Wednesday, July 29, 2020

खिलना और झरना


उगना ही झरना है, सुबह ही शाम है, रात ही में दिन छुपा है, उदासी सुख का ही दूसरा रूप है. जब फूल को देखते हैं तब हमें जड़ें नहीं दिखतीं. यह जड़ें नहीं दिखना ही कारण है दुःख का. यानी दुःख दुखना नहीं है, दिखना है. इन दिनों जीवन बहुत करीब आया हुआ लगता है. बहुत करीब, जैसे काँधे से सटकर बैठा हो. 

बोलती कम हूँ इन दिनों. अब सुनना भी कम होता जा रहा है. बात सुनती हूँ, आवाज नहीं. दिल की धडकनें कैसे बिना शोर किये हजारों मील की दूरी पार कर सुनाई दे जाती है और नहीं सुनाई देती पास में घनघनाते फोन की घंटी. 

जीवन की मेहरबानी है. वो न जाने कितने रास्तों से चलकर आता है. कई बार मृत्यु के रास्ते भी चलते हुए वो हम तक आता है. कभी भय के रास्ते भी. लेकिन वो आता है और यही सच है. दिक्कत सिर्फ इतनी है कि हम उसी के इंतजार में कलपते रहते हैं जो हमारे बेहद करीब है. यानी जीवन, यानी प्रेम. वो तो कहीं गया ही नहीं, और हम उसे तलाशते फिर रहे हैं. कारण हम जीवन को पहचानते नहीं.

जीवन फाया कुन है...जिस मृत्यु का डर है, जिस मृत्यु से डर है वो बिना जीवन आये कैसे आएगी...तो मृत्यु से डरने से पहले खुद से पूछना जरा कि जिंदा हो क्या? सिर्फ साँसों के बूते जवाब मत तलाशना...जीवन के बारे में सांसें नहीं बतायेंगी, जीवन खुद बतायेगा जैसे मृत्यु के बारे में वो खुद बतायेगी...

जीना जीने से आता है...मरना मरे बगैर भी आ ही जाता है कि एक ही ज़िन्दगी में कितनी बार तो मरते हैं हम. शायद जितना जीते हैं उससे भी ज्यादा. क्या लगता है?

खिलना और झरना एक साथ देखते हुए जीना सीख रही हूँ...

Sunday, July 26, 2020

Saturday, July 25, 2020

सत्ता गई, कवयित्री बची रही


 - प्रियदर्शन
बीसवीं सदी के शुरुआत में उभरी रूसी कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा का जीवन बहुत त्रासद रहा। वह एक कुलीन परिवार में जन्मी, भावावेग से भरी कवयित्री थी। उसके पति सेर्गेई अपने प्रारंभिक वर्षों में वाइट आर्मी में थे, यानी जार के साथ। बेशक, बरसों बाद उनके सोवियत सीक्रेट एजेंट होने की बात निकली, लेकिन जेल और यातनाएं तब भी उसकी जिंदगी में बने रहे। बहुत सारे निजी पारिवारिक कष्टों के बीच रूस की उथल-पुथल में मारीना का सब-कुछ नष्ट होता चला गया। वह करीब डेढ़ दशक रूस के बाहर रहने को मजबूर हुई। बरसों वह खाने को मोहताज रही। ऐसी भी नौबत आई कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए उसे कपड़े मांगने पड़े। एक बार जूते फट जाने की वजह से वह एक कार्यक्रम में नहीं जा पाई। उसकी एक बेटी अनाथालय में भूख से मर गई।

यह हिला देने वाली कहानी किसी ऐसी कवयित्री की नहीं है, जिसे कोई न जानता हो। मारीना को मायाकोव्स्की जानते थे, पास्तरनाक और रिल्के उससे प्रेम करते थे, अन्ना अख्मातोवा उसकी दोस्त थी, ब्लोक और गोर्की उसके काम से परिचित थे। रूस और रूस के बाहर बहुत सारे लेखक उसके लेखन से खूब वाकिफ थे।

लेकिन रूसी क्रांति के बाद, खासकर स्टालिन के लंबे दौर में जिन लोगों ने रूस में साहित्य-संस्कृति के संरक्षण का बीड़ा उठाया था, वे अपने विचारधारात्मक आग्रहों के दबाव या फिर स्टालिन के आतंक की वजह से मारीना की मदद करने को तैयार नहीं हुए। बरसों बाद जब मारीना रूस लौटी तब उसके हालात बुरे होते चले गए और एक इतवार अवसाद और तनाव के बीच उसने खुदकुशी कर ली। मारीना को सोवियत सत्ता प्रतिष्ठान ने भुला देने की बरसों कोशिश की, लेकिन स्टालिन की मौत के बाद जब वहां व्यवस्था में कुछ लचीलापन लौटा तो सत्तर के दशक में मारीना का काम नए सिरे से प्रकाश में आया।

यह सारी कहानी हिंदी की एक कवयित्री प्रतिभा कटियार ने लिखी है। हिंदी में इसके पहले मारीना त्स्वेतायेवा का काम वरयाम सिंह के अनुवाद में कुछ चिट्ठियां कुछ कविताएं नाम से पहले आ चुका है। दरअसल प्रतिभा का मारीना से पहला परिचय इसी किताब के जरिए हुआ। लेकिन मारीना की कोई संपूर्ण जीवनी हिंदी में पहली बार लिखी गई है। खास बात यह है कि इस जीवनी में जितनी वस्तुनिष्ठता है उतनी ही आत्मनिष्ठता भी। प्रतिभा कटियार जैसे बीच-बीच में अपनी प्रिय कवयित्री से बतियाती चलती है। अलग-अलग अध्यायों के अंत में छोटी-छोटी ‘बुक मार्क’ जैसी टीपें पूरी किताब को आत्मीय स्पर्श ही नहीं देतीं, यह भी बताती हैं कि कैसे किसी दूसरे देश और दूसरी सदी की कवयित्री के साथ कोई लेखिका ऐसा सख्य भाव विकसित कर सकती है जिसमें वह बिलकुल उससे संवादरत हो, बारिश में उसके साथ चाय पीने की कल्पना करे और उसके दुख से दुखी हो। दरअसल किताब इसी संलग्नता से निकली है, इसलिए छूती है।

हालांकि किताब के कुछ अध्याय और बड़े होते तो अच्छा होता। खासकर रूसी क्रांति के समय की उथल-पुथल के बीच होने वाले सांस्कृतिक विस्थापन की विडंबना को और पकड़ने की जरूरत थी। किताब में प्रूफ और संपादन की असावधानियां भी खलती हैं। लेकिन ऐसे खलल के बावजूद यह हिंदी के समकालीन संसार की एक महत्वपूर्ण किताब है। हिंदी में ऐसी जीवनियां कम हैं। इसकी मार्फत एक विलक्षण कवयित्री के त्रासद जीवन पर और इस जीवन की मार्फत साहित्य और सत्ता के अंतर्संबंधों से बनने वाली विडंबना पर भी रोशनी पड़ती है।

Sunday, July 19, 2020

नींद

आधी गोली
पूरी नींद का चक्कर लगाने के बाद
घुटने टेक देती है

पूरी गोली
आधी नींद से दोस्ती कर
सुस्ता लेती है

बची हुई आधी नींद
भटकती फिरती है
सुकून की तलाश में

सुकून जो उधडा पड़ा है...

Friday, July 17, 2020

हत्या से पहले का आत्म


कुछ कहना चाहती हूँ
फिर लगता है सब कहा जा चुका है

तो सब कहे जा चुके को सुनने पर ध्यान लगाती हूँ
और ध्यान बिना कहे हुए को सुनने की ओर चल पड़ता है

उन आवाजों की ओर जिनके पाँव नहीं
उन आवाजों की ओर जो
भटकती रहती हैं देह के भीतर
जेहन के भीतर भी

हम यह मानने को भी तैयार नहीं
कि एक बहुत बड़े वर्ग की
कोई आवाज ही नहीं है अब तक

आवाजें जो कहती हैं
भूख लगने पर रोटी छीन कर खाना
अपराध नहीं होना चाहिए
आवाजें जो पूछती हैं
तुम्हारे भीतर धधकती हिंसा की लपटों पर
क्या कोई असर नहीं डालते
मन्त्र, अजान, गुरुबानियाँ.

लाठियां भांजते लोग
अपने बच्चों को किन हाथों से छूते होंगे
जब इनके बच्चे इन्हें छूते होंगे
तो उन बच्चों की निगाहों से कैसे बच पाते होंगे
जिन्हें अनाथ किया अपने ही हाथों से
ये दो तरह की हत्याओं का दौर है
एक मार-मार कर मार डालने का
दूसरा मर जाने के सिवा
कोई रास्ता ही न छोड़ने का

लोग मर रहे हैं, लाठियों से, गोलियों
बिना इलाज के अस्पतालों में
लोग मर रहे हैं
सडकों में, दफ्तरों में, बाज़ारों में, कारखानों में
लगातार मर रहे हैं लोग

कि जैसे लाशों के ढेर से घिरी हूँ
स्वप्न से जागती हूँ, 
हांफती हूँ, पानी पीती हूँ
हकीकत और स्वप्न में कोई फासला नहीं बचा है

बिलखते बच्चों की आवाजें कानों में गूंजती हैं
कोई नाकामियों से हार कर झूल गया है
अभी-अभी फंदे पर
कोई अपमान से टूटकर

कुछ आत्मश्लाघा में मरे जा रहे हैं कि
मैं ही मैं हूँ जबकि
इस मैं का कोई अर्थ नहीं सचमुच
कुछ मरे जा रहे हैं सत्ता के लोभ में
कुछ संसाधनों की होड़ में

वो जो अभी-अभी चाय पीकर गया है न साथ में
जो हंस रहा था जोर-जोर से
जिसकी गिटार की धुन पर झूम रहे थे सब
वो भी जाने कबसे मर रहा था धीरे-धीरे
हमने सुनी नहीं आवाजें मरने की
सिर्फ शोर सुना और फिर एक रोज कहा
'अरे, किसी से कुछ कहा क्यों नहीं...
हमसे ही कहा होता'

इन सबमें सबसे प्यारे हैं वो
जो मरे जा रहे हैं प्यार में
जिनका कहीं कोई जिक्र नहीं

नहीं बचा है ज्यादा फर्क
हत्या और आत्महत्या में 
हत्या से पहले आत्म को चिपका देने
से क्या बदल जाता है 

जीना कौन नहीं चाहता भला
लेकिन इस दुनिया को जीने लायक
बनाने के लिए
हमने खुद किया क्या है आखिर?

Sunday, July 5, 2020

स्मृतियाँ हरी ही रहती हैं


वो जो अटका हुआ है कोरों पर
कितने बरसों से
ढलका नहीं कभी
कि ढलक जाने की मोहलत ही कहाँ थी

ओ सावन, अबके आना
मिलना उस
कोरों पर ठहरे हुए सावन से
कि स्मृतियाँ हरी ही रहती हैं
और आँखें भरी ही रहती हैं हरदम.

Friday, July 3, 2020

मारीना त्स्वेतायेवा का तूफानी जीवन और उनकी कविताएँ

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इन्द्रेश मैखुरी उत्तराखंड की राजनैतिक व सामजिक चेतना का चेहरा हैं. वो तमाम सरोकारों से सिर्फ यूँ ही सा नहीं जुड़ते बल्कि उन्हें शिद्दत से जीते हैं, उन सरोकारों के लिए लड़ते-भिड़ते हैं. नफे-नुकसान की राजनीति से परे वो सिर्फ मनुष्यता के हक में आवाज उठाने की राजनीति करते हैं. दोस्तों के लिए प्रेमिल और उदार ह्रदय रखते हैं. उन्होंने मारीना पर अपनी टिप्पणी समकालीन जनमत के लिए लिखी है जिसे यहाँ सहेजना अच्छा लग रहा है- प्रतिभा

- इन्द्रेश मैखुरी 
क्या आप मारीना को जानते हैं ? आइये, प्रतिभा कटियार आपको उनसे मिलवाती हैं. उनकी ज़िंदगी से और ज़िंदगी की जद्दोजहद से रूबरू करवाती हैं. मारीना त्स्वेतायेवा रूस की एक बहुचर्चित कवियत्री हैं. अब देखिये मारीना खुद होती तो इसी बात से झगड़ा शुरू हो जाता. वे कहती हैं- “मैं रूसी कवि नहीं हूँ, मैं तो कवि हूँ मेरे हिसाब से कोई कवि होता है,न कि फ्रेंच या रूसी कवि.”

तो चलिये मारीना के ही अनुसार बात करते हैं. उसकी बात है तो कुछ तो उसके अनुसार करनी ही होगी. मारीना त्स्वेतायेवा कवियत्री थी, जो 26 सितंबर 1892 को रूस में जन्मी. उसका जीवन जो था, क्या जीवन था, तूफानों से भरा, झंझावातों से भरा. एक मुश्किल गुजरी नहीं कि दूसरी हाजिर. लेकिन इसके बीच यदि कुछ कायम रहता है तो उसका कवि होना. सर्वाधिक यदि वह किसी को बचाने की कोशिश करती है तो अपनी कविताओं को, अपने कवि को. और दुर्गम, दुरूह, दुष्कर स्थितियों में भी उसका कवि बचा रहता है, वह जब तक जीवित रही, उसके कवि ने ही उसे जिलाए रखा. अपनी रचनाओं को बचाए रखने की चिंता के बारे में मारीना कहती हैं- “एक लेखक के लिए उसकी रचनाएँ बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. इसलिए लाज़िम है उसे उनकी सुरक्षा की चिंता हो. उसके लिए उसकी रचनाओं की सुरक्षा अपनी सांसों को सहेजने की तरह होती है.”
जीवन में सहेजना सिर्फ रचनाओं को ही नहीं पड़ता, जीवन को भी पड़ता है. और ऐसे जीवन को तो पग-पग पर सहेजना पड़ता है, जो कष्टों, दुश्वारियों और दुरूहताओं के झंझावातों का समुच्च्य हो. मारीना का जीवन ऐसा ही था. महज 14 वर्ष की उम्र में माँ तपेदिक की चपेट में आ कर चल बसी और 21 बरस तक आते-आते पिता भी गुजर गए. अलबत्ता कविता का दामन मारीना छुटपन में ही थाम चुकी थी. माँ उसे संगीतकार बनाना चाहती थी और लगभग जबरन बनाना चाहती थी. पिता थे बौद्धिक, इतिहास के प्रोफेसर, संग्रहालय के निदेशक. मारीना पर माँ-पिता के व्यक्तित्व का असर है पर उनसे अंतरविरोध भी है. बौद्धिक पिता से वह प्रभावित होती है पर एक सामान्य पिता की तलाश में रहती है. अपनी माँ का मारीना बेहद काव्यात्मक विवरण देती है, उनके व्यक्तित्व का जीवन में उदासियों और कमियों का, उनके संगीत और कला प्रियता का. लेकिन माँ द्वारा संगीत सीखने के लिए ज़ोर डालने से वह कतई सहमत नहीं होती, सहज नहीं होती. “पिता के हो कर भी नहीं होने” और “हर वक्त अपनी तरफ से कुछ उड़ेलने को तैयार माँ” की बीच अलग-थलग पड़ी मारीना ने शब्दों में पनाह ली, शब्दों को अपना हमसफर बनाया. शब्दों के साथ उसका जो गठबंधन है, वो जीवन पर्यंत चला.
वैसे ही चला उजड़ने और बसने का सिलसिला भी. माँ की बीमारी के चलते जो वो रूस छोड़ कर निकले तो फिर जीवन भर यह भटकने का, उजड़ने का क्रम चलता ही रहा. और चलता रहा लिखने का अनवरत सफर. घनघोर विपत्तियों में होती है मारीना पर लिखना नहीं छोड़ती. कैसी विकट स्थितियों में लिखती है, जरा गौर कीजिये. एक बेटी की मृत्यु हो चुकी है. उसकी अन्त्येष्टि में नहीं जा पा रही क्यूंकि दूसरी बेटी भयानक बीमार है. और इस दुख और कशमकश को वह कागज पर शब्दों में उतारती है. 1925 में मारीना का बेटा पैदा होता है. बेटे के जन्म के बाद उसकी सारी जीवनचर्या बच्चे के इर्दगिर्द सिमट जाती है. आधा वक्त बच्चे की देखभाल में बीतने लगता है. लेकिन इसी बीच वह गीतकाव्य- “द पाइड पाइपर” भी रच देती है. उसके बारे में जीवनी में दर्ज है कि व्यंग्यात्मक शैली का यह गीतकाव्य मारीना के बेहतरीन कार्यों में से एक है और यह मारीना ने उस बीच तब-तब लिखा जब बच्चा गाड़ी में सो जाता था.
क्या ऐसे किसी व्यक्ति से कुछ रचने की मनोस्थिति में होने की उम्मीद कर सकते हैं, जो यह कातर विनती कर रहा हो कि उसके पास जो एक जोड़ी ऊनी कपड़ा है, वह फटने लगा है, इसलिए कोई उसे एक पोशाक दे दे या जो काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किए जाने के बावजूद वहाँ न जा पाये क्यूंकि ऐन वक्त पर जूता तले से उधड़ गया और दूसरा जूता उसके पास नहीं है ! लेकिन मारीना ऐसी विकट स्थितियों के बावजूद लिखती है, काव्य, गद्य,संस्मरण, नाटक, सभी कुछ तो. कविता उसमें इस कदर रची-बसी थी कि रूसे के एक बड़े कवि वोलोशिन ने उससे कहा “तुम्हारे भीतर दस कवियों के बराबर कविता लिखने की क्षमता है.” और कवित्व कैसा ? स्विस पुलिस एक हत्याकांड के आरोप में उसके पति को गिरफ्तार करने आई. पति नहीं मिला तो पुलिस उसे ले गयी. पुलिस ने जब उससे पूछताछ की तो जवाब में “उसके मुंह से कवितायें फूट रही थी. आश्चर्य की बात है कि इस वाक़ये ने पुलिस पर मारीना का शानदार प्रभाव डाला और उन्होंने उसे ससम्मान घर जाने दिया.”
उसके जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू उसके प्रेम भी हैं. चर्चित, कम चर्चित, काफी लोगों के प्रेम में मारीना रही. इसमें रिल्के से लेकर पास्तरनाक तक शामिल हैं. पास्तरनाक से तो वह इस कदर प्रेम में थी कि अपने बेटे का नाम बोरिस रखना चाहती थी, जो हो न सका. लेकिन इन सब प्रेमों में ऐसा लगता है कि वह अपने-आप को ही तलाश रही होती थी, अपने से ही बात कर रही होती थी . प्यार की चाह उसमें काफी गहरी थी, जैसा उसने खुद भी लिखा, “मुझे ऐसे लोगों की बहुत जरूरत है, जो मुझे प्यार करें, जो मुझे प्यार करने दें. जिन्हें मेरे प्यार की जरुरत हो. जरूरत जैसे रोटी की होती और इस तरह की जरूरत एक पागलपन ही तो है.”
मारीना जिस दौर में थी, वह दुनिया में भी उथलपुथल का दौर था. रूस में क्रांति, हिटलर का उभार, द्वितीय विश्व युद्ध जैसी घटनाओं की हलचल ने उसके जीवन के झंझावतों को बढ़ाने में योग दिया. पॉलिटिकली करेक्ट होने की न उसे सुध थी,न परवाह. इस वजह से उसके कष्टों में कुछ और इजाफ़ा हुआ.
सुदूर रूस में जन्मी इस कवियत्री की जीवनगाथा को हम तक लेकर आईं प्रतिभा कटियार. प्रतिभा जी स्वयं कविता लिखती हैं, मुख्यधारा का मीडिया जिसे कहा जाता है, उसमें काम कर चुकी हैं और आजकल अजीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन के साथ हैं. पहले-पहल जब इस किताब का चर्चा हुआ तो लगा कि किसी रूसी जीवनी का अनुवाद किया होगा प्रतिभा ने. लेकिन बाद में मालूम हुआ कि यह अनुवाद नहीं खालिस जीवनी है. और यह जीवनी प्रतिभा ने लिखी नहीं है, वे डूब गयी इसको लिखने में. बचपन में अपने पिता की किताबों में पायी किताब- “मारीना त्स्वेतायेवा : डायरी, कुछ खत, कुछ कविताएं”, लगता है कि एक बार मिलने के बाद उन्होंने छोड़ी ही नहीं. बल्कि बिना रूसी जाने ही, वे जा पहुंची मारीना की दुनिया में. मारीना के साथ वे ऐसी हिलमिल गयी कि समय के कालखंडों, देशों, भाषाओं की बन्दिशों को पीछे छोड़ संवाद करने लगी मारीना से. जीवनी के हर अध्याय में जो बुकमार्क नाम का हिस्सा है, वहाँ प्रतिभा कटियार मौजूद हैं, मारीना के साथ गपशप करने, दुख-सुख बांटने, चाय पीने के लिए ! इस तरह मारीना की दुनिया को वो हमारी दुनिया तक ले आईं.

संवाद प्रकाशन मेरठ से छपी इस 300 रुपये मूल्य वाली इस जीवनी के जरिये, प्रतिभा कटियार के साथ आप भी विचर आइये मारीना के तूफानी जीवन और उसके कविताओं के संसार में.


Thursday, July 2, 2020

उत्सव निर्णय लेने का



उन्हें न निर्णय लेना आता है, न किसी के निर्णय का सम्मान करना आता है. न रिश्ते बनाना आता है, न उन्हें निभाना आता है, और अगर रिश्तों में कोई रुकावट आ ही जाए तो उसके साथ डील करना तो बिलकुल नहीं आता. और जिन्हें यह आ जाता है उनसे सीख ही लें यह भी नहीं आता. उन्हें सिर्फ आता है, ज्ञान देना, सद्भावना के नाम पर चुभन देना. समाज में जितनी कुंठा प्रेम को लेकर, प्रेम विवाह को लेकर है उससे कहीं ज्यादा कुंठा है तलाक को लेकर...लेकिन देवयानी भारद्वाज इन तमाम मीडियोक्रेसी के मुंह को अपनी हिम्मत, मजबूत इरादों और स्नेहिल मुस्कुराहट से बंद करती हैं...जिसे हम तलाक देते हैं उससे दुश्मनी ही हो ऐसा भी क्यों सोचता है कोई. वो जो बीता वक़्त था वो इतना मीठा था कि उसे भूलना क्यों. अगर निर्णय साथ रहने का सेलिब्रेट करते हैं तो अलग होने का क्यों नहीं करते.

नासूर बन चुके रिश्तों को ढोते हुए, उसकी घुटन में बिलबिलाते, रिश्तों से इधर-उधर मुंह मारते लेकिन झूठी पारिवारिक तस्वीरों के परदे डालते हुए लोगों पर सच में दया ही आती है. उन्होंने तो उन प्रेमिल दिनों का स्वाद शायद चखा ही नहीं जिन्हें देवयानी जी भरके जी चुकी है. मुझे ऐसे ही इस लडकी से प्यार नहीं, इसके संघर्ष, इसकी मुस्कुराहटों को मोनालिसा की मुस्कान से ज्यादा खूबसूरत बनाते हैं..

तलाक के बारे में देवयानी का लिखा बार बार पढ़ा जाना चाहिए, पढ़ाया जाना चाहिए.-

देवयानी भारद्वाज- 

यदि आपने कोई निर्णय लिया, जिसके बाद आप अधिक आत्मनिर्भर हुए, आप ज्यादा खुश रहने लगे तो आप उसका जिक्र करेंगे या उसके जिक्र से बचेंगे?

 जब भी तलाक का उल्लेख करती हूं मुझे कई शुभकांक्षी मित्र संदेश भेजते हैं कि इसका जिक्र न किया करूं। उनके कहने में मेरे प्रति सहानुभूति होती है। शुक्रिया दोस्तो, लेकिन अब मैं उस जगह से बहुत आगे निकल गई हूं, जहां यह सहानुभूति मेरे काम आए। मैं उम्मीद करती हूं कि ऐसे मित्र मेरी इस पोस्ट को अन्यथा नहीं लेंगे।

मैं यह बताना चाहती हूं कि तलाक मेरे जीवन का बहुत महत्त्वपूर्ण फैसला था। मैं तो उसकी हर सालगिरह सेलिब्रेट करना चाहती हूं। इसमें उस व्यक्ति के लिए भी कोई तिरस्कार नहीं जिससे तलाक लिया। मैं अब भी उसका जिक्र प्यार के साथ करना चाहती हूं। जो उससे शिकायतें हैं, वे अपनी जगह। मुझे अब भी उसके साथ की कई तस्वीरें पसंद हैं। तलाक का जिक्र न करने का मतलब उसके साथ जिए जीवन का भी जिक्र न करना हो जाता है, जबकि हमने भरपूर जीवन जिया है। यह तो मेरा अपना कारण है इस पोस्ट को लिखने का।

दूसरे यदि आप किसी स्त्री को उसके एक निर्णय के उल्लेख से रोकते हैं तब आप उन बहुत सारी औरतों को वह निर्णय लेने से भी रोकते हैं। किसी बात का उल्लेख न करने का अर्थ है आप यह बताना चाहते हैं कि वह निर्णय शर्मिंदगी लेकर आता है। मैं शर्मिंदा नहीं हूं, खुश हूं। आप यदि किसी को शादी की तस्वीरें शेयर करने पर नहीं कहते कि इन्हें शेयर मत करो, जन्मदिन पर बधाई देते हैं तो तलाक पर यह छुपमछुपाई क्यों! ऐसे ही परिवारों से आने वाले बच्चे स्कूल में मेरे बच्चों से कहते हैं, "ओह! तुम्हारे पेरेंट्स का डिवोर्स हो गया। किसी को बताना नहीं!" मेरे बच्चे मुझ पर गर्व करते हैं और अपने पापा से प्यार। मैं अपने फैसले पर शर्मिंदा रह कर अपने बच्चों को पिता से प्रेम करना नहीं सिखा सकती थी।

मैं चाहती हूं कि लड़कियां सड़ चुके रिश्तों की लाश ढोने की बजाय आगे बढ़ें, अपने फैसले करें। जीवन किसी भी तरह सरल और आसान नहीं है। मुश्किलें अपनी चुनी हुई होती हैं तो जीना अच्छा लगता है।

अंत में यह कहना चाहती हूं कि- She lives happily ever after the divorce. Please celebrate her!

Wednesday, July 1, 2020

वैधानिक गल्प- चन्दन पांडे


मुझे वो लोग, वो बातें, वो घटनाएँ बहुत अच्छी लगती हैं जो मेरे अब तक के जाने हुए से मुझे आगे ले जाती हैं, अब तक के सोचे हुए को गलत साबित करती हैं. मैं हमेशा उत्सुक, जिज्ञासु और तत्पर रहती हूँ खुद के अब तक के जाने और सोचे हुए को ख़ारिज होते देखने को.

इन दिनों ऐसा ही दौर आया हुआ है. अभी कुछ दिन पहले ही लग रहा था कि कहानियों और उपन्यासों से दोस्ती कम हो चली है शायद. लेकिन मैं गलत साबित हुई. चंदन पांडे का उपन्यास वैधानिक गल्प एक सांस में पढा ले गया. (इसके पहले सुजाता का एक बटा दो भी ऐसे ही पढ़ा था.) इस एक सांस को तमाम कामों समेत 18 घंटे का समय माना जाय.अफ़सोस हुआ कि क्यों चन्दन पांडे को इतनी देर से पढ़ा.

पहली पंक्ति से यह उपन्यास पाठकों पर पकड़ बना लेता है और घसीटते हुए भीतर ले जाता है. कहानी में कितनी कहानियां हैं, किस्सों में कितने किस्से. कोई पूर्वाग्रह नहीं किसी किरदार का. अर्चना और अनुसूया के बहाने स्त्रियों के बीच ईर्ष्या से इतर एक सार-सहेज और चिंता फ़िक्र वाला रिश्ता देख मन भीगने लगता है. यही दूरी तय करनी तो बाकी है हम स्त्रियों को. कितनी आसानी से अर्जुन की पत्नी अर्चना अर्जुन की पूर्व प्रेमिका रह चुकी और फिलवक्त मुश्किल में फंसी अनुसूया की चिंता में इस कद्र द्रवित है कि तुरंत पति को भेजने को न सिर्फ कहती है बल्कि जल्दी पहुँचने का इंतजाम भी करती है. पति को यथासंभव मदद पहुँचाने का प्रयास करती है, हौसला बंधाती है और अनुसूया से भी बात करते हुए उसे हिम्मत देने की कोशिश करती है. हालात बिगड़ने पर पति को आदेश देती है कि उसे इस हालत में वहां छोड़कर मत आना उसे साथ लेकर आना. अर्चना का किरदार मुझे उपन्यास का बहुत मजबूत किरदार लगता है. यूँ अनुसूया भी कम साहसी नहीं कि पहले प्रेम के नाकाम होने के बाद तमाम घरवालों के खिलाफ जाकर मुसलमान से ब्याह करने की हिम्मत रखती है वह.

उपन्यास में जितने भी स्त्री किरदार हैं सब सुलझे हुए, मजबूत और लड़ते, जूझते हुए हैं. ऐसा कम ही देखने को मिलता है. वैधानिक गल्प के डिफरेंट शेड्स के बीच नायक अर्जुन की कमजोरियों के जो टुकड़े आये हैं वो भी एक ईमानदार स्वीकारोक्ति के तौर पर अच्छे लगते हैं. एक कमजोर, कायर प्रेमी. प्रेमी के तौर पर अक्सर टूट जाते, कमजोर पड़ जाते पुरुषों में ये स्वीकारोक्तियां अभी आनी बाकी हैं. अनुसूया का अर्जुन के लिए कहा देखिये तो, 'तुम्हें तो अपनी जाति में कोई चाहिए थी. यह बात तुम्हें सात-आठ सालों में समझ में आई लेकिन मुझे बहुत पहले ही समझ में आ गयी थी. तुम्हारी हरकतों ने मुझे सब कुछ सिखलाया. तुममें मना करने का साहस नहीं था इसलिए तुम खींचते रहे. बहाने-बहाने से मुझे डिमौरलाइज करते रहे और जानते हो तुमसे अलग हुई तो मम्मी कसम कोई अतिरिक्त दुःख न हुआ....'

प्रेम में स्त्रियाँ हमेशा से ज्यादा मजबूत रही हैं, प्रेम में ही क्यों जीवन में भी. उपन्यास में भी अर्चना, अनुसूया, जानकी...सब अपनी चमक लिए हैं लेकिन वो चमक दैवीय नहीं है. यही बात उन्हें विशेष बनाती है.

पत्नी के कहने पर पूर्व प्रेमिका की मदद को निकल पड़े नायक के मन मस्तिष्क में चलने वाली स्मृतियों की बूंदाबांदी के तूफ़ान बनने की संभावनाओं को कभी रुकते कभी उफनते देखना, उसके लापता पति को ढूंढते हुए समूचे सिस्टम की परतों को खुलते देखना, उन परतों में उलझना भी, फिर समझना भी.

लव जिहाद कहानी में इस तरह आएगा इसका अंदाजा भी नहीं लगता, प्रीडेक्टेबल नहीं है कहानी. अपने अंत पर पहुंचकर बताती है कि ये वही कहानी है जिसे तुमने टीवी में देखा था, अखबारों में पढ़ा था. लेकिन वो कितना कम था.

रफीक और नियाज के अलावा अमनदीप और जानकी तो फ्रंट में हैं लेकिन जो बैकग्राउंड में है एक पूरा सिस्टम, सिपाही, फेक वीडियो, झूठे फोन, झूठे समारोह, सम्मान वो सब कहानी के किरदार हैं. किरदार हैं रफीक की डायरी के वो पन्ने जिन्हें जैसे तैसे अनुसूया ने बचाया और उस बचाने में वो भीगे, गले, कुछ शब्द बह गये कुछ रह गये, जो कमरे भर में बिखरे, सूखने के इंतजार में, रफीक के मिलने के इंतजार में. चन्दन की कहन बहुत कमाल की है, वो किताब को छोड़ने नहीं देती. ऐसी पठनीयता से गुजरते हुए मुझे नाना जी देर रात तक चलती जाने वाली कहानियां याद आती हैं.

यह मेरी कमजर्फी ही है या जिन्दगी की बेदिली कि उसने मेरे कई बरस निचोड़ लिए, जीने का मौका ही न दिया पढने का मौका कैसे देती भला. यही वजह है कि मैंने चन्दन पाण्डेय का लिखा पहली बार कुछ पढ़ा है. हालाँकि अब बाकी किताबें भी ऑर्डर की जा चुकी हैं.

मुझे समीक्षा जैसा लिखने का न तो शऊर है, न मन है. बस इतना कहने का मन है कि बहुत सुंदर उपन्यास पढ़ा मैंने.आपने अगर न पढ़ा हो तो जरूर पढ़िए...