Wednesday, March 3, 2010

बेवजह का लिखना


यूं मैं बिना मन के कभी नहीं लिखती. नौकरी की जरूरतों के अलावा. अब तक इक्का-दुक्का मौकों पर ही ऐसा बेमन का लिखा है जैसा आज लिखने बैठी हूं. कुछ-कुछ पीछा छुड़ाने की गरज से. क्योंकि बचपन में किसी से सुन लिया था कि जो चीज ज्यादा परेशान करे उसे कागज की पुर्ची पर लिखकर तकिया के नीचे रखकर सो जाओ. सुबह उठकर उसे चिंदी-चिंदी कर के फेंक दो. यह तरकीब कई बार बड़ी काम आई. किसी को पता नहीं लेकिन कई बार पर्चियों में न जाने क्या-क्या लिखकर बहा दिया, जला दिया और मन को दुविधाओं से कुछ राहत मिली.

बहरहाल, आज लिखने का मन न होने का कारण जरा खास है. हालांकि नया नहीं. होली मनाने के लिए गांव जाना होता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा गांव, जिसकी अपने नाम से कोई खास पहचान नहीं. अक्सर जाना होता है वहां और ज्यादातर मन उदास होता ही है. कोई न कोई कड़वा कारण मौजूद होता है दिल दुखाने के लिए. इस बार करीब साल भर बाद जाना हुआ. एक नजर में गांव में काफी बदलाव हो गए थे. कई घरों में गाडिय़ां आ चुकी हैं. सड़कों की स्थिति भी थोड़ी सुधरी हुई मिली. हर किसी के पास एक नहीं दो-दो मोबाइल. छप्परों तक पर डिश एंटीना लटका न$जर आया. जाहिर है टीवी और सनीमा के जादू का असर साफ था. मुंबईया सपनों ने गांवों में सिर्फ दस्तक नहीं दी है, उन्होंने वहां कब्जा करना भी शुरू कर दिया है. लेकिन अफसोस सिर्फ सपने ही यहां पहुंच सके हैं. समझदारी नहीं. ये कहने का यह अर्थ नहीं कि गांवों के लोगों में समझदारी नहीं होती लेकिन समय के हिसाब से आये बदलाव जेहन पर भी तो दिखने चाहिए. इसकी न किसी को जरूरत है और न ही कोई उन्हें इस बात का इल्म कराने की जुर्रत कर सकता है. पूरे गांव में शायद ही कोई लड़की हाईस्कूल से ज्यादा पढ़ पाती हो. हालात ऐसे कि लड़कियां खुद पढऩा नहीं चाहतीं. कहीं कोई आनन्दी नहीं, कोई टीचर जी नहीं. सीरियल में दिखाये जाने वाले अम्मा जी और दादी सा के जुल्म या उनकी पैंतरेबाजियां देखने में सबको आनन्द आता है.

बेटों की चाह में सास, बहू, बेटी एक साथ गर्भवती हो रही हैं. एक के बाद एक बेटियों की कतार है. बस एक बेटे की चाह में. जो ज्यादा मॉडर्न हुआ तो अल्ट्रासाउंड देवता की जय हो गई और बेटी का गर्भ में ही राम नाम सत्य. फिर बेटे की आस. ऊपर से आदर्श टाइप दिखने वाले एक बेटे एक बेटी वाले परिवार की नींव में न जाने कितने कन्या भ्रूण दफन पड़े हैं. गांव के पढ़े-लिखे लड़के जाहिर है गांव से दूर जाकर रह रहे हैं. कभी-कभार आकर, इन लोगों से पंगा लेकर कोई अपनी छुट्टियां खराब नहीं करना चाहता. औरतों की मर्जी का तो ये हाल है कि वे अपनी ही मर्जी से अपने पति को दूसरी शादी करने को राजी हैं क्योंकि वे बेटा नहीं पैदा कर पा रही हैं. अपनी ही मर्जी से आठ-दस बच्चियों तक कोशिश करती रहती हैं कि शायद खानदान का वारिस मिल जाये. अब नहीं मिल रहा तो पति का क्या दोष सो उन्हें दूसरी शादी का पूरा हक है. ऐसा औरतें अपनी मर्जी से कहती हैं. ध्यान रहे उनकी अपनी मर्जी. स्त्री-पुरुष, बुजुर्ग जवान सब मिलकर जाहिलियत के कुएं खोदने में लगे हैं जिसमें स्त्रियां अपनी मर्जी से खुद कूद रही हैं.

अचानक सब बेवजह लगने लगता है. लिखना-पढऩा, कहना-सुनना कुछ भी तो सार्थक नहीं. हम चंद अल्फाजों में खुद को उलझाकर कैसे संतुष्ट हो सकते हैं. अखबार, पत्रिकाएं, चैनल, फिल्में कुछ भी जाहिलियत के इस ताने-बाने को नहीं तोड़ पा रहा. कुछ भी नहीं. किसी अखबार का कोई लेख, लेखों का संकलन, कहानी, कविता, उपन्यास सब कुछ खारिज हो जाता है इन जमीनों पर जाकर. एक बूंद भी नहीं बचता. कोई पलटना भी नहीं चाहता ऐसे कागज.
ये इक्कीसवीं सदी है. हम महिलाओं की आजादी की बात करते हैं. मुझे नहीं लगता कि ये सिर्फ किसी एक गांव की बात है...लेकिन फिलहाल मन बहुत उदास है. कितने मुगालतों में जी रहे हैं हम.
सब बेवजह...
जारी...

8 comments:

  1. वाकई हम मुगालतों में ही जी रहे है . शायद बदलाव आने में कुछ समय लगेगा . ये पुर्ची न फाड़ने के लिए धन्यवाद प्रतिभा जी .
    शिखा शुक्ला
    http://baatbatasha.blogspot.com

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  2. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  3. बिल्‍कुल सही चित्रण किया है आपने । जिस इलाके का चिक्र आपने किया है सच में वहां ऐसा ही है।
    ये भी सही है कि वहां सब समझदार होते हुए ना समझ हैं और उनको समझदारी का द्वार दिखाने वाला कोई महापुरूष या कोई महिला इस और उत्‍सुक नहीं है। सब कुछ यूं ही चला आ रहा है। उनको तो ये भी पता नहीं होता कि किस कार्य को कुरीति कहा जाता है।

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  4. बेटों की चाह में सास, बहू, बेटी एक साथ गर्भवती हो रही हैं.....ध्यान रहे उनकी अपनी मर्जी. स्त्री-पुरुष, बुजुर्ग जवान सब मिलकर जाहिलियत के कुएं खोदने में लगे हैं जिसमें स्त्रियां अपनी मर्जी से खुद कूद रही हैं.....ये इक्कीसवीं सदी है. हम महिलाओं की आजादी की बात करते हैं.
    सच्चा सन्देश जिसकी आज सख्त जरुरत है - फिर भी आँखें ना खुलें तो कोई क्या करे - अति-प्रशंसनीय आलेख/प्रयास.

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  5. "अफसोस सिर्फ सपने ही यहां पहुंच सके हैं. समझदारी नहीं..."
    इस एक पंक्ति को ही सूत्र समझ लिया जा सकता है !
    यह हालत कमोबेश हर गाँव की है ।
    प्रशंसनीय आलेख ! आभार ।

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  6. बंदिशों को तोड़ फेंकने का हौसला दिल में दबाए लिखती जा रही हैं, बढिय़ा लिखती जा रही हैं. आपकी टीस ईमानदार है और एक दिन बदलाव जरूर होगा. वो सुबह जरूर आएगी. पर प्रतिभाजी एक सवाल हमेशा दिमाग में खड़ा रहता है. हो सकता है मैं गलत होऊं, पर हमेशा मुझे ऐसा क्यों लगता है कि महिलाएं ही महिलाओं की दुश्मन हैं?

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  7. Kya aapko nahi lagta ki pade likhe samaj ki esthiti bhi esse jada nahi hai.

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  8. bahut shandaar lekha hai pratibha ji.

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