आस उस दर से टूटती ही नहीं पंक्ति तो वज़्न में है पर दूसरी पंक्ति का वज़्न प्रथम पंक्ति की तरह नहीं है टूटन साफ नज़र आ रही है. कही ऐसा तो नहीं कहीं की इंट कहीं का रोडा भानुमती ने कुनबा जोड़ा. मोहतरमा हमारी नज़र हमारी दुश्मन है जानते हैं. फैज़ अहमद साहब ऐसी भूल करें यकीन नहीं होता. पूरी ग़ज़ल के शेर पढ़ाती तो कुछ कहते. बकौले दुष्यन्त कुमार मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ, मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं. आस का न टूटना ही तो ज़िन्दा रखे हुए. बाकी तो कब के मर गये होते.कथ्य धारदार है.
आस उस दर से टूटी नहीं..
ReplyDeleteखुद को बहला के , उसको आजमा के देख लिया..
क्या बात है प्रतिभा जी ..फैज के खूबसूरत लफ्जों को पढ़वाने का शुक्रिया...
jab bhi padha suna achchha laga
ReplyDeleteaise ustad shayron k chand lafz padh kar log shayar ban jate hain ..unko salaam!
ReplyDeleteaapki is post ko hardik abhinandan !
प्रतिभा जी
ReplyDeleteजब दर कुछ ख़ास ही हो तो आस टूटने का प्रश्न ही नहीं होता ....
शायद आस और मौत एक साथ ही जाती है.
- विजय
आस उस दर से टूटती ही नहीं
ReplyDeleteपंक्ति तो वज़्न में है पर दूसरी पंक्ति का वज़्न प्रथम पंक्ति की तरह नहीं है टूटन साफ नज़र आ रही है.
कही ऐसा तो नहीं
कहीं की इंट कहीं का रोडा भानुमती ने कुनबा जोड़ा.
मोहतरमा हमारी नज़र हमारी दुश्मन है जानते हैं.
फैज़ अहमद साहब ऐसी भूल करें यकीन नहीं होता.
पूरी ग़ज़ल के शेर पढ़ाती तो कुछ कहते.
बकौले दुष्यन्त कुमार
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ,
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं.
आस का न टूटना ही तो ज़िन्दा रखे हुए.
बाकी तो कब के मर गये होते.कथ्य धारदार है.
toot jaye to aas hi kya hui..baqi jana na jana to alag baat hai.
ReplyDeleteजिस दर पर इतनी आस हो वहां कुछ टूटने का सवाल ही नहीं...!आस्था हो तो पत्थर में भी भगवान नज़र आ जाते है...
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