धरती खामोश। आसमान भी चुप. कहीं कोई आवाज नहीं. न हवाओं की ज़ुम्बिश, न परिंदों की सरगोशी ही. वादियां एकदम वीरान. जैसे सदियों से रखा हो मौन. पहाड़ ऊंचे-ऊंचे. आंख के इस छोर से, उस छोर तक पहाड़ ही पहाड़. एक घबराहट ही तारी होती महसूस हुई. जैसे कोई पहाड़ टूटकर गिरेगा अभी. जैसे यह वादियों की खामोशी गला ही दबा देगी मेरा भी. तभी एक आवाज सुनाई दी। कान खड़े हो गये. आवाजों के आदी कान, उस आवाज के लिए बेसब्र हो उठे।
अरे, यह तो मेरी ही धडकनों की आवाज थी। धक...धक...धक...कितने बरसों बाद यह आवाज सुनी थी. अपनी ही धड़कनों की आवाज शहरों के शोर में, आवाजों के सैलाब में गुम सी गई थी कहीं. या सच कहूं, हमने ही छुपा दिया था इन्हें सुभीते से बहुत अंदर कहीं. ताकि ये तो सुरक्षित रह ही सकें बाहरी सैलाब से. देखो ना, आज जब शोर के सैलाब की जगह खामोशी ने ली तो धड़कनों ने अपना आकार बढ़ाना शुरू किया. इनकी कारगुजारियां बढऩे वाली थीं. मुझे समझ में आ चुका था. वादियों में इन्होंने टहलना शुरू कर दिया था. अब ये मेरे बस के बाहर थीं।
खामोश वादियों में धड़कनें ही धड़कनें...अचानक वादियां गुलजार होती मालूम हुईं. जब धड़कनें आजाद हुईं तो मन भी आजाद हुआ और न जाने कितनी यादें...पहाड़ों से डर अब जरा कम हो रहा था, लेकिन दोस्ती अब तक नहीं हुई. जाने क्यों सदियों से वैसे के वैसे खड़े पहाड़ मुझे डराते हैं हमेशा से. बहरहाल, धड़कनों की दोस्ती वादियों से हो गई थी. चलने की बेला हुई तो नन्हे बच्चों सी रूठी धड़कनें साथ चलने को राजी ही नहीं हुईं. उन्हें तो यहीं रहना था. भला बताइये, जहां मेरा मन घबराता है, इन्हें वहीं बसना है. दिल की धड़कन से बगावत. अब क्या करूं? जाना तो है....
एक रास्ता है धड़कनों की आवाज आई।
एक हिस्सा यहीं छोड़ दो हमारा।
एक हिस्सा...?
मैं अचरज में।
हां, अपने मन के कितने हिस्से कहां-कहां छोड़ती फिरती हो, कहां-कहां अपने सपने रोपती फिरती हो, एक हिस्सा अपनी धड़कनों का नहीं छोड़ सकती क्या...?
धड़कनों ने मुझे आड़े हाथों लेना शुरू कर दिया था. मैं अब फंस चुकी थी. बुरी तरह से. कोई जवाब नहीं था. कोई भला अपनी धड़कनों से मुंह चुराए भी तो कैसे. तय हो गया. अपनी धड़कनों का एक छोटा सा हिस्सा मैं उन वादियों में ही छोड़ आई हूं।
मैं आ गयी हूं वापस. पता नहीं वापस कभी वहां जाऊंगी भी या नहीं लेकिन पता है कि मेरी तरह शरारती मेरी धड़कनें वादियों का सन्नाटा भंग करती रहेंगी. मैं रहूं ना रहूं जब भी कभी कोई मेरी धड़कनों की आवाज सुनना चाहेगा, उसे शिमला की वादियों में वो आवाज जरूर सुनाई देगी...
- शिमला से लौटकर प्रतिभा
आज जब शोर के सैलाब की जगह खामोशी ने ली तो धड़कनों ने अपना आकार बढ़ाना शुरू किया. इनकी कारगुजारियां बढऩे वाली थीं. मुझे समझ में आ चुका था. वादियों में इन्होंने टहलना शुरू कर दिया था. अब ये मेरे बस के बाहर थीं।
ReplyDeleteअपनी धड़कनों का एक छोटा सा हिस्सा मैं उन वादियों में ही छोड़ आई हूं।
अपने वजूद से मिलना ,अपनी ही सांसों में पिघलना
बहुत खूब लिख दिया है सफर नामे के साथ चलना
बधाई
हम सबके दिल में एक कोना ऍसा है जो आजाद होना चाहता है रोज की दिनचर्या से, और जब हम इन वादियों के बीच होते हैं तो इनके बीचे भटकना बहुत सुकून देता है।
ReplyDeleteआपके शब्द समूहों ने आत्मविस्मृत कर अपने में ही रचा बसा लिया...क्या कहूँ.....बहुत बहुत सुन्दर...वाह !!
ReplyDeleteकाफी बढ़िया लगा…।
ReplyDeleteबहुत अच्छ!!
वादियों में भटकने पर एक अलग ही अनुभव होता है... कुछ इसी तरह की भावनाएं समुद्र के किनारे लहरें गिनने में भी होती हैं !
ReplyDeleteVery nice.
ReplyDeleteI was glad to stumble upon this one.
Great.
khushnaseeb ho jo aap ne kuch pal sukoon ke jiye is bhagmbhag wali jindgi se nikalkar........akhir khamoshi bahut kuch na kah ke bhi kafi kuch kah jati hai...........bahut khoob
ReplyDeleteप्रतिभा जी बहुत ही भावमय पोस्ट है बधाई
ReplyDeleteहौसला बढ़ाने के लिए आप सभी का बहुत आभार!
ReplyDeleteप्रतिभाजी, शिमला से लौटकर इतना अच्छा लिखा जा सकता है, मुझे मालूम होता तो मैं भी वहां हो आता.
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