Saturday, December 31, 2011

स्वाति...अंतिम किश्त

(अचानक स्वाति के मुंह का स्वाद कसैला हो उठा.
क्या हुआ मैम, कॉफी अच्छी नहीं बनी क्या?
वैभव ने पूछा तो स्वाति मुस्कुरा दी. अच्छी है. बहुत अच्छी.
आपको देखकर ऐसा नहीं लगता. वैभव ने फ्रैंकी को कुतरते पलकें नीचे किए हुए ही कहा.
स्वाति चुप रही.)


आगे...
मैम एक बात कहूं अगर आप बुरा न मानें तो?
वैभव ने संकोच के साथ कहा.
स्वाति चुप ही रही.
मैं छोटा हूं आपसे फिर भी कहता हूं मैम आप परेशान न रहा करिये. अच्छा नहीं लगता.
स्वाति ने पलकें उठायीं. वैभव उसी तरह फ्रैंकी को कांटे से काटने की झूठमूठ की कवायद कर रहा था.
क्या हुआ? स्वाति ने उसकी आंखों में देखना चाहा. मैं हूं. तुम्हें क्या हुआ?
स्वाति ने वैभव की आंखों में कुछ बादलों के टुकड़े तैरते देखे.
कुछ नहीं. वैभव ने खुद को छुपाना चाहा.
अरे...स्वाति को माजरा कुछ समझ नहीं आया.
मैं ठीक हूं वैभव. डोंट वरी. आई एम फाइन. तुम मेरी इतनी चिंता क्यों करते हो?
उसने प्यार से वैभव के बालों पर उंगलियां फिरा दीं.
एक बात बतायेंगी...?
वैभव ने सर झुकाये-झुकाये ही कहा.
क्या?
स्वाति अपनी आवाज को यथासंभव हल्का बनाने की कोशिश कर रही थी. असल में वो किसी इमोशनल क्राइसिस में अब नहीं पडऩा चाहती थी.
आपका डिवोर्स क्यों हुआ? आप जैसी स्त्री के साथ कैसे नहीं निभा पाया कोई...कहते-कहते वैभव की आवाज डूबने सी लगी.
हो सकता है मैं ही न निभा पाई हूं. और डिवोर्स इतनी बुरी चीज भी नहीं है कि उसके चार बरस बाद भी उसका मातम मनाया जाए.
बल्कि मेरे लिए तो यह जिंदगी जीने के दूसरे मौके जैसा है. मैं खुश हूं
लेकिन आपके आसपास उदासी की एक पर्त रहती है. मुझे लगता है आप दुनिया की सारी खुशियों की हकदार हैं. दुख आपको छूकर भी नहीं गुजरना चाहिए. कभी भी नहीं. इस बार वैभव की आवाज वाकई रुंध गई थी.
वैभव....आई एम फाइन.
स्वाति को अचानक तृप्ति की बात याद आ गई कि वैभव का क्रश है आप पर. अरे हां, यह बात तो वैभव की फियांसी शांभवी ने भी उससे कही थी. तो क्या सचमुच. स्वाति हैरत में थी. वैभव...जस्ट अ लिटिल किड...वो मन ही मन सोच रही थी.
बट आई एम नॉट फाइन. आप बताइये ना क्या हुआ था?
कहां क्या हुआ था?
आपका डिवोर्स क्यों हुआ?
जाने दो ना वैभव. वो बीता हुआ कल है. मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है. एक रिश्ता था जिसे प्यार से सींचा था. फिर वो जाने कैसे रिसने लगा. उस रिसने में हम भी रिसने लगे. और तब हम अलग हो गये. बस. रिश्ते जब जिंदगी पर भारी पडने लगें, तो उनसे आजाद होना जरूरी है. मुझे रवि से कोई शिकायत नहीं है. वाकई.
स्वाति खुद हैरत में थी कि वैभव को वो इस तरह क्यों कनविंस कर रही है. अचानक उसे महसूस हुआ कि वो वैभव को नहीं खुद को कनविंस कर रही है शायद.
जब हम दूसरों से बात करते हैं, तो खुद से भी तो बात करते ही हैं. स्वाति अपनी ही आवाज को बार-बार सुन रही थी.
अब मैं चलती हूं वैभव. काफी देर हो गई है. स्वाति ने सैंडल पहनते हुए कहा.
मैं आपको छोड़ दूं? वैभव ने पूछा.
अरे नहीं. मैं चली जाऊंगी.
रात के एक बज रहे हैं मैम. आपका अकेले जाना ठीक नहीं है.
इट्स ओके. मुझे कुछ नहीं होगा. वैसे भी अब मुझे अकेले ही चलने की आदत हो चली है.
उसने वैभव के गाल थपथपाये. मेरी चिंता मत किया करो बच्चे.
जी. वैभव ने अपनी न$जरें उसके चेहरे पर टिका दीं. अब भी उन आंखों में बादल तैर रहे थे.
स्वाति ने उसके चेहरे से अपनी न$जरें हटा लीं.
रास्ते भर उसके दिमाग में रवि, वैभव और आनंद गड्डमगड्ड होते रहे. उसकी आंखों में भी कई बादल तैरने को आतुर हो उठे.
तनहाई की ये कौन सी मं$िजल है र$कीबों.......कार के म्यूजिक सिस्टम पर यह ग$जल बाई डिफाल्ट बजे जा रही थी. स्वाति ने झटके से टर्न लिया तो ग$जल की तनहाई को मानो खरोंच आ गई.
ओ आनंद. व्हेयर आर यू...उसके मुंह से अनायास ही निकल गया. उसे आनंद बेतरह याद आ रहा था.
न चाहते हुए भी उसकी कार उस बिल्डिंग के सामने खड़ी थी. दुनिया जिसे उसका घर कहती थी. अपार्टमेंट की ऊंची दीवारें ऊंघ रही थीं. वॉचमैन के हिस्से की जिम्मेदारी चांद ने अपने सर ले रखी थी.
तेरस का चांद, स्वाति देखकर मुस्कुराई.........मुस्तैद पहरेदार. गाड़ी का हॉर्न सुनकर वॉचमैन ने दौड़कर गेट खोला.
बोझिल कदमों से वो कमरे की तरफ बढ़ी. कमरे का लॉक खोलने को हुई तो देखा आनंद ऑलरेडी कमरे में है. उसे हैरत भी हुई और खुशी भी. न जाने क्यों इस पल उसे आनंद का यूं कमरे में होना दुनिया की सबसे बड़ी नेमत का होना लगा. आनंद की शायद आंख लग गई थी इंतजार करते-करते.
दरवाजा खुलने की आवाज से वो हड़बड़ा कर उठा. अरे, आ गईं तुम. उसने मुस्कुराकर स्वाति का वेलकम किया.
स्वाति बदले में सिर्फ मुस्कुराई.
कुछ खाओगी?
आनंद ने बिस्तर से उठने का उपक्रम करते हुए पूछा.
नहीं, रहने दो. स्वाति ने उसे रोका.
तुम कब आये?
दो घंटे हो गये.
फोन कर देते.
मैंने सोचा क्यों डिस्टर्ब करूं. काम हो जायेगा तो आ ही जाओगी.
स्वाति आनंद की बाहों में गिरकर रो लेना चाहती थी. कितना दर्द देता है ये आदमी. इसे क्या सचमुच पता नहीं. दर्द की एक लकीर उसके चेहरे पर खिंच गई जो आनंद को न$जर आ गई शायद.
परेशान हो?
नहीं तो...स्वाति ने अपना चेहरा सख्त रखते हुए कहा.
काम कैसा रहा?
ठीक.
उन दोनों के भीतर क्या चल रहा था क्या नहीं लेकिन जो कुछ भी था वो संवादों में तो बिल्कुल नहीं था. स्वाति बाथरूम में चेंज करने गई तो आनंद ने सिगरेट सुलगा ली.
वो अनमनी सी रात थी. जो कहा जाना था वो कहीं मौन में रख छोड़ा था दोनों ने. संवादों में वे खुद को ढंक रहे थे.
स्वाति लौटी तो किचन में बेवजह चली गई.
बड़ी देर तक वहीं खड़ी रही. उसकी आंखें बार-बार भर आ रही थीं और वो आनंद को अपने आंसू नहीं दिखाना चाहती थी.
क्या कर रही हो? आनंद ने पूछा.
कुछ नहीं दवा ढूंढ रही हूं.
फिर से दर्द उठा है क्या?
हां.
तुम अच्छे फिजीशियन को दिखा लो यार. ये रोज-रोज का दर्द ठीक नहीं है.
स्वाति चुप रही. वो जानती है उसके दर्द का इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है.
आखिर आनंद ने किचन में जाकर स्वाति को उसके आंसुओं के साथ पकड़ ही लिया.
क्यों इतना परेशान रहती हो. मैं हूं ना?
आनंद ने उसका चेहरा अपनी ओर किया. आंसुओं से भरा चेहरा.
आनंद के इतना कहते ही स्वाति का अब तक संभाला, सहेजा सारा धीरज छूट गया. कल रात से बूंद-बूंद उसने खुद को सहेजा था. कल रात से ही क्यों न जाने कितने बरसों से. नहीं रोयेगी वो कभी किसी के सामने तय किया था उसने...लेकिन आज सब छूट गया.
आनंद की एक छुअन ने उसे उससे ही अजनबी कर दिया. उस रात स्वाति ने खुद को अपने आंसुओं से मांजा था और आनंद के प्यार से चमकाया था.
सुबह के चार बज रहे थे और खिड़की के शीशे के पार से चांद उन दोनों को देखने की जुगत में ताकाझांकी कर रहा था.
स्वाति की उंगलियां आनंद की पीठ पर अपना नाम लिख रही थीं. यह उसका प्रिय काम है. आनंद को इसकी आदत है. वो कई बार कुछ और लिखती है और आनंद से बूझने को कहती है बोलो क्या लिखा? आनंद अक्सर गलत ही बूझता था बस जब वो स्वाति लिखती तब वो झट से बूझ लेता था.
चलो मेरा नाम तो पढ़ लेते हो अपनी पीठ पर. स्वाति चुपके से उन अनलिखे अक्षरों पर एक चुंबन रख देती. ये सरकारी मुहर लग गई है आप पर हमारी. समझे.
समझ गया. आनंद हंस देता.
सुनो. आनंद ने उसे खींचकर अपनी बाहों में लिया.
बोलो. स्वाति ने उसकी नाक पकड़ते हुए कहा.
ध्यान से सुनो मेरी बात. ध्यान से.
मैं तुम्हारी बात ध्यान से ही सुनती हूं...बोलो. नाक पकड़े होने के कारण आनंद की आवाज काफी कॉमिक हो रही थीे और स्वाति का हंसते-हंसते पेट फूला जा रहा था.
मजाक बंद करो. ध्यान से सुनो मेरी बात. आनंद ने उसका चेहरा अपने चेहरे के एकदम करीब लाते हुए कहा.
मैं अमेरिका जा रहा हूं. एक साल के लिए.
मैंने जिस रिसर्च के लिए अप्लाई किया था उसमें मेरा सिलेक्शन हो गया है.
अचानक उस कमरे में बड़ा सा मौन दाखिल हो गया. स्वाति एकदम खामोश हो गई.
ये क्या है, खुशखबरी?
स्वाति ने हैरत से पूछा?
जो भी है तुम्हें जानने का हक है.
स्वाति चुप रही.
हक? सिर्फ जानने का?
स्वाति मन ही मन हंसी.
आरती भी जा रही है?
आनंद चुप रहा.
यानी जा रही है. स्वाति ने आनंद के मौन को बांचा.
तुम्हारी बच्चे वाली ख्वाहिश का मैं क्या करूं बोलो? स्वाति मेरी जान, उन सपनों में खुद को मत भटकाओ जिनके देखने से आंखें दुखने लगें. तुम्हारा काम तुम्हें ऊंचाइयां देगा. तुम्हें भरेगा. अंदर से, बाहर से. बच्चे वच्चे के बारे में सोचना बंद करो. मेरे बारे में भी. अपने बारे में सोचो. सिर्फ अपने बारे में. आनंद बोले जा रहा था, स्वाति उसे सुन नहीं पा रही थी. बस देख रही थी. बीच में एक नदी उफना रही थी, जिसे स्वाति पार करके आनंद के सीने से लग जाना चाहती थी. लेकिन नदी का प्रवाह इतना तेज था कि स्वाति को आनंद के करीब पहुंचने ही नहीं दे रहा था. रात के साथ न जाने क्या-क्या गुजर गया था उस रोज.
सुबह एकदम खाली हाथ आई थी. स्वाति ने कॉफी का पानी चढ़ाया. कॉफी की खुशबू फैल रही थी. उसी खुशबू के बीच उसने अभी-अभी जाग रहे शहर को देखा. एक औरत अपने बच्चे के साथ सड़क पार कर रही थी. एक बूढ़ा अखबार पलट रहा था. बच्चे स्कूल जा रहे थे. अचानक स्वाति को लगा कि सड़क पर बच्चे ही बच्चे हैं...छोटे-बड़े बच्चे ही बच्चे. लड़कियां लड़के. पूरा शहर बच्चों से भर गया है. बच्चों की खिलखिलाहटों से गूंज उठा है. उसे यह मंजर अपनी किसी फिल्म का दृश्य सा लगा. चाय की सिप लेते हुए उसने आइने में अपना चेहरा देखा, उसे वहां भी बच्चा न$जर आया. अचानक वो मुस्कुरा उठी.
कंट्रासेप्टिव पिल्स अब भी फ्रिज पर पड़ी थीं...
तभी मोबाइल पर वैभव का मैसेज चमका.
गुड मॉर्निंग मैम...


4 comments:

सागर said...

बेहतरीन....नव वर्ष की हार्दिक शुभकानायें...

Arunesh c dave said...

आपको और परिवारजनों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ|

आनंद said...

वाह ! आज पहले हिस्से को भी फिर से पढ़ा पूरी कहानी एक साथ पढ़ने का मज़ा ही अलग था...अच्छा किया आपने जो वैभव के रूप में एक उम्मीद को जिन्दा रखा ...बहुत दिनों तक यह कहानी गूंजेगी अभी तो जेहन में ! असीम गहराई के साथ लिखती हैं आप प्रतिभा जी ... और भावनाओं को उकेरने में आपको महारत हासिल है !

***Punam*** said...

प्रतिभा.....
कुछ दिनों से आपको पढ़ रही हूँ और पढ़ते पढ़ते खो जाती हूँ कहीं....इसलिए नहीं पढ़ती कि उस पर अपने कमेन्ट देने हैं शायद इसीलिए इतने दिनों से मैं आपके कमेन्ट बॉक्स से बाहर हूँ...!! वैसे कमेन्ट बड़ा अजीब सा वर्ड लगता है....मैं ज्यादातर अपने विचार ही देती हूँ सबको....!! कहानी हो या कविता ..दोनों में महारत हासिल है आपको..!! स्वाति के चरित्र में एक एकाकी युवा लड़की के भावों को इतने सजीव रूप में दिखाया है कि मन अपने आप उस कहानी में खुद को जीने लगता है..!
और इस तरह की कहानी का अंत इतना सुखद भी हो सकता है...किसी किसी के समझ से परे भी होगा...!!
ये मेरा अपना विचार है.....!! शुक्रिया...इतना बढ़िया लिखने के लिए..!!