के
    बंद होते समय
    जिंदगी के सारे रास्‍ते खुलना
    कविता को कहीं से काल्‍पनिक
    और यथार्थ के रिश्‍तों को
    ताने बाने का समन्‍वय
    नजर आता है
    कविता की यह
    अन्‍यतम धारा है।
    अविनाश मूर्ख है

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  7. बहुत ही सुन्दर

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