Friday, April 10, 2020

तो आज मारीना मारीना नहीं होती...

शीला पुनेठा द्वारा लिखी एक समीक्षा। किताब है-मारीना। जीवनीकार हैं- प्रतिभा कटियार। शीला ने न केवल खुद पढ़ी बल्कि पाठ कर मुझे भी सुनाई। मैं तो लिखने की हिम्मत नहीं कर पाया लेकिन उन्होने लिख डाली।किताब बेचैन करने वाली है। पढ़ने वाला प्रतिक्रिया दिये बिना अपने आपको नहीं रोक सकता है। जीवनी को जिस उतार-चढ़ाव के साथ प्रस्तुत किया गया है ,वह पढ़ने वाले को उपन्यास का आस्वाद प्रदान करती है। इस किताब को तैयार करने में निसन्देह प्रतिभा को बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी।सच में उन्होने इस किताब को लिखते हुए मारीना को जिया है। वह खुद रोयी हैं। गहरा आत्मलाप किया है। वह मारीना के बाहर और भीतर, दोनों को उजागर करने में सफल रही हैं। केवल मारीना ही नहीं उन तमाम लोगों ,जो उनके समकालीन थे, को चित्रित कर पाई हैं। जिसके चलते मारीना का पूरा समय और समाज जीवन्त हो उठा है। मारीना के व्यक्तित्व व कृतित्व से हमारा गहरा परिचय कराती हैं। उनको और अधिक पढ़ने को प्रेरित करती हैं। मारीना का बहुत सारा साहित्य है जो अभी तक हिंदी के पाठकों के सामने नहीं आ पाया है।आशा है प्रतिभा इस काम को करेंगी ,उनमें ऐसी प्रतिभा है। एक अच्छी किताब के लिये उनको बहुत-बहुत बधाई। संवाद प्रकाशन का धन्यवाद।-  महेश पुनेठा 


- शीला पुनेठा 
रूस की महान कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा की प्रतिभा कटियार द्वारा लिखी जीवनी इसी वर्ष की शुरुआत में संवाद प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इस बीच, इस किताब को पढ़ना संभव हुआ। प्रतिभा जी ने इतनी अच्छी सामग्री पाठकों तक पहुंचाई जिसके लिए वह साधुवाद की पात्र हैं। इस किताब को पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था कि मारीना का जन्म दुःख झेलने को ही हुआ है। जीवन मे इतने संघर्ष कि पढ़ते हुए लग रहा था कि अब ठहराव आएगा लेकिन दुखों का अन्त नहीं हुआ।

उन्नीसवीं सदी में जब रूस के हालात बहुत खराब थे उसी दौर में मारीना का जन्म हुआ। रूस की इस महान कवयित्री ने पूरी उम्र जिंदगी के प्रति आस्था और प्रेम को बचाए रखने के लिए संघर्ष किया। कैसी भी विषम परिस्थिति हो, मारीना का लिखना नहीं छूटा। यह किताब हमें यह दिखाती है कि एक लेखिका जो अपने सारे दायित्वों को निभाते जाती है और उसके बदले वह सबसे प्यार ही तो चाहती है लेकिन एक देश से दूसरे देश भटकते रहने पर भी उसे कहीं स्थायी ठिकाना नहीं मिलता। एक बार ऐसे ही फ्रांस पहुंचने पर मारीना को पता चला कि वहां लेखकों,साहित्यकारों, कलाकारों, को मुफ्त राशन दिया जाता है लेकिन मारीना को वह राशन नहीं मिल पाया। वजह थी उसका नाम रजिस्टर्ड लोगों की सूची में नहीं था। रजिस्टर्ड ना होने के चलते, खाना ना मिल पाने वाली घटना को पढ़ते हुए मुझे लगा कि अभी हमारे देश के हालात भी ठीक वैसे ही हैं।

बचपन में ही मारीना की माँ की मृत्यु हो गई थी। यही से उसके दुखों की शुरुआत हो गई थी।पिता के होते हुए भी वह हमेशा उनकी कमी महसूस करती थी।उसके पिता की गिनती रुस के बौद्धिक लोगों में हुआ करती थी। उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं होता था। इसी अधूरेपन के कारण वह प्रेम के लिये जीवन पर्यंत भटकती रही।

उसके कई लेखकों, कवियों से भी गहरे सम्बन्ध रहे। जो ज्यादा समय नहीं टिक पाए। लेखकों से लम्बा पत्र व्यवहार भी चलता था। अत्यधिक गरीबी के दिनों में ये लोग काफी मदद भी करते थे। कभी कोई रहने की व्यवस्था कर देता। सेर्गेई नाम के युवक से उसने शादी की। जो पहले से ही क्षयरोग से जूझ रहा था। सेर्गेई देशप्रेम से ओतप्रोत था तो मारीना शब्द व कला से। आगे चलकर न पति का पूरा साथ मिला न कोई आर्थिक मदद। तीन बच्चों की परवरिश अकेले अपने दम पर की। भूखमरी की स्थिति में दोनों बेटियों को इस आशा मे अनाथालय में डाल दिया कि वहाँ भरपेट भोजन मिल पाएगा। बड़ी बेटी का स्वास्थ्य खराब होने पर मारीना उसको घर लायी और उसकी देखरेख की लेकिन इसी दौरान उसे खबर मिली कि छोटी बेटी नहीं रही। वह इस स्थिति में नहीं थी कि उसके अन्तिम संस्कार में जा पाए। मारीना उस समय बड़ी बेटी के सिर मे ठण्डी पट्टी रख रही थी।

कवयित्री से इतर मारीना एक माँ भी है और ऐसे समय में उस माँ पर क्या बीत रही थी इस किताब को पढ़ने से पता चलता है। पर इस सबके बावजूद भी मारीना का लेखन बराबर चलता रहा।

वास्तव में यह किताब अपने आप में अलग तरह की है। लेखिका ने काफी लगन और मेहनत से इसको लिखा है। इसे पढ़ने पर कहीं पर भी यह अहसास नहीं होता है कि लेखिका मारीना से नहीं मिली है।
लेखिका ने मारीना के साहित्य को पढ़ा ही नहीं बल्कि जिया है।बिना उसको आत्मसात किए ऐसी जीवनी लिख पाना असम्भव है। लेखिका इसे लिखने में इतना डूब चुकी है कि लगता है आमने- सामने बैठकर बात कर रही है। किताब पढ़ते हुए हमें जगह -जगह इस बातचीत के अंश मिलते हैं । जिसमें लेखिका मारीना से प्रश्न भी करती है तथा कहीँ-कहीं पर अपनी असहमति भी दर्ज करते नजर आती हैं। इस वार्तालाप को बुकमार्क नाम दिया है। इससे किताब में और रोचकता आ गई है।

डॉ. वरयाम सिंह जी द्वारा मारीना की कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया गया है। इस किताब को लिखने में भी उन्होंने सहयोग किया है। प्रतिभा जी ने काफी मेहनत और लगन से इस किताब को लिखा है। यह अपने आप में अलग तरह का काम है । वरयाम जी किताब की भूमिका में लिखते हैं कि 'अनुवाद तो बहुत हुए हैं पर किसी भारतीय ने रूसी लेखक की जीवनी लिखी है। इस तरह का काम आसान नहीं होता है और यह पहला प्रयास है। हो सकता है यह सिलसिला ही चल पड़े।'

किताब पर प्रकाश डालते हुए वह महत्वपूर्ण बात रेखांकित करते हुए कहते हैं कि 'इस किताब में दो कालखण्डों में एक पुल बनता नजर आता है. वह उस युग से चलकर इस युग में आती है,बात करती है और ऐसे में वो समकलीन जैसी लगती है। असल में, किसी से जब हम संवाद करते हैं तो असल में हम खुद से ही संवाद करते हैं, खुद को समझने का प्रयास करते हैं।'

मारीना की जीवनी हमें उस समय के साहित्य के साथ- साथ अलग-अलग समाजों से भी परिचित कराती है जैसे रूस, फ्रांस, जर्मनी। साथ ही, उस समय के समाज में साहित्यकारों की स्थिति से भी अवगत करवाती है। अपने जीवन के इतने कड़े संघर्षों के बाद भी मारीना निरन्तर लिखती रही, कभी पत्र, तो कभी डायरी या गद्य और कभी कविता। जीवन के अन्तिम क्षणों में भी वह तीन पत्र लिखकर रख गई। अगर उन सब मुश्किलों से हारकर बैठ जाती तो आज मारीना मारीना नहीं होती।

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उपयोगी जानकारी मिलीं।

सौरभ जैन said...

Hello mam ..सबसे पहले मैंने आपको हिंदी समय वेबसाइट पर पढ़ा । और आपकी वो पत्रकारिता वाली जिंदगी में इतना खो गया । लगा जैसे वो सारे दृश्य दोबारा जीवित हो गए।
बहुत संघर्ष पूर्ण जिंदगी जीयी । अंदर से कुछ ज्यादा ।