मेरी आंखें निकाल दो
फिर भी मैं तुम्हें देख लूंगा
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुंचेगी
पगहीन मैं तुम तक पहुंचकर रहूंगा
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुंचा दूंगा
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो-
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूंदों पर मैं तुम्हें वहन करूंगा।
(अनुवाद- धर्मवीर भारती )
"बहुत ही कठोर है कविता........."
ReplyDeletenishtha ka arth hi yahi hai.
ReplyDeleteसुन्दर कविता का धर्मवीर भारती जी का अनुवाद पढ़वाने के लिए धन्यवाद!
ReplyDeleteघोर प्रेम की कविता ....विकटता लिए हुये .
ReplyDeleteयह कविता बहुत कुछ कहती है। धन्यवाद की इतनी सुंदर रचना आपने पढ़वाई।
ReplyDeleteघोर निष्ठा!!
ReplyDeleteye kavita hum pahunchane ke liye shukriya...behad sakht hai ye rachna
ReplyDeleteavavharik parantu sunader....badhai
ReplyDeleteतोड़ दो मरे हाथ,
ReplyDeleteपर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
...
अंततः मैं तुम तक पहुँच ही जाऊंगा .