मोहब्बत से भरे इन खतों का रुख़ जरा हिंदुस्तान की तरफ किया तो जर्ऱे-जर्ऱे में लैला मजनू, शीरी-फरहाद, हीर-रांझा के किस्से बिखरे नजर आये. पहला जर्रा उठाया तो अमृता प्रीतम का चेहरा नजर आया और दूसरा जर्रा उठाया तो इमरोज की सूरत नजर आनी ही थी. इमरोज अमृता को कई नामों से पुकारते थे। जीती और आशी भी उनमें से ही हैं.
इमरोज़
तुम्हारे और मेरे नसीब में बहुत फर्क है। तुम वह खुशनसीब इंसान हो, जिसे तुमने मुहब्बत की, उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी। पर मैं वह बदनसीब इंसान हूं जिसे मैंने मुहब्बत की, उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया। दु:खों ने अब मेरे दिल की उम्र बहुत बड़ी कर दी। अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलौने के साथ नहीं खेल सकता।
- हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई में बिताए हुए दिनों का जिक्र होता है, बुरे से बुरे शब्द में. पर मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है क्योंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नहीं है. केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नहीं समझा, जिसने कभी मुझसे कहा था, मुझे जवाब बना लो, सारे का सारा.मुझे अगर किसी ने समझा है तो वो तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों की बेजुबान शीशियां हैं, जिनके बदन मैं रोज पोंछती और दुलारती थी. वे रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कुराते थे, क्योंकि उन्होंने मेरी आंखों की जर का भेद पा लिया था. उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रिएटिव पॉवर से ऐसी ही मुहब्बत है. वे रंग तुम्हारे हाथों के स्पर्श के लिए तरसते रहते थे और मेरी आंखें उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए. वे रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इसलिए मांगते थे क्योंकि दे वाण्टेड टु जस्टिफाई देयर एग्जिस्टेन्स. मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि मुझे तुम्हारी कृतियों में अपने अस्तित्व के अर्थ मिलते थे. यह अर्थ मुझे अपनी कृतियों में भी मिलते थे, पर तुम्हारे साथ मिलकर यह अर्थ बहुत बड़े हो जाते थे. तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी हुई रंग की शीशियों को खोला. मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा, तुमने हाथ में लिए ब्रश पर थोड़ा सा रंग लगाकर मेरे माथे से छुआ दिया. न जाने वह मेरे माथे की कैसी खुदगरज मांग थी....
.............इमरोज का पत्र अमृता के नाम .................
26.12.60
जीती,
तुम जिन्दगी से रूठी हुई हो. मेरी भूल की इतनी सजा नहीं, आशी। यह बहुत ज्यादा है। यह दस साल का वनवास। नहीं-नहीं मेरे साथ ऐसे न करो। मुझे आबाद करके वीरान मत करो।
वह मेज, वह दराज, वे रंगों की शीशियां, उसी तरह रोज उस स्पर्श का इंतजार करते हैं, जो उन्हें प्यार करती थी और इनकी चमक बनती थी. वह ब्रश, वे रंग अभी भी उस चेहरे को, उस माथे को तलाश करते हैं, उसका इंतजार करते हैं जिसके माथे का यह सिंगार बनकर ताजा रहते थे, नहीं तो अब तक सूख गए होते. तुम्हारे इंत$जार का पानी डालकर मैं जिन्हें सूखने नहीं दे रहा हूं. पर इनकी ताजगी तुम्हारे साथ से ही है, तुम जानती हो। मैं भी तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं, रंगों में भी जिंदगी में भी.
तुम्हारा
इमरोज
(अमृता साहिर के प्रेम में दीवानी थीं जबकि इमरोज अमृता के प्यार में. अमृता और इमरोज ने एक बहुत सुंदर और पाक रिश्ता जिया उम्र भर। ये खत उसी की एक झलक हैं.)
प्रेम पत्रों की श्रंखला जारी....
prem se bharpoor
ReplyDeleteबहुत आभार इस प्रस्तुति का!!
ReplyDeleteमें कह बोल थकी हूँ
ReplyDeleteकिताबें खोल थकी हूँ
कहीं भी किसी कानून की
कोई धारा नहीं मिलती
khubsurat or prem se labalab letter...
ReplyDeleteprem se bhare ye khat dil ko cho gaye
ReplyDeleteदिल भर आया
ReplyDeleteI’m a big fan of amrita pritam.her stories n rasidi ticket touches me.
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