विष्णु प्रभाकर का पत्र उनकी पत्नी सुशीला के नाम
(विष्णु प्रभाकर: प्रसिद्ध लेखक जिनके उपन्यासों, नाटकों और आत्मकथा आवारा मसीहा के बगैर साहित्य की बात पूरी नहीं होती)हिसार-7।6।38
मेरी रानी,
तुम अपने घर पहुंच गयी होगी. तुम्हें रह-रहकर अपने मां-बाप, अपनी बहन से मिलने की खुशी हो रही होगी. लेकिन मेरी रानी, मेरा जी भरा आ रहा है. आंसू रास्ता देख रहे हैं. इस सूने आंगन में मैं अकेला बैठा हूं. ग्यारह दिन में घर की क्या हालत हुई है, वह देखते ही बनती है. कमरे में एक-एक अंगुल गर्दा जमा है. पुस्तकें निराश्रित पत्नी सी अलस उदास जहां-तहां बिखरी हैं. अभी-अभी कपड़े संभालकर तुम्हें ख़त लिखने बैठना हूं, परंतु कलम चलती ही नहीं. दो शब्द लिखता हूं और मन उमड़ पड़ता है काश....कि तुम मेरे कंधे पर सिर रक्खे बैठी होती है और मैं लिखता चला जाता...पृष्ठ पर पृष्ठ. प्रिये, मैं चाहता हूं कि तुम्हें भूल जाऊं. समझूं तुम बहुत बदसूरत, फूहड़ और शरारती लड़की हो. मेरा तुम्हारा कोई संबंध नहीं. लेकिन विद्रोह तो और भी आसक्ति पैदा करता है. तब क्या करूं? मुझे डरता लगता है. मुझे उबार लो.मेरे पत्रों को फाडऩा मत. विदा...बहुत सारे प्यार के साथ....
तुम अगर बना सका तो तुम्हारा ही
विष्णु
(विष्णु प्रभाकर ने यह पत्र अपनी पत्नी को तब लिखा था जब वे विवाह के बाद पहली बार मायके गई थीं)
सिलसिला जारी...
पढ़कर मजा आया। पत्नी के घर न रहने पर स्थितियां तो ऐसी ही होती हैं लेकिन उसे कायदे से शब्दों का रूप दिया विष्णु जी ने।
ReplyDeleteजय जय
Anutha hai aapka pryas, Badhai.
ReplyDeletebehtreen
ReplyDeleteपत्र मजेदार है, पर पुराने जमाने का है।
ReplyDeleteप्रतिभा जी सच है कि पत्रों से प्यार पेशे की शक्ल अख्तियार कर उभरता है
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका ब्लॉग पढना ..अमृता इमरोज़ के पत्र तो मेरे दिल के बहुत ही करीब है ..आपके लिखे हुए का अब इन्तजार रहेगा शुक्रिया
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