Thursday, April 5, 2018

मारीना मेरा पहला प्यार

जिसे आप प्यार करते हैं उस पर लिखना मुश्किल होता है. इसी मुश्किल के कुछ हिस्से 'समास 16' में प्रकाशित हुए हैं. यह शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक के अंश हैं. मुझ तक इन अंशों को पढने के बाद प्रतिक्रियाएं तो पहुँचती रहीं लेकिन पत्रिका जाने कैसे रास्ते भटकती रही, मुझ तक पहुंची नहीं. आखिर एक सैलानी काम आया, संजय सैलानी ने पत्रिका भेजी जो मुझे आज ही मिली है. यह मेरे और मारीना के प्यार की दास्ताँ है. समझने वाले समझते ही हैं कि प्यार की दास्ताँ जैसी भी हो हर बार पलकें नम कर जाती है. 


मरीना त्स्वेतायेवा (8 अक्तूबर १८९२- 31 अगस्त १९४१)

मरीना त्स्वेतायेवा रूस की एक महान कवियत्री हैं. ‘थे’ शब्द का इस्तेमाल मैं जानबूझकर नहीं कर रही हूँ कि मैंने जिस मारीना को जाना था वो अपने समय और काल को पार करके मुझसे मिली थी. पहली ही मुलाकात में उससे दोस्ती हो गयी थी और उसके बाद यह दोस्ती अब तक बनी हुई है. मेरी मारीना तस्व्तायेवा से दोस्ती करवाई थी डा वरयाम सिंह ने. उनकी पुस्तक कुछ ख़त कुछ कवितायेँ मैंने करीब १४ बरस की उम्र में पढ़ी थी. उस छोटी सी उम्र में मुझे क्या समझ में आया क्या नहीं लेकिन कुछ तो था जिसने जिन्दगी को देखने का, रिश्तों को समझने का, भावनाओं को महसूस करने का ढब ही बदल दिया. ‘जीवन में मुझे मुलाकातें अच्छी नहीं लगतीं, माथे टकरा जाते हैं, जैसे दो दीवारें. इस तरह भीतर जाया नहीं जाता. मुलाकातें मेहराब होनी चाहिए.’ या किसी के विचार तो पसंद हो सकते हैं पर उसके नाखूनों के आकार सहन नहीं भी हो सकता है. उसके स्पर्श का प्रतिउत्तर तो दिया जा सकता है पर उसके मूल्यवान भावों का नहीं. ये अलग लग क्षेत्र हैं. आत्मा आत्मा से प्रेम करती है, होंठ, होंठो से लेकिन अगर आप इन्हें मिलाने लगेंगे या मिलाने का प्रयास करेंगे ईश्वर न करे आप सुखी नहीं होंगे.

जिन्दगी के प्रति प्रेम से भरी एक बच्ची किस तरह बड़े होते हुए चीज़ों को देखती है, महसूस करती है, रूस की क्रांति के दिन, पहले और दूसरे विश्व युध्ध का समय, पिता ईवान व्लादिरिमोविच इतिहासकार और रूस के संग्रहालय के संस्थापक. पिता की दूसरी पत्नी से जन्मी मारिना और अनास्तासिया दो बहनें. पिता की पहली पत्नी से जन्मे आंद्रेई और वलेरिया के साथ उनके रिश्ते. माँ की उदासियाँ, बीमारियाँ, माँ की असमय मौत और इन सबके बीच मारीना का भटकता कवि मन. कमसिन उम्र का प्यार और विवाह. पति का व्हाइट आर्मी से जुड़ा होना, देश के बिगड़ते राजनैतिक हालात और जूझना आर्थिक हालात से भटकना दर ब दर. भूख से बचाने के लिए बेटी को अनाथालय में छोड़ने का निर्णय और उसकी मृत्यु, बेटी के अंतिम संस्कार में शामिल न हो पाना कि दूसरी बेटी को तेज़ ज्वर. फिर देश से बाहर जाना. निर्वासन के अनुभव, पीड़ा, संघर्ष. आखिरी सांस तक जिन्दगी के लिए/प्रेम के लिए शिद्दत से महसूस करना और अंत में छूट ही जाना सब कुछ.

मारीना जिन्दगी के प्रति आकंठ प्रेम से भरी थी. प्रेम ही उसके लिए जिन्दगी का दूसरा नाम था. उसे अपने लिखे में ही मुक्ति मिलती थी. जिन्दगी की कठोरतम परिस्थितियों में भी उसने लिखना नहीं छोड़ा. लिखना उसके लिए सांस लेने जैसा था. अपनी आखिरी साँस लेने से पहले भी वह लिख रही थी. वो लिखती थी डायरी, खत, कवितायेँ, संस्मरण. उसे बहुत जल्दी किसी से भी प्रेम हो जाता था...लेकिन प्रेम के मायने उसके लिए दुनियावी मायनों से बहुत अलग थे.

डा वरयाम सिंह ने मारीना से मुलाकात कराकर उससे और मिलने की उसे और जानने की प्यास को बढा दिया था. कई बरस तक ‘कुछ ख़त कुछ कवितायेँ’ ‘आयेंगे दिन कविताओं के’ और बाद में ‘बेसहारा समय में’ पढ़ती रही. (ये तीनों किताबें डा वरयाम जी के ही अनुवाद हैं) इस बीच कुछ संस्मरण लिखे मारीना पर जिसमें मैं उससे बातें करती थी, सवाल करती थी. इन्हीं सबके दौरान एक बार एक दोस्त ने कहा कि इतना ही प्यार है मारीना से तो मिल आओ न वरयाम जी से. वरयाम जी से मिलने की बात सुनते ही मेरी आँखें भर आई थीं. आखिर वही तो थे जिन्होंने हाथ पकडकर दोस्ती करायी थी मारीना से. 2009 में मैं जे एन यू गई वरयाम जी से मिलने. वो बहुत प्रेम से मिले, उन्होंने मेरे द्वारा मारीना पर लिखे छुटपुट संस्मरण पढ़े, मेरे और मारीना के प्रेम के किस्से सुने और कहा, ‘तुम करोगी मारीना पर काम.’ ये उनका प्यार था कि उन्होंने मारीना पर रूसी भाषा वाली काफी किताबें मुझे दीं. मेरे लिए रूसी भाषा की वो किताबें सिर्फ कुछ काले अक्षर भर थीं फिर भी उन अक्षरों को छूते हुए महसूस करना था मारीना को उसकी भाषा में.

वरयाम जी ने जे एन यू मारीना पर सामग्री तलाशने में मदद की. मारीना को जितना जाना और जानने की इच्छा होती गयी. उसके और मेरे दरम्यान न सिर्फ सौ साल से अधिक का फासला था बल्कि बल्कि भाषाएँ भी दीवार थीं. जानकारियां आधी अधूरी ही मिलती रहीं. एक जगह से मिली जानकारी दूसरी जगह से मिली जानकारी से अलग होती तो मुश्किल और बढ़ जाती. ऐसे में मेरी सारी दुविधा को दूर किया मारीना ने ही कि मैंने उस पर किताब नहीं उसके बारे में इकठ्ठी की गयी जानकारियों पर आधारित कुछ संस्मरण लिखे. प्यार से. वो लगातार एक दोस्त की तरह इस पूरी यात्रा में मेरे पास रही, मेरे साथ रही.भाषा हमारे दरम्यान एक ही थी प्रेम की. तथ्य हो सकता है कुछ ऊपर नीचे हो गए हों लेकिन उसके भाव बचाए रखने का पूरा प्रयास किया है. उसे भाषा से पार जाकर, देश की सीमाओं से पार जाकर सुनने का, उसके लिखे को महसूस करने का प्रयास किया है. इसीलिए इसे नाम दिया है.’मारीना मेरा पहला प्यार’. उसके जीवन का जो टुकड़ा यहाँ दिया है उसका संदर्भ इतना है कि रूस से निर्वासित होकर जब मारीना पराये देशों में भटक रही थी, जिन्दगी के टुकड़े समेट रही थी तो बीच में कुछ हिस्सा प्राग में भी बीता. ये प्राग में बीते उसके दिनों की झलक है. ये अंश संवाद प्रकाशन से प्रकाशित होकर जल्द आने वाली पुस्तक ‘मारीना त्स्वेतायेवा मेरा पहला प्यार’ से हैं.



3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (07-04-2017) को "झटका और हलाल... " (चर्चा अंक-2933) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, होनहार विद्यार्थी की ब्रांड लॉयल्टी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Anonymous said...

I have read so many content regarding the blogger
lovers but this paragraph is really a nice article, keep it up.