Wednesday, April 29, 2020

दुःख सबको मांजता है


स्कॉटलैंड की सडकों पर घूमते हुए मिली थी वह स्त्री. वो शदीद दुःख से भरी थी. उसने हाल ही में अपना बच्चा खोया था. वो खाली बच्चा गाड़ी के पास उदास बैठी थी. हम सड़कों पर यूँ ही घूम रहे थे. हम दोनों एक दूसरे के लिए अनजान थे. उसने भीगी पलकों से मुझे देखा और मुस्कुरा दी. मैंने उसके चेहरे पर दुःख, शांति और अपनेपन की मिली जुली छाया देखी. उस स्त्री की उस भीगी हुई मुस्कुराहट ने मुझे आज तक थाम रखा है. दुःख बहुत गाढ़ी चीज़ होता है. यह हम सबको मांजता है, ज्यादा मनुष्य होने की तरफ प्रेरित करता है. हाथ थामता है, अपनेपन से भर देता है. आज पूरी दुनिया एक से दुःख, एक से भय और पीड़ा से गुजर रही है. लेकिन क्या हम ज्यादा अपनेपन से भर उठे हैं. क्या हमारे रिश्ते पहले से ज्यादा मीठे हुए हैं? क्या हमने उन्हें जी भरके याद किया जो हमसे नाराज हुए बैठे हैं, क्या हमने अपने तमाम पूर्वाग्रहों को छोड़, तमाम गिले शिकवे भुलाकर लोगों को अपनेपन से भर दिया है?

हम ऐसे हालात में हैं जिसकी किसी ने कल्पना में भी कल्पना नहीं की थी. हममें से किसी को कुछ पता नहीं है कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए. ये किसी को की जद में दुनिया भर की सरकारों, डाक्टरों समेत हर व्यक्ति आता है. मैं भी आती हूँ, इसे पढ़ते हुए आप भी आते हैं.

त्रासदी का समय है. हम सबकी मेंटल हेल्थ एकदम डिस्टर्ब है. लेकिन हम इसे समझ नहीं पा रहे हैं. कभी खुद को खुश रखने के लिए गार्डनिंग करने लगते हैं, गाने सुनने लगते हैं. वर्क फ्रॉम होम में खुद को पहले से ज्यादा झोंककर महसूस करते हैं कि भला हुआ काम ने हमें बचा लिया. कभी रसोई में एक्सपेरिमेंट करने लगते हैं, कभी योगा, एक्सरसाईज, पढ़ना-लिखना. दोस्तों से बात करते हैं. उन दोस्तों के हाल चाल पूछते हैं जो स्लीपिंग मोड में पड़े थे. किसी का टूट रहा था हौसला तो उसे हिम्मत बंधा रहे होते हैं. फिर...अचानक...सब बिखरने लगता है. और शाम तक आते आते फूट फूट कर रो पडते हैं. सब लोग तो हैं आसपास फिर भी एक अजीब सा अकेलापन काटने को आता है.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं यह बिलकुल अलग अनुभव है. हर किसी के भीतर बहुत से बदलाव हो रहे हैं. बहुत मंथन चल रहे हैं. लोग बाहर के काम, व्यवहार, सेहत आदि पर तो काम कर रहे हैं लेकिन भीतर की दुनिया में चल रही इस हलचल को दुनिया में कभी स्पेस नहीं मिला, आज भी नहीं मिल पा रहा. हमारी समझ ही नहीं है कि इस बात की कि अगर व्यक्ति के भीतर की दुनिया ठीक नहीं होती तो टेक्निकली तो सब ठीक हो भी जाता है लेकिन असल में कुछ भी ठीक नहीं होता. यह टेक्निकली ठीक होना है किसलिए, इंसानों के लिए ही न, इंसानों के स्वस्थ रहने और खुश व शांत रहने के लिए, एक दूसरे को महसूस करने के लिए. लेकिन ऐसा हो क्यों नहीं रहा? जब हम किसी से पूछते हैं ‘तुम ठीक हो न? सब ठीक है न?’ तो उत्तर में प्रतीक्षा होती है कि सामने वाला हाँ ही कहे, कहीं दुखड़े लेकर न बैठ जाए. और उस हाँ में सैनिटाइज़र होना, तबियत ठीक होना, घर में रहना, घर में पर्याप्त राशन होना भर होता है.

एक रोज मुझसे किसी ने पूछा, ‘सब ठीक है न?’ और ‘हाँ’ कहने के बाद मैं फफक कर रो पड़ी. जानती हूँ सुनने वाले को सिर्फ हाँ में दिलचस्पी थी. भीतर ही भीतर हम सब टूट रहे हैं, जैसे कुछ खो रहा है. हम सबको सबसे पहले एक दूसरे के प्रति संवेदनाएँ बढानी थीं, महसूस करना बढ़ाना था लेकिन हमने तकनीकी तौर पर हालचाल भर लेकर काम चला लिया.

काम तो हो जाते हैं सारे, घर के भी बाहर के भी लेकिन हम जो लगातार अकेले पड़ते जा रहे हैं उसका क्या? हम जो एक दूसरे को महसूस नहीं कर पा रहे हैं उसका क्या? बस कि एक आवाज की दूरी पर तो थे हम लेकिन यह जो हमारे बीच सदियों का सा फासला गहराता जा रहा है इसका क्या? बुखार होता तो बता देती लेकिन इस उदासी को कैसे बताऊँ, किसे बताऊँ? कैसे बताऊँ कि नींद खुल जाती है रात में, कि काम करते करते रोती जाती हूँ. काम वक्त पर पूरा हो जाता है, मैं टूटकर बिखर जाती हूँ.

जिस समाज में लोग भूख से बिलख रहे हों, जिस दौर में पूरी दुनिया मौत के एक वायरस से लड़ने की खातिर घरों में कैद हों उस दौर में कोई भी व्यक्ति सामान्य मनस्थिति में तो नहीं होगा...क्या हम अपने होने से एक दूसरे को हील (भर) कर पा रहे हैं. क्या बिना किसी को जज किये कह पा रहे हैं एक दूसरे से कि जरा तुम अपना हाथ देना...कि हम साथ हैं परेशान न हो.

इतिहास है इस बात का कि ऐसी महामारियों के दौर में लोगों की टूटन बढ़ी है, अकेलापन बढ़ा है. जब टूटन बढती है तो बढती है असुरक्षा, अविश्वास. शायद इस दौर में सबसे पहले और सबसे ज्यादा हमें अपनेपन को बढ़ाने पर, एक-दूसरे को महसूस करने पर काम करना चाहिए. सोचन चाहिए कि क्या हम इतने निर्मल, इतने मीठे हो सके हैं कि हमारा होना ही हमारे आसपास के लोगों को अच्छा महसूस कराये, राहत दे. हम सबको ज्यादा मनुष्य होने की जरूरत है... अभी यह लम्बी लड़ाई है. लॉकडाउन खत्म भी हो जायेगा लेकिन जंग जारी रहेगी.

तकनीक ने तो हमें जोड़ रखा है लेकिन एक-दूसरे से मन से जुड़ने की तकनीक तो हमें खुद ही ईजाद करनी होगी.
(आज द क्विंट में- https://hindi.thequint.com/readers-blog/coronavirus-lockdown-effect-on-mental-health-anxiety-loneliness)

1 comment:

कविता रावत said...

सच रोटी की कीमत भरे पेट कैसे कोई समझेगा यह तो वही बखूबी जानते है
बहुत अच्छी चिंतन प्रस्तुति