Saturday, November 21, 2009

चुप का पहाड़

पार किए
विन्ध्य से लेकर हिमालय तक
न जाने कितने पहाड़,
पार की गंगा से वोल्गा
और टेम्स तक
न जाने कितनी नदियां.
बड़ी आसानी से
पार हो गए सारे बीहड़ जंगल,
मिले न जाने कितने मरुस्थल भी
राह में
लेकिन कर लिए पार वे भी
प्यार से...
बस एक चुप ही
नहीं हो पा रही है पार...

9 comments:

  1. बस एक चुप ही
    नहीं हो रही है पार...

    बड़ी अच्छी बात कही ..प्रतिभा

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  2. बिल्कुल सही लिखा है-
    एक चुप सौ को हराये!

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  3. बस एक चुप ही
    नहीं हो रही है पार...

    सुन्दर भावप्रद रचना!

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  4. बस एक चुप ही नहीं हो पा रही है पार...'
    बहुत सम्वेदनशील और सूक्ष्म कविता
    एहसास की सुन्दर कविता

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  5. लेकिन मैं चुप नहीं हूं...!

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  6. kya aapne Kashinath Singhji ka koi interview liya hai? Ya koi kam un par? Main ek patrika ka ank un par prakashit kar raha hoon. Madad chahiye.
    pallavkidak@gmail.com
    09414732258

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