Monday, May 24, 2010

जिंदगी दो पल की...

फिल्म समीक्षा लिखना मेरा काम नहीं लेकिन पढ़ती जरूर हूं. पढऩे के बाद अक्सर इस नतीजे पर पहुंचती हूं कि अगर रिव्यू फिल्म को हिट बता रहे हैं तो फिल्म मेरे देखने लायक नहीं है जैसे-माई नेम इज खान, बदमाश कंपनी, हाउसफुल वगैरह. सिर्फ कुछ हालिया फिल्मों के नाम लिये हैं जानबूझकर. लेकिन जिन फिल्मों को रिव्यू पिटा हुआ बता दें उन्हें देखने जाया जा सकता है. ऐसा करना मैंने प्रयोग के तौर पर शुरू किया था जो अब तक लगभग सफल ही जा रहा है. मैं फिल्म क्रिटिक्स पर सवाल नहीं उठा रही हूं सिर्फ अपनी पसंद की बात कर रही हूं. यही प्रयोग फिर एक बार सफल हुआ.
इस बार फिल्म थी काइट्स. लगभग सारे रिव्यू गला फाड़कर कह रहे थे कि फिल्म स्लो है, बोर है, कुछ नया नहीं है. सिर्फ डेढ़ या दो स्टार पा सकने वाली यह मूवी मुझे तो अच्छी लगी. और मैं रितिक रोशन की फैन भी नहीं हूं. अनुराग बासु ने इस लव स्टोरी को बहुत प्यार से बनाया है. कसा हुआ निर्देशन, चुस्त एडिटिंग, कमाल की सिनेमेटोग्राफी बांधे रखती है. रितिक और बारबरा की कैमेस्ट्री हो या कंगना और कबीर बेदी की प्रेजेंस सब कुछ परफेक्ट. फिल्म की लोकेशन कमाल की हैं. समुद्र के भीतर दर्शाये गये दृश्यों का तो जवाब ही नहीं. शायद ही कोई फिल्म हो जिसमें आई लव यू का इस्तेमाल न हो. लेकिन इस फिल्म में इन शब्दों का इस्तेमाल हर बार फिल्म में जान डाल देता है. बारबरा को न हिंदी आती है न अंग्रेजी. वो सिर्फ स्पेनिश बोलती है और समझती है. रितिक को स्पेनिश नहीं आती. (हालांकि दोनों एक-दूसरे की भाषाओं को पकडऩे की कोशिश करते हैं.) भाषाओं के पार दोनों किस तरह एक-दूसरे से कम्युनिकेट करते हैं यह देखने लायक है. फिल्म एक दूजे के लिए की याद ताजा हो जाती है.
ये लव स्टोरी, फूलों, पहाड़ों और झरनों के इर्द-गिर्द नहीं घूमती बल्कि गोले-बारूद, और जान बचाने की जद्दोजेहद के बीच जन्म लेती है और परवान चढ़ती है. एक-एक सांस के लिए तरस रहे घायल प्रेमी से जब उसकी प्रेमिका आंखों में सारी भावनाएं भरकर कहती है आई लव यू तब ये शब्द किसी मरहम से कम नहीं लगते. हां, फिल्म में बेहतर संगीत की गुंजाइश जरूर छूट गयी सी लगी. जिंदगी दो पल की...यही गाना गुनगुनाने को है.

8 comments:

  1. aapne film dekhane ko lekar meri shanka nivaran kar diya .. bas aaj hi ..

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  2. आपने संस्तुती दी है तो हम इस फिल्म को देखेंगे।

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  3. पसंद अपनी अपनी होती है और अपनी पसंद दूसरोँ पर लादना बौद्दिक तानाशाही ही है।कृत के मूल्यांकन हेतु यद्यपि पूर्व निर्धारित मानदंड होते हैँ फिर भी आलोचक अक्सर उनका अतिक्रमण कर कृति मेँ अपनी व्यक्तिगत कामना-वांछना की तलाश करते हैँ।मनवांछि की अनुपस्थिति मेँ खीजते हैँ।फिर स्वच्छ आलोचना कहां?
    आपने अच्छा लिखा है

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  4. जल्दी ही देखते हैं

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  5. फिल्म समीक्षा लेखन पर भी व्यावसायिकता हावी हो गयी है,किस अख़बार या पत्रिका के व्यावसायिक हित किससे जुडें हैं,यह कहना तो मुश्किल है.शायद इसलिए ही समीक्षा लेखन भी पक्षपात विहीन नहीं रहा.
    अगर विभिन्न अख़बारों में प्रकाशित 'काईट्स' की समीक्षा की बात करें तो सिर्फ दैनिक जागरण में अजय ब्रहात्मज ने ही फिल्म को तीन स्टार रेटिंग दिया,बाकी अमर उजाला,हिंदुस्तान और नव भारत टाईम्स ने इसे एक स्लो और व्यर्थ कहानी वाली फिल्म करार दिया.

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  6. अनुराग बासु ने इस लव स्टोरी को बहुत प्यार से बनाया है.

    बहुत बोला पर बंदे ने मीडिया मैनेजमैंट नहीं पढा, कहता है, जो खरा है वही सोना है. धन्‍यवाद प्रतिभा जी.

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