Friday, October 7, 2022
बस इतना सा ख़्वाब था...
सुबह की आँख अभी खुली नहीं थी. सपनों की सुनहरी लकीर लड़की की पलकों से छनकर छलक रही थी. लड़की ने अपनी करवट में मुस्कुराते हुए सिसकी ली. उस सिसकी में रुदन नहीं था. उस सिसकी में झरे हुए हरसिंगार की रंगत थी. क़ायनात इस इंतज़ार में थी कि लड़की की आँख न खुले और उसका सपना न टूटे. इसलिए बादलों ने सुबह को छुपाने के तमाम जतन करने शुरू कर दिए.
बादल आये तो आई हवा भी और जब आई हवा तो सोई हुई लड़की के बिखरे हुए बालों को चूमने से खुद को रोक न सकी. लड़की चौंक के जाग गयी. उसे अपनी पलकों पर किसी चुम्बन की आहट मिली. ख़्वाब था शायद....हाँ, ख़्वाब ही होगा. नीम हरारत में सिमटी अनमनी लड़की ने खिड़की के बाहर टंगे बादलों को देखा और वापस नींद की नदी में उतरने को लेट गयी. लेकिन नींद जा चुकी थी. वो टूटे हुए सपने की रानाई में देर तक उलझी रही.
सपना बस इतना सा था कि लड़के ने कहा, 'सुनो आज मैंने तुम्हें सपने में देखा...' लड़की ने पूछा, 'सच'. लड़के ने कहा, 'हाँ सच.' कहते हुए लड़के ने लड़की की पलकों को चूम लिया था. लड़की की आँखें बह निकली थीं कि कोई किसी के ख़्वाब में यूँ ही तो नहीं आता.
डालियों पर अटके हरसिंगार हवा के झोंके के संग झूलकर धरती के गले लग चुके थे. लड़की अब नींद से बाहर थी. चाय के पानी के संग कुछ अल्फ़ाज महक रहे थे रसोई में, 'सुनो आज मैंने तुम्हें सपने में देखा'.
ख़्वाब में ख़्वाब की बातें हसीन होती हैं...है न? लड़की ने आईने से कहा.
मौसम सुहाना था शहर का. अक्टूबर महकने लगा था.
Wednesday, October 5, 2022
अमरकंटक- प्यार से पुकार लो जहाँ हो तुम
सुख जब आता है तो साथ आता है दुःख भी. दो पल के सुख के पीछे कितनी सदियों की उदासी आएगी कोई नहीं जानता. फिर भी उस दो पल के सुख के इंतज़ार में पलक-पांवड़े बिछाये हम लम्हों पर पाँव रखते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. उदासी की आदत इतनी है कि वो अपना पक्की सहेली लगती है, तो यह पक्की सहेली कुछ मुद्दत को जो बिछड़ गयी थी वापस मिली और पलकें नम हो गयीं. हम दोनों एक-दूसरे के गले लगे, आँखें बहती रहीं, हम मुस्कुराते रहे. ऐसे ही नम मुस्कुराहटों वाले दिनों में कानों में नर्मदा की आवाज़ झरने लगी. मानो नर्मदा ने कहा हो, ‘आ जाओ तुम दोनों, मेरे पास.’ मैंने पलकों पर अटकी उदासी से पूछा, ‘चलें क्या?’ उसने झट से ‘हाँ’ कह दिया.
नर्मदा...सिर्फ नदी तो नहीं है. वो एक पुकार है. एक तरीका है जीने का. संजय सैलानी और बाबुषा कोहली से नर्मदा के इतने किस्से सुने हैं कि वो सखी सी लगती है. ऐसी सखी जिससे पहली मुलाकात जबलपुर में हुई थी.
नर्मदा का ख़याल आया तो ख़याल आया बाबुषा का. ख़याल आया उस रोज का जब धुआंधार के किनारे हम शाम को रात में और रात को सुबह में बदलते देखते रहे थे. ये ऐसी नदी है जो उलटी दिशा में बहती है. यह वो नदी है जो अपने मंडप से उठकर भागी थी क्योंकि वो अपना प्रेम किसी से बांटना नहीं चाहती थी. कहानियां कई हैं लेकिन हर कहानी में इस प्रेम से भरी, स्वाभिमान से भरी नदी का निखार ही अलग नज़र आता है. इस नदी के सीने में दुनिया की तमाम प्रेमिकाओं का दिल धड़कता है.
ज़िन्दगी इतनी मेहरबान कहाँ हुई कि सुभीते से तयशुदा यात्राएँ हासिल होतीं. अक्सर जिन हालात में यात्राओं ने मेरा हाथ थामा वो ऐसे ही थे जैसे मंडप में बैठी दुल्हन का हाथ थामा हो उसके प्रेमी ने. तमाम उहापोह...बेचैनी...और अंत में प्रेमी का हाथ थाम सब भूलकर मंडप से उठकर भाग जाना. कश्मीर, केरल, लंदन, अंडमान, उदयपुर, बाड़मेर, गोवा सहित तमाम यात्राओं के ऐन पहले के हालात याद आये और लब मुस्कुराये. ‘भाग जा लड़की’, भीतर से आवाज़ आई. और बैग पैक हो गया. कभी यूँ भी हुआ है कि बैग पैक करने का वक़्त भी नहीं मिला. इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ बस ये अच्छा हुआ कि इस बार इस भागने में शामिल हुई ख़्वाहिश भी और संज्ञा भी. मेरा ख़्वाहिश का तो फिर भी कुछ तय था संज्ञा तो सच में एकदम अंत समय में सब दुश्वारियों को काटकर इस यात्रा में शामिल हुई.
साथ होना भी और साथ चलना भी-
संज्ञा, ख़्वाहिश और मैं. हम तीनों यात्रा को निकल पड़े. लेकिन कहना न होगा निकल सके दो वजहों से, एक निकलने की शदीद इच्छा और दूसरी नर्मदा की पुकार. संजय सैलानी कबसे नर्मदा और अमरकंटक के लिए आवाज़ देता रहता है. इस बार संजय ने अमरकंटक में होने ‘तितली महोत्सव’ के बारे में बताया तो उसमें शामिल होने की इच्छा को सहेजकर सिरहाने रख लिया यह कहकर कि इस बार तो संभव नहीं अगली बार जरूर जायेंगे. महोत्सव के ठीक दो दिन पहले जब संजय को इस बाबत बताया तो इस उलझन के साथ कि आने का मन है लेकिन टिकट नहीं मिल रहे. संजय हमारे आने की बात से इतना खुश हुआ कि उसने टिकट की जिम्मेदारी भी ले ली और अगले कुछ घंटों में कन्फर्म टिकट हमारे हाथ में थी. संज्ञा का साथ चलना किसी जरूरी वजह के चलते अटक गया था इसलिए मन में एक कचोट थी. यात्रा के कुछ घंटों पहले संज्ञा ने कहा वह चल रही है. जब उसका फोन आया मैं चाय पी रही थी. मैं ख़ुशी से उछल पड़ी थी. अब यात्रा का सुख महसूस होना शुरू हो चुका था. संज्ञा से ठहरकर मिलने का मन जाने कबसे था. ऐसा मन जो बेजुबान होता है. हम दोनों आपस में बहुत बात नहीं करते लेकिन जुड़े हमेशा रहते हैं. ‘संज्ञा मासी भी साथ चल रही हैं’ सुनकर ख़्वाहिश भी खूब खुश हुई. मुश्किल बस एक थी जरा सी कि क्योंकि हमारी टिकट्स एक साथ नहीं हुई थीं इसलिए हमारी सीट्स अलग-अलग कोच में थीं. लेकिन भरोसा था कि कुछ तो हो ही जाएगा.
स्टेशन पहुंचे तो संज्ञा पहले से मौजूद थी. हम गले लगे तो लगे ही रहे. जैसे हम सच में मिल रहे हैं, सच में साथ एक यात्रा पर जा रहे हैं इसका यक़ीन खुद को दिला रहे हों. बार-बार हम हंस रहे थे, खुश थे, भीतर जमा तमाम उदासी की गिरहों को आराम-आराम से खोलने को रत्ती भर तैयार शायद. मेरे लिए यह यात्रा संज्ञा के संग यात्रा हो चुकी थी. हम दोनों न जाने कितनी यात्राओं के मंसूबे कितने बरसों से बना रहे हैं लेकिन देखो न अचानक हमारा थामने को आ गयी एक छुटकी सी यात्रा जिसके भीतर स्नेह का विशाल समन्दर लहरा रहा था. हमें इस यात्रा की बहुत जरूरत थी. कई बार हम यात्रा को नहीं चुन पाते तो वो हमारे पास आती है और हमें उठाकर साथ ले जाती है, ठीक वैसे ही जैसे ले जाता है प्रेम.
हम तीनों निकल पड़े थे...
स्टेशन पहुंचे तो संज्ञा पहले से मौजूद थी. हम गले लगे तो लगे ही रहे. जैसे हम सच में मिल रहे हैं, सच में साथ एक यात्रा पर जा रहे हैं इसका यक़ीन खुद को दिला रहे हों. बार-बार हम हंस रहे थे, खुश थे, भीतर जमा तमाम उदासी की गिरहों को आराम-आराम से खोलने को रत्ती भर तैयार शायद. मेरे लिए यह यात्रा संज्ञा के संग यात्रा हो चुकी थी. हम दोनों न जाने कितनी यात्राओं के मंसूबे कितने बरसों से बना रहे हैं लेकिन देखो न अचानक हमारा थामने को आ गयी एक छुटकी सी यात्रा जिसके भीतर स्नेह का विशाल समन्दर लहरा रहा था. हमें इस यात्रा की बहुत जरूरत थी. कई बार हम यात्रा को नहीं चुन पाते तो वो हमारे पास आती है और हमें उठाकर साथ ले जाती है, ठीक वैसे ही जैसे ले जाता है प्रेम.
हम तीनों निकल पड़े थे...
कोई तो सुनेगा न बात हमारी-
ट्रेन के अलग-अलग लेकिन अगल-बगल के कोच में हमने अपना सामान रखा. हमारी निगाहें उन लोगों को तलाशने लगीं जो सीट बदल ले और हम तीनों को एक साथ कर दे. उम्मीद भरी नज़रों से हम हर किसी को तलाश रहे थे. कहीं कोई उम्मीद दिखती, फिर बुझ जाती. फिर कोई दिखता उससे बात होती, फिर बात बनते-बनते रह जाती. मन तो अटका हुआ था कि इतनी लम्बी यात्रा अगर हम साथ न हो पाए तो क्या फायदा. क्योंकि यात्रा कहीं पहुचंना नहीं होता साथ चलना होता, लम्हा-लम्हा साथ का बुनना होता है यह हम जानते थे और इसी का उत्साह था. संज्ञा हिम्मत हारने वाली तो है नहीं, वो बराबर कहती रही कुछ तो हो ही जाएगा. और आखिर दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर संज्ञा के सम्मान में एक युवक अपनी मर्जी से सीट बदलने को करने को तैयार हो गया. अब एक और उम्मीदवार की तलाश थी. हमारी उलझन बेचैनी, सफर में साथ होने की शिद्दत को देख एक अकेले सफर कर रही लड़की ने खुद आकर कहा, ‘देर से देख रही हूँ आप लोगों को. मैं चली जाती हूँ दूसरे कोच में आप मेरी बर्थ ले लीजिये.’ हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. आनन-फानन में सामान की अदला बदली हुई और हम सब साथ-साथ थे...सच में.
सफर अब शुरू हुआ था. चाँद खिड़की पे टंगा हुआ साथ दौड़ रहा था, हमें देख रहा था. मैं और संज्ञा जाने क्या-क्या बोल रहे थे, जाने कितनी चुप्पियों को तोड़ रहे थे. कुछ को सहेज भी रहे थे. संज्ञा मुझे सुन रही थी. मैं उसे देख रही थी. इमली की गोलियां, चना-चबेना, फल, आंटी के हाथ के बने चटपटे आलू और पराठे, चाउमीन, मंचूरियन हम मिलकर टूंगते रहे. रात का ऐसा साथ मुझे इस कदर पसंद है कि मैं भावुक हो उठती हूँ.
ख़्वाहिश सो चुकी थी. हम जाग रहे थे. मुझे बार-बार महसूस हो रहा था कि गले मिलने की, हाथ थामने की, सर काँधे पर रखने की इच्छा को आखिर ठौर मिल ही गया. रात सफर करती रही और हम भी.
पेंड्रा-
पेंड्रा रेलवे स्टेशन से पहले ही संजय का फोन आने लगा था. वो फोन पर ही हमारा उत्साह बढ़ा रहा था. ये जो आपके बाएं से गुजर रहा है इस जंगल में टाइगर मिलते हैं. उस जंगल में हिरन, वहां भालू बहुत होते हैं. यह बहुत ख़ास इलाका है. संजय पेंड्रा स्टेशन पर हमारा इंतजार कर रहा था और फोन पर हमारा गाइड बना हुआ था. जैसे-जैसे वो बताता जा रहा था जगहों के बारे में हमारे लिए उन गुजरती राहों का अर्थ और खुलने लगा था.
ट्रेन थोड़ी देर से पहुंची लेकिन संजय की गर्मजोशी ने देरी को भुला दिया. पेंड्रा का आसमान अब हमारे सर पर था. पेंड्रा के नाम को लेकर बड़ी दिलचस्प सी बात बाद में पता चली कि सम्भवतः किसी से कागजों में इस जगह के नाम को लिखने में स्पेलिंग मिस्टेक हो गयी होगी तो पडेरना का पेंड्रा हो गया होगा क्योंकि आसपास के ज्यादातर बाकी जगहों के नाम बिलकुल अंग्रेजी नाम जैसे नहीं था. बहरहाल जो भी हो मुझे तमाम नामों में जो नाम सबसे ज्यादा मजेदार लगा वो था गौरेला. पता चला यहाँ गायों का रेला गुजरता था इसलिए यह गाँव हुआ गौरेला. है न दिलचस्प.
फिलहाल हम पेंड्रा के एक आलीशान भव्य गेस्ट हाउस में गए. वहीँ हमने वहां का स्वादिष्ट नाश्ता किया जिसमें गीला वड़ा (मटर की भाजी में वड़ा होता है जिसमें भुजिया, चटनी और कटी प्याज पड़ी होती है) और खोये और गुड़ की जलेबी थी. संजय यात्रा का शानदार साथी है. वो चीजों के बारे में जगहों के बारे में लगातार बताता चलता है. उसने बताया यहाँ की स्वादिष्ट मिठाइयों के बारे में. और कुछ ही देर में हमारे मुंह में पेंड्रा का स्वादिष्ट कलाकंद था, एकदम घुलता हुआ स्वाद.
हम अमरकंटक के रास्ते में थे...
आमाडोभ गांव, दीदी और सब्जियां-
रास्ते सुंदर से सुन्दरतम होते जा रहे थे. हम रास्तों का हाथ थामे अपने भीतर की यात्रा पर भी निकल चुके थे. हम साथ-साथ थे लेकिन हम अलग-अलग भी थे. ख़्वाहिश एकदम मौन थी. वो अक्सर यात्राओं में चुप रहना पसंद करती है. संज्ञा और मैं एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे थे. ये पानी की जगह है. यहाँ अभी प्रकृति अपने स्वाभाविक रूप में बची हुई है. संजय जगहों के बारे में जानकारी देते जा रहा था और हम ख़ामोशी की धुन पर उसकी बातों को सुन रहे थे.
रास्ते में हम आमाडोभ गाँव पहुंचे. वहां से हमें सब्जियां लेनी थीं. एकदम ऑर्गेनिक सब्जियां और भुट्टे. लेकिन ज्यादा लालच था वहां के लोगों से मिलने का. संजय बता रहे थे कि कैसे गाँव के, समुदाय के लोगों को जोड़ रहे हैं. गाँव में महिलाओं का जो समूह है वो सब्जियां आदि उगाता है और उन्हें सीधे उनसे खरीदकर उपयोग में लाया जाता है. समूह की एक सक्रिय सदस्य होती हैं जो पूरी प्रक्रिया को नेतृत्व देती हैं. उन्हें सक्रिय सदस्य के नाम से ही जाना जाता है. आमाडोभ की सक्रिय सदस्य हैं उमा दीदी.
गाँव से गुजरते हुए, लोगों से मिलते हुए और ताजा सब्जियां लेते हुए तस्वीरें लेते हुए मन में कहीं यह बात भी थी कि अपने ही देश को कितना कम जानते हैं हम. अपने ही देस में किसी टूरिस्ट की तरह आना सुख से तो नहीं भरता कि इन महिलाओं, इन बच्चों के सुख-दुःख में शामिल होना था हमें. चाहो कितना भी छूट ही जाता है न जाने कितना कुछ. आमाडोभ में हम थोड़ी ही देर ठहरे थे लेकिन यह गाँव पूरी ठसक के साथ अपनी स्मृतियां लिए ज़ेहन में काबिज है. हम ताज़ा भुट्टे, खीरे, कद्दू, बरबटी (लोबिया की खूब लम्बी और ताज़ा फली) को समेटकर आगे की यात्रा पर निकल पड़े थे. रास्ते भर हम बरबटी खाते रहे.
घुमक्कड़ी का सुर ठीक लग चुका था. मिजाज़ थोड़ा हरफनमौला होने लगा था.
ईको हिल रिसॉर्ट कबीर चबूतरा-
यूँ था तो कुछ ऐसा कि हर लम्हे पर दिल आ रहा था, चप्पे-चप्पे पर छाई खूबसूरत अपने मौन के संगीत के साथ लुभा रही थी. आत्मिक शान्ति हमारे भीतर उतर रही थी और आँखें प्राकृतिक छटा देखकर अभिभूत थीं. यूँ मैं पहाड़ों पर ही रहती हूँ. देहरादून न सही पहाड़ लेकिन पहाड़ आसपास ही रहते हैं हमेशा. लेकिन यह बात मैंने कश्मीर और हिमाचल की यात्राओं के दौरान जानी कि सारे पहाड़ एक से नहीं होते. हर पहाड़ का मन और मिजाज़ अलग होता है. मैंने पहली बार हिमाचल के पहाड़ देखे थे और मैं घबरा गयी थी. मुझे अब भी याद है मैंने वापस लौटकर उन्हें गर्व से उन्नत, दम्भी पहाड़ कहा था. फिर उत्तराखंड के पहाड़ों ने पास बुलाकर ऐसा दुलार किया कि मैं इन पहाड़ों में बस गयी. इनकी लाडली हो गयी. इसके बाद केरल, कश्मीर, स्कॉटलैंड, डरडल डोर (लन्दन) जाकर पता चला, कितना कम जानती थी मैं पहाड़ों के बारे में, उनकी कैफ़ियत के बारे में. अब भी कहाँ जानती हूँ ज्यादा. लेकिन इस वक़्त सामने जो पहाड़ थे ये तो किसी दोस्त सरीखे थे, न सांस उखड़े, न दम फूले. वो हाथ बढ़ाते हैं और आपको साथ लेकर चल पड़ते हैं. ठीक उसी तरह जैसे चल पड़ता है प्रेम. बस बढ़ी हुई हथेलियों को थाम भर लेने की देर है.
हम तो कबसे अपनी हथेलियाँ किसी की हथेलियों में रखकर मुक्त हो जाने को बेचैन थे. और देखो अमरकंटक और नर्मदा दोनों ने बाहें फैला दीं. हमने खुद को इन पहाड़ों, रास्तों, जंगलों और झरनों के सुपुर्द किया और आज़ाद हो गये.
जंगल से गुजरते हुए संजय ने बताया कि यह जगह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का बॉर्डर है. बच्चा छत्तीसगढ़ से बैटिंग करे तो बॉलर को मध्य प्रदेश जाना पड़े फील्डिंग के लिए. कितना रोचक है न यह सुनना. प्रकृति और बच्चे ही तोड़ते हैं सब सीमायें. लेकिन कागज पर खिंची लकीरों का नतीजा यह हुआ कि दोनों ही सरकारों ने इस जगह के बारे में ज्यादा सोचा नहीं.
हमारे ठहरने का इंतज़ाम ईको हिल रिसॉर्ट कबीर चबूतरा में था. मेरा मन रिसॉर्ट पढ़ने का किया ही नहीं मैंने सिर्फ कबीर चबूतरा पढ़ा और खुश हो गयी. मानो यहाँ कबीर से भी मुलाकात हो जायेगी. यूँ कबीर कब साथ नहीं होते. कुछ कबीरी सा मन लिए हमने रिसॉर्ट के कमरे में अपना सामान फेंका और चल पड़े तितलियों का मेला देखने, कुदरत का खेला देखने.
संजय ने कहा था किसी नदी में पाँव डालकर पूड़ी सब्जी खायेंगे, सो वो भी था मन में.
अचानक मार टाइगर रिजर्व-
जाने कैसा तो मन मिला कि हरदम बस खामखां के ख़यालों में गुम रहना चाहता है. जैसे ही कोई भरोसेमंद दोस्त साथ में होता है मैं अपने दिमाग का स्विच ऑफ कर देती हूँ और खुद को उसके हवाले कर देती हूँ. अभी तो संज्ञा, संजय और ख्वाहिश तीन समझदारों के बीच थी. तो यह समझदारी से आज़ाद होने का सही समय था. मेरा खिलंदड़ मन उछलकूद करने लगा था.
संजय दोस्त और गाइड की भूमिका में स्विच करता रहता था. तभी अचानक संजय ने गाड़ी रोकी. अभी तक संजय ने जब भी जितनी भी बार गाड़ी रोकी थी कुछ सुंदर कारण ही सामने मिला था. इस बार सामने था अचानक मार. यह टाइगर रिजर्व फॉरेस्ट है जहाँ बैगा (जनजाति) और बाघ साथ में रहते हैं. हम वहां कुछ देर रुके, तस्वीरें खिंचवायीं और अगली बार ठहरकर देखने की इच्छा को मन में संजोये आगे बढ़े.
रास्ते भर पानी की कलकल की आवाज़ सुनाई दे रही थी. रास्ते भर कोई मीठी धुन हमारे भीतर के खर पतवार को किनारे लगा रही थी.
तितलियाँ उड़ रही थीं पेट में-
हम जहाँ पहुंचे वहां हमें तितलियाँ दिखनी थीं लेकिन हमें आने में तनिक देर हो गयी थी. वो तितलियाँ हैं, वो उड़ती फिरती हैं किसी के इंतज़ार में ठहरती नहीं. तितलियों के दिखने का समय सुबह से दोपहर का होता है दोपहर बाद वो नहीं दिखतीं. शायद सोने चली जाती होंगी मैंने मन में सोचा. अब बीत चुके वक़्त को वापस तो नहीं ला सकते थे लेकिन जो वक़्त सामने था उसे सहेज सकते थे. एक पुल पर खड़े होकर मुझे गुलज़ार की वो लाइनें याद आईं, ‘वो देर से पहुंचा था पर वक़्त पर आया था.’
पानी की तासीर ऐसी है कि वो सब बहा ले जाता है. दुःख भी, उदासी भी, दुनियादारी भी. वो बस जीवन का रहस्य हथेलियों पर रखकर मुस्कुराता है. हमारा मन पानी हो चुका था.
हम कपिल धारा, दूधधारा, पंच धारा की ओर बढ़ चले...
धारा ओ धारा हमें संग ले लो न-
हम जिन रास्तों पर चलते हुए पंचधारा की ओर बढ़ रहे थे वो बेहद खूबसूरत थे. मेरे बालों में न जाने कितने जंगली फूल टंकते जा रहे थे. उन रास्तों पर हम सब चुप थे. सिर्फ नर्मदा की आवाज़, चिड़ियों की आवाज़ और वनस्पतियों की, पेड़ों की ख़ुशबू बोल रही थी. हम उस आवाज़ में खोये हुए थे. अचानक हमारे सामने एक बेहद खूबसूरत झरना आया. जहाँ इस यात्रा के अन्य सैलानियों से मिलना हुआ. वो सब उस झरने पर ठीहा जमाए हुए पूड़ी सब्जी का भोज सजाये थे. झरने की कल कल और सौन्दर्य ने थकान से कहा, ‘तुम जाओ अभी’. संज्ञा का उत्साह ऐसा कि वो आनन-फानन में झरने की गोद में जाकर बैठ गयी एकदम ऊपर. मन तो मेरा भी हुआ लेकिन आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी तभी संजय ने हाथ बढ़ाया. संजय की मजबूत हथेलियों में अपनी हथेलियाँ सौंपकर मैं यूँ आज़ाद हो जाती जैसे अब मुझे कुछ होगा ही नहीं जैसे वो कोई जिन हो. पर वो था जिन ही. ऐसे-ऐसे रास्तों पर आसानी से ले गया मुझे जहाँ के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. मैं कहती मैं नहीं जाऊंगी आगे और वो फिर हाथ थाम लेता और मैं उस पार खड़ी होती. चाहे पहाड़ चढ़ना हो, नदी पार करनी हो या पहुंचना हो झरने के उद्गम के एकदम करीब. कुछ यूँ हुआ भरोसे का कि जब किसी और ने हाथ बढ़ाया तो मैंने सिर्फ संजय को तलाशा. और वो हमेशा था.
तो संजय की मदद से मैं पहंच गयी संज्ञा के पास. और हमने दूर से दिखने वाले सुख को अंजुरी में अकोर-अकोर के पीना शुरू कर दिया.
तभी बारिश आ गयी. क्या ही सुंदर मंज़र था. किसी को भीग जायेंगे की फ़िक्र नहीं थी, कैमरे और मोबाइल बचाने की फ़िक्र थी. एक साथी ने सारे कैमरे मोबाईल संभाले अपने पास और रेनकोट से उन्हें छुपा लिया. बारिश में ही झरने के ठीक सामने एक पहाड़ी पर दुबक पर मैं संज्ञा, और ख़्वाहिश आलू पूड़ी खाने लगे. हम न खाते लेकिन प्यारी सी मुस्कान के साथ साथी सुधा ने जिस तरह हमें खाने के लिए मना लिया हम मान गए. यूँ इस समय हम जिस मनःस्थिति में थे हम किसी भी बात के लिए आसानी से मान जा रहे थे. तो सुधा ने हमें पूड़ी सब्जी दी खाने को. हरे पत्तों के दोने में खाने का अलग ही एहसास था. पूड़ी सब्जी अपनी रंगत और स्वाद के साथ पेट की भूख के संग बढ़िया जुगलबंदी कर रही थी. हम मुस्कुरा रहे थे ऐसा दिव्य भोज, सामने झरना, ऊपर बारिश, पहाड़ का आसन, हरियाली का साथ...ओओह दिव्य.
कपिल धारा और दूध धारा-
खूबसूरत हरे रास्तों के बीच अचानक रास्ता मुड़ा एक बेहद खूबसूरत दृश्य के सम्मुख. एक बेहद सुंदर जल प्रपात. ओह तो इसी की आवाज़ रास्ते भर साथ थी. जब नर्मदा अपने विवाह के मंडप से गुस्से में उठकर भागी थीं तो यहीं से भागी थीं. ये नर्मदा हैं मंडप से भागी नर्मदा, अपने आत्मसमान को सहेजती नर्मदा, लोगों के दिलों में धड़कती नर्मदा.
सौन्दर्य का ऐसा मंज़र देख मैं मंत्रमुग्ध थी. सब कुछ भूल चुकी थी. मेरा मन हुआ यहीं इसी दृश्य के सम्मुख मैं बैठी रहूँ घंटों धूनी रमाये.
लेकिन मैं भूल गयी थी मेरे साथ संजय था जो मेरे सोचे हुए सुख से बहुत आगे ले जाने को आतुर. ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों पर हाथ थामे वो आगे बढ़ने लगा. मैं हर कदम झरने के और क़रीब और क़रीब जा रही थी. जबकि ख़्वाहिश और संज्ञा मुझसे आगे चल रहे थे. फिर हम एक ऐसी जगह थे जहाँ होने का अर्थ था खुद को खो देना. सुख से हमारी आँखें बह निकली थीं. ऐसा तूफानी झरना कि उसकी फुहारों ने हमें अपने आगोश में पूरी तरह समेट लिया था. ऊपर देखते तो विशाल प्रपात दीखता सामने देखते तो प्रपात दिखता. ज़िन्दगी झरना हो गयी थी...हम झरने के ठीक नीचे अपने तमाम दुखों से झर रहे थे...तमाम पीड़ाओं से झर रहे थे...सुख के स्वाद से लबरेज हो रहे थे. हम नायक़ीनी में थे. उस पल में हम थे भी और नहीं भी...यह यात्रा का वह पल था जब कोई राग अपनी उठान पर होता है नि स रे ग... नि स रे ग... नि स रे ग... नि स रे ग...
लौटने का मन था ही नहीं. जैसे खींच के अलग किया जा रहा हो आँखों को प्रियतम से. बेमन से मुड़ मुड़ कर पीछे लौटते हुए हम लौट रहे थे...पर एक मन था जो वहीँ रह गया था.
हम गहरे मौन में धंसे थे...शब्दहीनता के जादुई लिबास में लिपटे.
ढलती शाम, सिंदूरी आसमान और चाय-
जानना अक्सर चीजों के जादू को कम कर देता है. मैं निर्बोध शिशु की तरह दुनिया को देखना चाहती हूँ. देखने के बाद उनके बारे में जानना और चकित करता है. लेकिन इसका कोई नियम नहीं कभी-कभी जानने के बाद देखना और ज्यादा चकित करता है. फ़िलहाल मैं अनभिज्ञ, अनजान सी आगे बढ़ रही थी.
शाम कांधों से आ लगी थी और एक अच्छी सी चाय की इच्छा आसपास टहल रही थी. कुछ देर बाद एक चाय की टपरी पर हम रुके. ज्यादा साथी चले गए जोहिला नदी के उद्गम को देखने, मैं और संज्ञा टहलने लगे उस जालेश्वर गाँव की छोटी सी चाय की टपरी के आसपास. मौन, हाथ में हाथ लिए बस साथ चलते हुए. इस मौन में क्या कुछ नहीं था. इस साथ चलने में कितना ज्यादा साथ होना था यह कहकर बताना मुमकिन नहीं.
जब तक दर्शनार्थी वापस आते हम जाती हुई शाम को अपने हथेलियों में थामे टहलते रहे. सिंदूरी आसमान और चाय की ख़ुशबू इकसार होने लगे थे. चाय सचमुच वैसी थी जैसी उसे होना चाहिए. एकदम स्वादिष्ट, अदरक वाली खूब पकी, कम दूध और कम चीनी वाली. संज्ञा के बैग में रखा मुरमुरा उस चाय को अच्छी संगत दे रहा था. कुछ देर में बाकी लोग भी चाय वाली उस चौपाल में जमा हो गए. मुझे और संज्ञा को एक और चाय पीने की इच्छा थी. हमने संकोच से देखा कि किसी के हिस्से की चाय कम तो नहीं हो जायेगी. आश्वस्ति के बाद हमने एक चाय और ले ली. ये चाय बड़ी राहत थी.
आगे का सफर शुरू हो गया था. एक दिन में कई दिन उग आये थे जैसे कि दिन बीत रहा था लेकिन बीत नहीं रहा था.
राजमेरगढ़ जंगल का जादू और चांदनी रात-
हम राजमेरगढ़ के जंगल की ओर थे. हर वो जगह बेहद खूबसूरत है जहाँ अभी पर्यटकों के पाँव ज्यादा पड़े नहीं. यह भी ऐसी ही जगह है. जंगल की ख़ुशबू मुझे बहुत ज्यादा पसंद है. मैं उस ख़ुशबू में डूबी ही थी कि मैंने देखा हमारे दोनों तरफ जंगल हैं लेकिन दाहिनी तरफ के जंगल उजाले से भरे हैं और बायीं तरफ के जंगल एकदम अन्धकार में डूबे. यानी वो इतने घने थे कि दिन में भी वहां घना अँधेरा था.
हालाँकि जब तक हम पहुंचे अँधेरा झरने लगा था. एक पहाड़ी पर जहाँ से हमें सनसेट देखना था वहां सब जाकर जमा हो गए. जैसे कोई धुन झर रही थी. अँधेरे का ऐसा सौन्दर्य कम ही देखने को मिलता है. अँधेरे की सुंदर बात यह होती है कि वो आपको जज नहीं करता आप जैसे हैं, जैसे भी हैं वो आपको समूचे अपनेपन से गले से लगा लेता है और मुक्त करता है. इस वक़्त यह अँधेरा बेहद कमनीय लग रहा था कि इसकी संगत में बैठे रहने को जी कर रहा था. तभी अनुराग ने मध्धम आवाज में गुनगुनाना शुरू किया, 'बड़े अच्छे लगते हैं...ये धरती ये अम्बर ये रैना...’ आवाज़ में सुर था, शाम में सुर था, जीवन का छूटा हुआ सुर बस क़रीब था कि वो शाम महकने लगी थी. अनुराग ने फिर कई गीत गुनगुनाये, कुछ और लोग भी इसमें शामिल हुए कि तभी इस संगत में शामिल आ गया कोई और भी...हाँ, पूर्णमासी का चाँद. जाने चाँद ज्यादा सुंदर था या रात ज्यादा सुंदर थी लेकिन हम उस चाँद को देख मुस्कुरा दिए. ‘आज तुम आये नहीं हो तुम्हें आना पड़ा है. न आते तो ऐसी खूबसूरत शाम को तुम मिस न कर देते भला, तो आओ और बैठे रहो चुपचाप.’
चाँद चुपचाप वहीँ आसमान पर उकडूं बैठ गया और सुनने लगा गीतों की धुन.
मुझे अली सेठी की तलब लगी, चांदनी रात बड़ी देर के बाद आई है...फिर मुझे फैज़ साहब की तलब लगी...अपनी तलब को समेटे श्रीमान चाँद की तस्वीरें लीं और लौट पड़े मुस्कुराते हुए.
लौटना, समेटना और जी लेना-
चाँद चुपचाप वहीँ आसमान पर उकडूं बैठ गया और सुनने लगा गीतों की धुन.
मुझे अली सेठी की तलब लगी, चांदनी रात बड़ी देर के बाद आई है...फिर मुझे फैज़ साहब की तलब लगी...अपनी तलब को समेटे श्रीमान चाँद की तस्वीरें लीं और लौट पड़े मुस्कुराते हुए.
लौटना, समेटना और जी लेना-
बीती रात से जो सफर शुरू हुआ था वो बस चले जा रहा था. रात खिसककर करीब आ चुकी थी. कमरे में जाकर रिफ्रेश हुए और लेटने को हुए ही थे कि गाने की आवाज़ कान में पड़ी. बाहर कैम्प फायर शुरू हो चुका था. दोपहर को उमा दीदी के पास से जो भुट्टे लाये थे अब कैम्प फायर में कोयले की मध्धम आंच पर उन्हें भूना जा रहा था. हल्की ठंडक, खूब थकान कैम्प फायर का सुख और भुट्टे की खुशबू ने भूख जगा दी थी. मैं और संज्ञा भुट्टे खाते जा रहे थे और गीत संगीत की उस महफ़िल में शामिल थे. चाय भुट्टे, आंच...पूर्णिमा की रात और प्रेमिल साथी.
खाने में थोड़ी देर थे और हमें कहाँ कोई जल्दी थी सो कभी हम आंच किनारे बैठते कभी कबीर चबूतरा के उस रिसॉर्ट में चक्कर लगाते. सर्द हवा और चीड़ के पेड़ों की आवाज़. प्रज्ञा दीदी के भेजे शॉल में खुद को समेटे हम जाने कितने बिखर रहे थे, इस बिखरने का शिद्दत से इंतज़ार था.
आज की रात को बीतने नहीं देंगे जैसा कोई वादा तो नहीं था लेकिन हो कुछ यूँ रहा था कि रात खुद रुकी हुई थी. इस बीच खाना बन गया था. दिन भर की थकन और भूख की जुगलबंदी कमाल हो रखी थी.
बाद मुद्दत हमने जमीन पर बैठकर पत्तल और दोनों में खाना खाया. गर्म स्वादिष्ट दाल चावल सब्जी रोटी अचार सलाद. यह एक दिव्य भोज था. अलग ही स्वाद था, अलग ही एहसास था. बचपन में गांव की शादियों में पत्तलों में खाने की मीठी याद ताजा हो उठी. तब खाने से ज्यादा परोसने का सुख हुआ करता था. जी करता था सबकी पत्तल में बस खाना देते ही जाएँ. कोई मना कर देता तो जैसे मन उदास हो जाता. वो दिन कितने सुंदर थे. फिर महाशय बुफे आ गये...और आते ही चले गये.
इस कबीर चबूतरा की तमाम स्मृतियों में इस रात्रि भोज का स्वाद और एहसास कभी नहीं भूलूंगी.
खाने के बाद हम फिर टहलने लगे थे. थकने के बावजूद रुकने का मन नहीं था. पूरे वक्त संज्ञा की नर्म हथेलियाँ मेरी हथेलियों में थीं, चीड़ों पर चांदनी थी भरपूर क्योंकि चाँद पूर्णमासी का था.
तुम्हारा इंतज़ार है-
आँख खुली तो हथेलियों पर सुबह चमक रही थी. सुबह ने मुस्कुराकर कहा, ‘उठो, बाहर निकलो कुदरत के नजारों को तुम्हारा इंतज़ार है.’ मेरी सुबहें तनिक देर से आती हैं. मुझे यात्राओं में देवयानी की याद आती है वो मुझे सुबह जगाने में माहिर है. उसके साथ जितनी सुबहें देखीं उतनी किसी के साथ नहीं. हम देर से सोये थे लेकिन जल्दी जागे. मैं जगी तो पता चला संज्ञा पहले ही जागकर सुबह से मिल चुकी है. फिर हम निकल पड़े सुबह से मिलने साथ में. घंटों हम सुबह के आंचल को थामे उसके पीछे-पीछे चलते रहे. आसपास की तमाम सड़कें हमने नाप लीं. हमें साथ होना था इसी तरह और हम साथ थे. हमारी हथेलियों का कसाव बढ़ता जाता था कदमों की लय मिली हुई थी. ज़िन्दगी मेहरबान थी हम पर कि डेढ़ दिन में हमें सदियाँ जीने को मिल रही थीं. कल दिन नहीं बीत रहा था, रात को रात नहीं बीत रही थी और अब सुबह.
सुबह को जी भरकर के जी चुकने के बाद हम अगले सफर की ओर बढ़ चले.
एक नदी थी दोनों किनारे थाम के चलती थी-
सुबह को जी भरकर के जी चुकने के बाद हम अगले सफर की ओर बढ़ चले.
एक नदी थी दोनों किनारे थाम के चलती थी-
लेकिन माई के उस मंडप तक पहुँचने के लिए एक नदी पार करनी थी. नदी ज्यादा गहरी नहीं थी लेकिन गहराई जितनी भी हो पानी का बहाव तेज़ था. लगा ये तो आसान होगा. लेकिन आसान था नहीं...पत्थरों पर फिसलन थी और पानी का बहाव तेज़. आखिर हमने एक-दूसरे का हाथ पकड़कर धीरे-धीरे उसे पार किया. पहाड़ियों, चट्टानों और हरियाली के बीच से गुजरते हुए न जाने कहाँ से ढेर सारी सीढ़ियाँ आ गयीं सामने. हम उतरते गये और एक बेहद सुंदर जगह जा पहुंचे. एक गुफा थी सामने पानी का झरना और पहाड़ी. गुफा के बीच में पानी. पतली संकरी सीढ़ियों से होते हुए हम गुफा के मुहाने पर जाकर एक पत्थर पर टिक गये. यही था माई का मंडप जहाँ नर्मदा का विवाह हो रहा था. यहीं वो मंडप सजा था जहाँ से वो उठकर भागी थीं और कपिल धारा का प्रपात बना था. वहां जो पहाड़ियां और पत्थर थे वो शादी के बर्तन थे. यह सब सुनना काफी रोमांचक लग रहा था. भले ही ये किवदन्तियाँ हों लेकिन मीठा था इन्हें सुनना.
मैंने महसूस किया कि नर्मदा एक ऐसी नदी है जिसके बारे में बात करते हुए लोग काफी भावुक होते हैं. ये भावुकता धार्मिक आस्था वाली नहीं बल्कि प्रेम वाली होती है. लोग ऐसे बात करते हैं जैसे अपने परिवार के किसी प्रिय जन के बारे में बात कर रहे हों. वापसी उन्हीं सीढ़ियों से...और फिर एक झरने के सामने. जैसे झरने और जंगल लुका-छुपी खेल रहे हों. जैसे कुदरत मुस्कुराकर अपने तमाम खजाने लुटाकर खुश हो रही हो. तभी तो झरने के पास थे और बारिश आ गयी. जब सब भीगने से बचने को एक शेड में रुक गए मेरा पनीला मन बेचैन हो उठा. मैंने सोचा बुखार का क्या है आएगा ही किसी न किसी बहाने अमरकंटक में बारिश मिलने आई है और मैं भीगूँ न? और मैं निकल पड़ी बारिश की ओर. पानी खूब बरसा, और खूब भीगी मैं. वैसे ही भीगे-भीगे हम लौटे पेंड्रा गेस्ट हाउस की ओर. यहीं मैंने हमने सूखे कपड़े पहने और चल पड़े एयरपोर्ट की ओर.
मन वापसी की ओर था लेकिन मन झरना हो गया था. हम लौट आये लेकिन वहीँ उन्हीं वादियों में कहीं छूट भी गए हैं. अब भी खुद को छूती हूँ तो सर पर बारिश महसूस होती है, पाँव तले हरी घास, हथेलियों में संज्ञा की हथेली और जंगल की ख़ुशबू और इन सबको संजोती संजय सैलानी की मुस्कान.
नर्मदा की कहानी-
नर्मदा नदी के बारे में कहा जाता है कि यह राजा मैखल की पुत्री थीं. नर्मदा के विवाह योग्य होने पर मैखल ने उनके विवाह की घोषणा करवाई. साथ ही यह भी कहा कि जो भी व्यक्ति गुलबकावली का पुष्प लेकर आएगा राजकुमारी का विवाह उसी के साथ होगा. इसके बाद कई राजकुमार आए लेकिन कोई भी राजा मैखल की शर्त पूरी नहीं कर सका. तभी राजकुमार सोनभद्र आए और राजा की गुलबकावली पुष्प की शर्त पूरी कर दी. इसके बाद नर्मदा और सोनभद्र का विवाह तय हो गया.
राजा मैखल ने जब राजकुमारी नर्मदा और राजकुमार सोनभद्र का विवाह तय किया तो राजकुमारी की इच्छा हुई कि वह एक बार तो उन्हें देख लें. इसके लिए उन्होंने अपनी सखी जुहिला को राजकुमार के पास अपने संदेश के साथ भेजा. लेकिन काफी समय बीत गया और जुहिला वापस नहीं आई. इसके बाद तो राजकुमारी को चिंता होने लगी और वह उसकी खोज में निकल गईं. तभी वह सोनभद्र के पास पहुंचीं और वहां जुहिला को उनके साथ देखा. यह देखकर उन्हें अत्यंत क्रोध आया. इसके बाद ही उन्होंने आजीवन कुंवारी रहने का प्रण लिया और उल्टी दिशा में चल पड़ीं. कहा जाता है कि तभी से नर्मदा अरब सागर में जाकर मिल गई. जबकि अन्य नदियों की बात करें तो सभी नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं.
एक अन्य कथा-
नर्मदा के प्रेम की और कथा मिलती है कि सोनभद्र और नर्मदा अमरकंटक की पहाड़ियों में साथ पले बढ़े. किशोरावस्था में दोनों के बीच प्रेम का बीज पनपा. तभी सोनभद्र के जीवन में जुहिला का आगमन हुआ और दोनों एक-दूसरे से प्रेम करने लगे. जब नर्मदा को यह बात पता चली तो उन्होंने सोनभद्र को काफी समझाया-बुझाया लेकिन वह नहीं माने. इसके बाद नर्मदा क्रोधित होकर उलटी दिशा में चल पड़ीं और आजीवन कुंवारी रहने की कसम खाई.