Sunday, June 21, 2020

छूटी हुई चीजों की जड़ें निकल आती हैं...


और इस तरह मैंने जड़ें फूटने की आस में कुछ पन्ने छोड़ दिए पढ़ने से...क्योंकि सुना है छूटी हुई चीज़ों की जड़ें निकल आती हैं. अब तक पढ़े हुए को बार-बार पढने की इच्छा को मुठ्ठियों में जोर से भींचकर कल सारा दिन नीम हरारत में गुजारना अच्छा था. जड़ें फूटने की आस के बीज को बाहर रख दिया. बारिश में. अंकुर फूटेंगे यह सोचकर.

सब कुछ होना बचा रहेगा...को किसी मन्त्र की तरह बुदबुदाते हुए पहली बार विनोद कुमार शुक्ल जी से हुई छोटी सी बात को बार-बार याद करती रही.

अदरक नहीं थी घर में, मुझे बिना अदरक वाली चाय पसंद नहीं फिर भी कल मैंने दिन में कई बार चाय पी. और चाय मुझे बुरी नहीं लगी. फिर मैंने अकीरा कुरोसावा का सिनेमा देखा, मंगलेश डबराल जी की फेसबुक वॉल पर कुछ दिन पहले कविता और सिनेमा की बात देखी थी. पढ़ी नहीं थी, सिर्फ देखी थी. उस देखी हुई बात को कल ढूंढ निकाला. पढने के लिए नहीं, ठीक से देखने के लिए. कभी-कभी मुझे लगता है पढने को देखने जैसा होना चाहिए, जीने जैसा होना चाहिए. और देखने को छू लेने जैसा होना चाहिए. लिखने को फूलों के खिलने जैसा या फफक कर रो लेने जैसा होना चाहिए.

मैंने कुरोसावा को शायद बचाकर रखा था देह के ताप को मन की ठंडक से बदल लेने के लिए. कम्बल में दुबक कर VILLAGE OF WATERMILLS देखी.
https://vimeo.com/31359086?fbclid=IwAR34A2lNdXvkVrou6iH4AJGvq1yRpSfwCeEAenYLQndGh6xObGsm-ufXPwY

'विलेज ऑफ वाटरमिल्स' देखते हुए तीव्र इच्छा हुई मर जाने की. मैंने सोचा कि काश जब मैं मरुँ तब उत्सव हो. सब लोग खूब डांस कर रहे हों, अपनी पसंद का खा रहे हों, अच्छे कपडे चुन रहे हों उत्सव के लिए, फूल हों ढेर सारे और मुझे झरनों के आसपास कहीं देह से मुक्त किया जाय. जहाँ से बच्चों का गुजरना होता हो, मैं हमेशा फूलों, बच्चों की खिलखिलाहटों और झरनों की आवाजों के बीच सांस लेती रहूँ...वाह मरने के बाद भी सांस लेते रहने का ख्याल. कितना लालच है जीने का जो मृत्यु के बाद भी मुक्त नहीं हो रहा. फूलों से घिरे लकड़ी के उस पुल पर बैठकर झरनों की आवाजें सुनने की इच्छा के बीच क्रोएशिया जाने का सपना जाने कहाँ से आ गया. खुद को छूकर देखा तो हरारत मुस्कुराने लगी थी. ये हरारत जानी-पहचानी है. ये मन की दशा के संग चलती है. 

फिर संज्ञा  ने फ़ोन पर कहा, सो जाओ...उसे कैसे पता चला कि मुझे सोना है...फिर मैं सो गयी. लेकिन मैंने नींद में अपने भीतर एक हुडक एक हूक महसूस की. क्या ये नई जड़ों के फूटने की हूक थी? मैं हर नये दिन के प्रति जिज्ञासा से भरी हुई होती हूँ. कि दिन उगेगा, उसकी मुठ्ठी खुलेगी और उसमें होगा कुछ ऐसा जो एकदम नया होगा...वो क्या होगा पता नहीं. हो सकता है पुरानी किसी छूटी चीज में जड़ें फूट आयें और कल्ले फूटने लगें...

आज बारिश नहीं हो रही है...सोचती हूँ पास रखी किताब को उठा लूं तो शायद बारिश भी आ जाये...लेकिन नहीं उठाती. खुला हुआ आसमान धुला हुआ आसमान लग रहा है...



1 comment:

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति