Thursday, April 28, 2011

कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें...



कोई शब्द नहीं उगे धरती पर,
किसी भी भाषा में नहीं,
जिनके कंधों पर सौंप पाती
संप्रेषण का भार
कि पहुंचा दो
सब कुछ वैसा का वैसा
जैसा घट रहा है मेरे भीतर,
कोई भी जरिया नहीं 
जिससे पहुंचा सकूं 
अपना मन पूरा का पूरा.
उदास हूँ
ये सोचकर कि
न जानते हुए भी
मेरे दिल का पूरा सच,
न जानते हुए भी कि 
सचमुच कितना प्यार है
इस दिल में
कितने खुश हो तुम
कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें
और कितना विशाल
मेरी चाहत का संसार...

9 comments:

  1. कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें
    और कितना विशाल
    मेरी चाहत का संसार...
    वाह बहुत अच्छी कविता !

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  2. कोई शब्द नहीं उगे धरती पर,
    किसी भी भाषा में नहीं,
    जिनके कंधों पर सौंप पाती
    संप्रेषण का भार
    कि पहुंचा दो
    सब कुछ वैसा का वैसा
    जैसा घट रहा है मेरे भीतर,
    कोई भी जरिया नहीं
    जिससे पहुंचा सकूं
    अपना मन पूरा का पूरा.


    बहुत ख़ूबसूरत प्रतिभा जी, नज़्म भी और ब्लॉग का नया तरोताज़ा लुक भी... आँखों को ठंडक और दिल को सुकून देता हुआ :)

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  3. वाह बहुत अच्छी कविता|धन्यवाद|

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  4. सुन्दर लेखन, गहरे भाव. बधाई ............. !

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  5. सचमुच कितना प्यार है
    इस दिल में
    कितने खुश हो तुम
    कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें
    और कितना विशाल
    मेरी चाहत का संसार...


    इस चाहत के संसार को कोई नहीं जान सकता ..बस इसे महसूस किया जाता है हर वक़्त ....आपने बहुत सुन्दरता से मन के भावों को सामने रखा है ..आपका आभार

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  6. न जानते हुए भी
    मेरे दिल का पूरा सच,
    न जानते हुए भी कि
    सचमुच कितना प्यार है
    इस दिल में
    कितने खुश हो तुम
    कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें
    और कितना विशाल
    मेरी चाहत का संसार...

    बहुत सुंदर। आसान शब्दों में मन की बात को उतारना बहुत ही कठिन है.. पर आपने कर दिखाया।

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  7. विशाल हृदय की आवश्यकतायें कम हो जाती हैं।

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  8. very nice it is really...
    "कितनी कम हैं तुम्हारी ख्वाहिशें..."

    बहुत - बहुत शुक्रिया ...


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  9. वाह! इतनी गहरी बात... सुंदर-सहज शब्दों में..

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