Friday, December 18, 2009

इक बार कहो तुम मेरी हो

हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो ।
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो ।
क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
- इब्ने इंशा

13 comments:

  1. यह कवि‍ता सबसे बांटने के लि‍ये लि‍ए धन्‍यवाद।

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  2. सुंदर रचना के प्रस्तुतिकरण के लिये बधाई

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  3. yeh kavita padhane ke liye dhanyabad

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  4. आनंद आ गया पढ़कर
    शुक्रिया

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  5. Please send me your mail ID. My ID is - manishafm@gmail.com.

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  6. तुम एक मुझे बहुतेरी हो
    इक बार कहो तुम मेरी हो।
    वाह जी बहुत बहुत बधाई सुन्दर रचना है।

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  7. वाह!
    साथ ही फ़ैज़ और नायरा नूर bhi याद आयीं
    "तुम मेरे पास रहो
    मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो"

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  8. बहुत सुंदर ! हम तक पहुँचाने का शुक्रिया

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  9. कुछ सूखी कुछ गीली हंसी का असर अभी तक है, उस रचना के नीचे किसी का नाम भी नहीं था यानि आपने ही लिखी होगी इसी सोच के ष ड ज में उलझा हुआ रहा हूँ इन दिनों. इब्ने साहब के ये शब्द उस असर को धोने में नाकाफी हैं अभी तक.

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  10. बहुत सुंदर ! हम तक पहुँचाने का शुक्रिया

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