हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो ।
हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो ।
क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।
- इब्ने इंशा
यह कविता सबसे बांटने के लिये लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteसुंदर रचना के प्रस्तुतिकरण के लिये बधाई
ReplyDeleteyeh kavita padhane ke liye dhanyabad
ReplyDeleteबढ़िया फ्लो
ReplyDeleteअद्भुत...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भाव।
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जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
कोमा में पडी़ बलात्कार पीडिता को चाहिए मृत्यु का अधिकार।
आनंद आ गया पढ़कर
ReplyDeleteशुक्रिया
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ReplyDeleteतुम एक मुझे बहुतेरी हो
ReplyDeleteइक बार कहो तुम मेरी हो।
वाह जी बहुत बहुत बधाई सुन्दर रचना है।
वाह!
ReplyDeleteसाथ ही फ़ैज़ और नायरा नूर bhi याद आयीं
"तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो"
बहुत सुंदर ! हम तक पहुँचाने का शुक्रिया
ReplyDeleteकुछ सूखी कुछ गीली हंसी का असर अभी तक है, उस रचना के नीचे किसी का नाम भी नहीं था यानि आपने ही लिखी होगी इसी सोच के ष ड ज में उलझा हुआ रहा हूँ इन दिनों. इब्ने साहब के ये शब्द उस असर को धोने में नाकाफी हैं अभी तक.
ReplyDeleteबहुत सुंदर ! हम तक पहुँचाने का शुक्रिया
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