उसकी आंखों में जलन थी
हाथों में कोई पत्थर नहीं था।
सीने में हलचल थी लेकिन
कोई बैनर उसने नहीं बनाया
सिद्धांतों के बीचपलने-बढऩे के बावजूद
नहीं तैयार किया कोई मैनिफेस्टो।
दिल में था गुबार कि
धज्जियां उड़ा दे
समाज की बुराइयों की ,
तोड़ दे अव्य्वास्थों के चक्रव्यूह
तोड़ दे सारे बांध मजबूरियों के
गढ़ ही दे नई इबारत
कि जिंदगी हंसने लगे
कि अन्याय सहने वालों को नहीं
करने वालों को लगे डर
प्रतिभाओं को न देनी पड़ें
पुर्नपरीक्षाएं जाहिलों के सम्मुख
कि आसमान जरा साफ ही हो ले
या बरस ही ले जी भर के
कुछ हो तो कि सब ठीक हो जाए
या तो आ जाए तूफान कोई
या थम ही जाए सीने का तूफान
लेकिन नहीं हो रहा कुछ भी
बस कंप्यूटर पर टाइप हो रहा है
एक बायोडाटा
तैयार हो रही है फेहरिस्त
उन कामों को गिनाने की
जिनसे कई गुना बेहतर वो कर सकता है।
सारे आंदोलनों, विरोधों औरसिद्धान्तों को
लग गया पूर्ण विराम
जब हाथ में आया
एक अदद अप्वाइंटमेंट लेटर....
हाथों में कोई पत्थर नहीं था।
सीने में हलचल थी लेकिन
कोई बैनर उसने नहीं बनाया
सिद्धांतों के बीचपलने-बढऩे के बावजूद
नहीं तैयार किया कोई मैनिफेस्टो।
दिल में था गुबार कि
धज्जियां उड़ा दे
समाज की बुराइयों की ,
तोड़ दे अव्य्वास्थों के चक्रव्यूह
तोड़ दे सारे बांध मजबूरियों के
गढ़ ही दे नई इबारत
कि जिंदगी हंसने लगे
कि अन्याय सहने वालों को नहीं
करने वालों को लगे डर
प्रतिभाओं को न देनी पड़ें
पुर्नपरीक्षाएं जाहिलों के सम्मुख
कि आसमान जरा साफ ही हो ले
या बरस ही ले जी भर के
कुछ हो तो कि सब ठीक हो जाए
या तो आ जाए तूफान कोई
या थम ही जाए सीने का तूफान
लेकिन नहीं हो रहा कुछ भी
बस कंप्यूटर पर टाइप हो रहा है
एक बायोडाटा
तैयार हो रही है फेहरिस्त
उन कामों को गिनाने की
जिनसे कई गुना बेहतर वो कर सकता है।
सारे आंदोलनों, विरोधों औरसिद्धान्तों को
लग गया पूर्ण विराम
जब हाथ में आया
एक अदद अप्वाइंटमेंट लेटर....
ओह... लगता है इस कविता में मेरी ही कहानी लिखी गई है।
ReplyDeleteयथार्थ हमेशा आदर्श पर भारी पड़ता है. सारे विचार, आंदोलन धरे रह जाते हैं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना .
ReplyDeleteव्यवस्था कैसे एक आदमी को जड़ कर
ReplyDeleteदेती है उसकी बहुत ही सफल अभिव्यक्ति
है यह कविता....धीरे धीरे पूंजीवाद हमारा
सभी का यही हाल करने वाला है...आपकी
कविता आते वक्तों की भविष्य वाणी है....
..डॉ. अमरजीत कौंके
बस कंप्यूटर पर टाइप हो रहा है
ReplyDeleteएक बायोडाटा
तैयार हो रही है फेहरिस्त
उन कामों को गिनाने की
जिनसे कई गुना बेहतर वो कर सकता है।
अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है।
बधाई!
बहुत ही सच्ची कविता है। आईने जैसी साफ...
ReplyDeleteसच कहूँ तो यह कविता , रचना पढ़कर ऊर्जावान हो गया । आगे ऐसे ही पढ़ने को मिलेगा । शुभकामनाएं
ReplyDeleteएक पूरी पीढ़ी का यथार्थ छिपा है आपकी कविता मे..शुभकामनाएं.
ReplyDeleteक्या बात है बहुत खुब। गजब की अभिव्यक्ति दिखी आपकी इस रचना में। बधाई
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.
ReplyDeleteThis Poem shows the reality of this era.
ReplyDeleteBahut Sunder
Rohit Kaushik
अभी पूर्ण विराम नहीं लगा है मोहतरमा हमारी जगं अभी भी ज़ारी है.अहमदाबाद परिवार से दूर एक ऐसा गाँव में ज़लावतन हूँ. इंक्रीमेंट पाँच साल से रोके गये गुजरात हाईकोर्ट में इंक्रीमेंट और पिंसीपल के प्रमोशन की दोनो मेटर रूल्ड हुईं वोर्ड पर आने में जमाने लगेंगे.
ReplyDeleteहमारा तो मिज़ाज़ ये है साहिबा की क्या कहें.
पानी जो हमारे सर से गया,
हम भी हथियार उठायेंगे.
बोली से अगर वे न समझे,
गोली से उन्हें समझायेंगे.
ख़ैर नियुक्ति पत्र और प्रमोशन के पट्टे पालतू बनाते हैं ये सच आपने बड़े बेबाक रूप से उभारा है.
निराशा के इस दौर में कुछ संघर्ष की बात कीजिए बकौले दुष्यन्त कुमार,
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है.
नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है.
वाह बहुत उम्दा लेखन !
ReplyDeleteसिद्धांतों आदर्शों का जब ज़मीनी हकीकत से वास्ता पड़ता है तो उनका कैसा दयनीय हश्र होता है उसे बड़ी सशक्त अभिव्यक्ति दी है आपने ! बधाई स्वीकार करें !
ReplyDeleteबहुत उम्दा!!
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