हिन्दुस्तान के नक्शे में भले ही नदारद हो मगर मालगुड़ी और उसके बाशिंदों से दुनिया भर के लोग वाकिफ़़ हैैं। मालगुड़ी के लोगों की जि़न्दगी की बेशुमार कहानियां उन्हें याद भी हैैं। मालगुड़ी का स्टेशन, वहां के बाज़ार, स्कूल, सैलून, डाकख़ाना, हलवाई, नानबाई, मोची, मोटर मैकेनिक, टीचर, पेंटर, बुक सेलर और ऐसे ही तमाम पात्र पढऩे वालों के ज़ेहन में इस क़दर पैवस्त हैैं कि वक़्त की गर्द में भी उनकी याद कभी धुंधलाई नहीं। दूरदर्शन के ज़माने वाली पीढ़ी की स्मृति में ये ही पात्र 'ताना न ताना नाना न...Ó की धुन के साथ और जुड़ गए।
दूरदर्शन के लिए बनाए गए शंकर नाग के सीरियल 'मालगुड़ी डेज़Ó का यह कास्ंिटग म्यूजि़क आज भी मालगुड़ी के मुरीदों के मोबाइल फोन पर रिंग टोन के तौर पर बजता सुनाई देता है। इस काल्पनिक क़स्बे के सर्जक आर।के. नारायन ने अपने 50 सालों के लेखकीय जीवन में 14 उपन्यासों के साथ ही कई कहानी संग्र्रह, ट्रेवेलॉग लिखे, रामायण व महाभारत जैसे एपिक का पुनर्पाठ किया. मगर मालगुड़ी के लोगों के जीवन का जो संसार उन्होंने रचा, वह किसी क्षेत्र, भाषा या उम्र की हदबंदी के बाहर समान रूप से पढ़ा-गुना गया. इन कहानियों की पृष्ठभूमि भले ही दक्षिण भारत की हो मगर पढऩे वालों को यह आम हिन्दुस्तानी की जि़न्दगी के आख्यान के सिवाय कुछ और नहीं लगता. आख्यान भी ऐसा कि जिसमें डूबा हुआ पाठक कहानी ख़त्म होने के बाद अपनी दुनिया में लौटते हुए एक बार यह ज़रूर सोचता है कि कहानी और आगे जाती तो अच्छा होता.
नारायन की कहानियां हों या उपन्यास-भाषा की सादगी, उसकी रवानी और ह्यïूमर के फ्लेवर का तिलिस्म पाठकों पर छा जाता है. उनकी कहानियों के पात्र ऐसे आम लोग हैैं, जो ख़ामोशी और सादगी भरी जि़न्दगी के क़ायल हैं. अपने आसपास के बदलते परिवेश में परंपरा और आधुनिकता के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश में कई बार वे विचित्र परिस्थितियों में फंसे दिखाई देते हैैं. ऐसी परिस्थितियां जो हास्य पैदा करती हैैं मगर करुणा का भाव भी जगाती हैैं. गज़़ब की किस्सागोई है उनकी. आम जन के बीच भारी लोकप्रियता के बावजूद उनके कहन की यही सादगी साहित्य में भाषाई अभिजात्य के हामी लेखकों को कभी नहीं सुहाई. उनकी सादी ज़बान और क़स्बाई जीवन के चित्रण को उनकी कमी बताया जाता रहा. इस सबसे इतर देखें तो आमफ़हम ज़बान में किस्सागोई का यह तत्व ही उन्हें अंग्र्रेजी में लिखने वाले दूसरे भारतीय लेखकों से अलग क़तार में खड़ा करता है. तब भी जब हिन्दुस्तान और इंग्लैण्ड के तमाम पब्लिशर्स के अस्वीकार के बाद उनके पहले उपन्यास 'स्वामी एण्ड फ्रेंड्सÓ को पढ़कर ग्र्राहम ग्र्रीन इस क़दर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इसे छापने के लिए इंग्लैण्ड के एक पब्लिशर से सिफारिश की. यह बात 1935 की है. और तब भी जब आर.के.नारायन अपने उपन्यास 'गाइडÓ की पाण्डुलिपि के साथ विलायत में थे और अख़बार में छपी सूचना के आधार पर यह उपन्यास छापने के लिए तमाम पब्लिशर्स उनके होटल के कमरे के बाहर जुट गए थे. 'माई डेटलेस डायरीÓ में उन्होंने इस प्रसंग का बेहद दिलचस्प ब्योरा दिया है. बाद में देवानंद ने इस उपन्यास पर 'गाइडÓ नाम से हिन्दी और अंग्र्रेज़ी में फिल्म भी बनाई. फिल्म ख़ूब चली मगर आर.के.नारायन अपने उपन्यास के इस फिल्मी अडॉप्शन से ख़ुश नहीं थे. वजह साफ है, फिल्म के कथानक में वे तत्व नदारद थे, जो उनकी कहानी की आत्मा थे. आर्टिफिशियलिटी उन्हें सख्त नापसंद थी. चाहे उनकी कहानियों पर फिल्में-सीरियल हों या फिर बुक रिलीज़ के भव्य आयोजन. कहते थे कि कि़ताबें रिलीज़ के लिए नहीं होतीं, कि़ताबें तो बुक स्टोर या लाइब्रेरी में शेल्फ से उठाने के लिए हैैं. वह मानते थे कि हिन्दुस्तानी संस्कृति इतनी वैविध्यपूर्ण है कि कहानी लिखने वालों के लिए विषय की कोई कमी नहीं. हर शख़्स दूसरे से अलग है, सिर्फ आर्थिक दृष्टि से नहीं बल्कि अपने बात-व्यवहार, दृष्टिकोण और रोज़मर्रा की जि़न्दगी के दर्शन के लिहाज़ से भी. ऐसे समाज में कहानी का विषय ढूंढने के लिए लेखक को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, घर की खिड़की से बाहर देखने की आदत डाल लेने से भी कहानी के चरित्र मिल जाते हैैं. उनकी कहानियां उनके इस विश्वास का साक्ष्य bhi हैं।
आर.के.नारायन की साहित्यिक उपलब्धियों का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि आधुनिक भारत के वह पहले अंग्र्रेज़ी लेखक थे, जिन्होंने लेखन को कॅरियर के तौर पर चुना. यह वो दौर था जब अंग्र्रेज़ी में इंडियन फिक्शन खरीदने-पढऩे वाले बहुतायत में नहीं थे. अख़बारों में छपने वाली कहानियों का पारिश्रमिक भी बहुत मामूली होता. शुरुआती दिनों के संघर्ष को याद करते हुए ही वह मज़ाक करते, 'पता नहीं यह क्रेज़ी फैसला मैैंने कैसे किया मगर फिर से चुनने का मौक़ा मिले तो सोचूंगा.Ó एक तरह से यह अच्छा ही है कि आर.के.को यह मौक़ा नहीं मिला वरना कौन कहता मालगुड़ी के किस्से।
- प्रभात
सच में मालगुडी हमारी स्मृतियों का हिस्सा बन गया है-बचपन से देखता-सुनता आया कोई सजीव नाटक। जैसे गुरुदेव का काबुलीवाला हरेक हिंदुस्तानी को अपना लगता है वैसे ही मालगुड़ी के पात्र भी। मैने बहुत पहले बचपन में ही इसका एक संक्षिप्त रुप पढ़ा था, बाद में पढ़ने का मौका नहीं मिल पाया। इस लेख ने वे तमाम स्मृतियां ताजी कर दी। बहुत हाल तक मैं सोचता था कि ये कोई केरल का शहर है जहां जारकालीन रुस की तरह चिमनियो के धुंए, फैक्ट्री के कामगार और पता नहीं क्या होतें होंगे। इस लेख को पढ़ने के बाद एक बार फिर से इसे पढ़ने की भूख जग गई है।
ReplyDeleterochak..............v nai jankari .
ReplyDeleteमालगुडी डेज़ सीरियल के सारे एपिसोड डाउनलोड कर देख चुका हूँ । हाँ इन कहानियों को कभी पढ़ा नहीं है ।
ReplyDeleteआपने यादे ताज़ा कर दी. बचपन में इस सीरियल को देखने के लिए मुझे स्कूल से कुछ वैसी ही दौड़ लगनी पड़ती थी जैसे उपन्यास में स्वामी लगता है. तब यह सीरियल दूरदर्शन पर दिन में ३.३० पर आता था और मेरी छुट्टी भी इसी समय होती थी. अभी हाल ही में मैंने इस उपन्यास को ख़त्म किया है. आपने काफी अच्छा लिखा है.
ReplyDeleteमैंने भी काफी पहले मालगुडी डेज सीरियल देखा था रोचक सीरियल. था ....
ReplyDeleteहमारी ओर से भी बधाई!
ReplyDeletemalgudi ko kushwant sigh jaise writers ko bhi yaad karna chiye jo unki sadaran bhasa aur logo ki kahani khane ke wajh se doyam darje ka lekhak batate hai.
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