Friday, May 31, 2013

रात गुलज़ार के संग काट आयी, बाबुषा


कुछ लोग बड़े सलीके से जिन्दगी की नब्ज को थामते हैं। सहेजते हैं घर के कोने, तरतीब से सजाते हैं ख्वाब पलकों पर. सब कितना दुरुस्त होता है उनकी जिन्दगी में लेकिन एक रोज जिन्दगी उठ के चल देती है और आ ठहरती है कुछ बीहड़, अस्त व्यस्त, बेफिक्र अलमस्त लोगों के दरवाजे पर. कुछ इस तरह जैसे कोई दरगाह पर  ठौर पाता है। जिदंगी को ठेंगे पर रखने वाले लोगों के आँचल में ही जिन्दगी को भी पनाह मिलती है। वो जब जब दर्द से सराबोर होती है तो उँगलियों से लहू रिसता है पन्नों  पर और न जाने कितनी रूहें भीग जाती हैं। कितना सहना पड़ता है न बेसलीका होने के लिये. उसकी दोनों हथेलियों को थामे हुए बैठी हूँ और देख रही हूँ कि बेसलीका सी इस लड़की ने भले ही किचन संभालना न सीखा हो लेकिन किचन से लेकर घर का हर कोना सँभालने वालों को वो किस तरह एक आवाज से संभाले हुए है. कौन कहता है मोहब्बत से पेट नहीं भरता, यहाँ तो रोटी, पानी, दवा, दारू सब मोहब्बत से ही चले जा रहा है, बिंदास चले जा रहा है. आज इस वक़्त उसकी हथेलियों की गर्मी की महसूस करते हुए, उसकी रूह की नमी में डूबते उतराते हुए बड़े बेमन से यही दुआ देती हूँ कि खुदा तेरे दर्द में कोई कमी न रखे।
 आज उसी की एक नज़्म आस पास रेंग रही है. - प्रतिभा 











"नहीं, तुम 'माया' तो नहीं !
उसके कान का बुंदा हो तुम तो, बाबुषा
जो महेंदर की क़मीज़ से लिपटा पड़ा है"
कहते हुए निकल गया सड़कों का मसीहा

रातें जो रात सी नहीं, सुफ़ैद सी हैं
ये धुंध है, कुछ और नहीं, सिगरेट की है
कहता है, फेफड़ों में नहीं भर सका तुम्हें
जलती हो, कोयले वाली कच्ची आग हो जैसे
सो यूँ किया कि साँसों से बाहर किया तुम्हें
जो धुंध पड़ी, क्या गुनाह है, बाबुषा ?

हह !

धूप चढ़ते ही तो बह जाएगा ये नाम मेरा
कार के शीशे पे लिक्खा हुआ यूँ 'बाबुषा'
हाँ, अब जाओ तुम तो ढूँढू अलमारी में
गुमी क़मीज़ जिस पे उलझा है इक बुंदा
सुनो, क़सम है तुम्हे मेरी, यूँ सरे-महफ़िल
तड़प के अब न कभी कहना तुम, 'बाबुषा'


11 comments:

vandana gupta said...

nishabd

Pallavi saxena said...

wow gazab ka likha hai aapne pratibha ji ...upar se yh kamaal ki nazam mazaa gaya...:)

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर
आपके ब्लाग पर आना हमेशा सार्थक रहता है।

vijay kumar sappatti said...

amazing writing , speechless .
words are from some other planet. babusha writes so well that i am lost many times in her words and now you .your writing equally creates a spell on me and my writing too.
it inspires me to fine-tune my writing.
thanks Pratibha. GOD bless you.

ANULATA RAJ NAIR said...

excellent!!!!

anu

Guzarish said...

बहुत खूब प्रतिभा जी बधाई

बाबुषा said...

इजाज़त कितनी बार देख चुके हैं अब याद भी नहीं. अचानक एक रात माया बेतरह याद आयी. सुबह उठते ही बेड टी के साथ उस इसे दनदना के लिख डाला कोई दस मिनट में ही. तुम्हें फ़ोन पर सुनाया हाथ में एक बुंदा झुलाते हुए. फोन करने वाली बाबुषा नहीं, माया थी. ओ ओह ! न न ..नहीं ! तुम माया तो नहीं..उसके कान का बुंदा हो तुम तो बाबुषा..

प्यार प्रतिभा को.

संजय भास्‍कर said...

नमस्कार !
बहुत सुंदर
जरूरी कार्यो के ब्लॉगजगत से दूर था
आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ

Unknown said...

अति सुन्दर भावभीनी अभिव्यक्ति । बधाई । सस्नेह

Admin said...
This comment has been removed by a blog administrator.
freejobsarkariss.blogspot.com said...

one of the best artical i am reading your artical thanks People rojgar