Thursday, December 2, 2010

मम्ताज भाई पतंगवाले...

किसी भी नाटक को देखना असल में कई स्तरों पर खुद को देखना भी होता है. कितनी लेयर्स पर कोई व्यक्तित्व खुलता है, समाज खुलता है और बात पूरी होती है. एक बात को कहने के कितने ढंग हो सकते हैं यह देखने का आनंद थियेटर में मिलता है. कथानक, अभिनय, मंचसज्जा, संगीत, नाटक में किये गये अभिनव प्रयोग और दर्शकों से लगातार संवाद बनाये रखना (कि दर्शक पल भर को भी नाटक की लय से छिटककर दूर न हो जायें) ही किसी नाटक की संपूर्ण सफलता का कारण बनते हैं. पिछले दिनों मानव कौल का नाटक मम्ताज भाई पतंगवाले को देखते हुए एक प्रयोगधर्मी, संवेदनशील नाटक देखने का सुख तो मिला ही, साथ ही विश्वास भी पक्का हुआ कि नये लोग सचमुच नया मुहावरा गढ़ रहे हैं. बनी-बनाई लकीरों से अलग लकीरें खींचने, नई पगडंडियों पर चलने के अपने जोखिम भी होते हैं और सुख भी. मानव इन जोखिमों से खेलने में यकीन करते हैं. अच्छी बात यह है कि ज्यादातर मौकों पर वे सफल होते हैं.
मम्ताज भाई दमित इच्छाओं, आकांक्षाओं के बीच से पनपे व्यक्तित्व की कथा है, जो सक्सेस के हाईवे पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाते हुए भी गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को हर पल याद करता है. मम्ताज भाई और उनकी पतंग व्यक्ति की असीम आकांक्षाओं के प्रतीक हैं जो पूरे आसमान पर उडऩा चाहती हैं. जिन्हें हमेशा पहले से तय पगडंडियों पर चलने के दबाव के चलते नोचकर फेंक दिया जाता है. मानसिक हलचल, अंतद्र्वद्व, स्वगत कथनों को मंच पर जिस खूबी से मानव ने दिखाया वह कमाल है. मंचसज्जा, पग ध्वनि, लाइट एंड साउंड के खूबसूरत उपयोग से यह नाटक जीवंत हो उठा. पोलिश थियेटर के इफेक्ट्स ने नाटक को ताजगी दी.
चुटीले संवादों ने गंभीर विषय को रोचक बना दिया. लगभग हर दूसरे दृश्य पर तालियों की गडग़ड़ाहट या हंसी की फुहार ने कलाकारों की हौसला अफजाई जारी रखी. सभी कलाकारों ने शानदार अभिनय किया. सबसे सुंदर बात रही नाटक का चुस्त संपादन. एक बार फिर मानव का जादू चल ही गया.

7 comments:

  1. देखने की इच्छा हमारी भी है।

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  2. जब आप प्रोफेशनल होने को अपने कोकून से लड़ रहे होते हैं उस काल की रचनानाएं सबसे अधिक संभावनाओं से भरी होती है. मानव कौल की कुछ तरही रचनाएँ मैंने पढ़ी है. इनमे मम्ताज भाई पतंगवाले भी शामिल है. कहानी के तीन हिस्से है. इसको जड़, तना और शाखें की तरह विभाजन किया जा सकता है. कहानी में तीन अलग लोक है एक मुख्य पात्र के भीतर का और बाकी दो आज और बीते हुए कल के हैं.

    कथा का आगाज़ बड़ा ही ज़मीनी है और इसमें उत्तरोतर स्थायी भाव आता है किन्तु बालक के मनोविकास की स्थितियां आश्चर्यजनक रूप से अविश्वसीन है. कथा एक बालक के सुपरमैन की चाह को बहुत सुन्दरता से उकेरती है. इतनी बेहतरीन बुनावट से कथा का ये भाग जीवन का भोगा हुआ यथार्थ लगता है.

    फ्लेश बैक की कथा के फ्लेश बैक में लौटते हुए मैं सोचने लगता हूँ कि एक बहाने से सीट हथियाने की चतुराई वाला व्यक्ति किन हालातों में ये हुनर सीखा है. आधी रात को दुकान को आग के हवाले कर देने जैसा दुस्साहस और पतंगों के सहारे जीवनयापन करने वाले व्यक्ति का रोजी रोटी को मोहताज हो जाना, इस कथा में बम्प्स की तरह है लेकिन मैं मानव कौल से अपेक्षा रखता हूँ कि इस नाटककार ने कहानी की कमजोरियों को नाटक में प्रवेश नहीं करने दिया होगा.

    आपने इस नाटक के बारे में लिखा तो मुझे अच्छा लगा. फेसबुक पर भी पंकज ने खुद के लिए अफ़सोस जाहिर किया था कि वह इसे देखने से चूक गए हैं तब भी मेरे दिल में था कि मैं अगर मुम्बई में होता तो अपने सारे काम स्थगित करके इसे देखने की कोई जुगत जरुर लगता. आपका आभार, इस पोस्ट के बहाने एक अच्छी कहानी की याद आई.

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  3. बहुत अच्छा होग यदि लखनऊ महोत्सव के नाटकों पर भी कलम चला दीजिये !!!

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  4. कहां मिलेंगे ये मम्ताज भाई पतंगवाले? देखने में न सही, स्क्रिप्ट/कथा में?

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  5. @ज्ञान जी:
    आप इस लिंक पर इस कहानी को पढ सकते हैं.. लेकिन इस नाटक को देखने का अपना ही मजा है.. काफ़ी खूबसूरत बिंबो का प्रयोग किया गया है..

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  6. @ gyan dutt jee यहां मिलेंगे

    http://aranyamanav.blogspot.com/2010/05/blog-post_18.html

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