Wednesday, June 24, 2009

मत बुझाओ इंतजार का चांद

तिथियों की गणना के हिसाब से तो पूर्णमाशी थी उस रोज लेकिन चांद न जाने कहां गुम था। हवाओं ने जिस्म को सहलाया तो महसूस हुआ कि हवाओं में भी तिथियों की वही गणना है जो ज़ेहन में। कैलेंडर-वैंलेंडर की बात नहीं है। दिल की बातें और वही हिसाब-किताब। न एक रत्ती कम, न एक रत्ती ज्यादा।

इंतजार की गहरी पीड़ा से डूबे, रचे-बुने एक-एक लम्हे की कीमत सोने या हीरे से कम भी तो नहीं होती। इसलिए पक्के सुनार की तरह हर लम्हे का सही-सही हिसाब रखना होता है. एक अनकहा वादा था दोनों के बीच कि पूर्णमाशी का चाँद साथ देखेंगे हमेशा. उस रात की सारी हवाओं को एक साथ पियेंगे. जख़्मों को खुला छोड़ देंगे कि हवा ही लगे कुछ. तो ये कौन सी अमावस आ गई है, जिसने तिथियों का हिसाब-किताब बिगाड़ दिया।

देखो, उस पगली को लालटेन लेकर ढूंढ रही है अपने ख्वाब का चांद...


8 comments:

  1. wo raah buharti hai....chaan bichaati hai .....kionki use intjar hi kisi ke aane ka

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  2. bhut hi khub bhavo ki kitni sunder abhivyakti vah prnam swikar kare
    saadar
    praveen pathik
    9971969084

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  3. कविता तो अच्छी है ही ,चित्र उससे भी ज्यादा अच्छा है
    शुभकामनाएं

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  4. उस रात की सारी हवाओं को एक साथ पियेंगे. ज़ख्मों को खुला छोड़ देंगे कि हवा ही लगे कुछ.... वाह बहुत सुन्दर, आपकी ये पंक्तियाँ इतनी पसंद आई है कि अब लम्बे समय तक मन में बसी रहेगी.

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  5. अति सुन्दर भाव!

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  6. aapki bhavnao ka kya kehna.....bahut khub
    pranaam sweekar karen.

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