Wednesday, April 29, 2020

दुःख सबको मांजता है


स्कॉटलैंड की सडकों पर घूमते हुए मिली थी वह स्त्री. वो शदीद दुःख से भरी थी. उसने हाल ही में अपना बच्चा खोया था. वो खाली बच्चा गाड़ी के पास उदास बैठी थी. हम सड़कों पर यूँ ही घूम रहे थे. हम दोनों एक दूसरे के लिए अनजान थे. उसने भीगी पलकों से मुझे देखा और मुस्कुरा दी. मैंने उसके चेहरे पर दुःख, शांति और अपनेपन की मिली जुली छाया देखी. उस स्त्री की उस भीगी हुई मुस्कुराहट ने मुझे आज तक थाम रखा है. दुःख बहुत गाढ़ी चीज़ होता है. यह हम सबको मांजता है, ज्यादा मनुष्य होने की तरफ प्रेरित करता है. हाथ थामता है, अपनेपन से भर देता है. आज पूरी दुनिया एक से दुःख, एक से भय और पीड़ा से गुजर रही है. लेकिन क्या हम ज्यादा अपनेपन से भर उठे हैं. क्या हमारे रिश्ते पहले से ज्यादा मीठे हुए हैं? क्या हमने उन्हें जी भरके याद किया जो हमसे नाराज हुए बैठे हैं, क्या हमने अपने तमाम पूर्वाग्रहों को छोड़, तमाम गिले शिकवे भुलाकर लोगों को अपनेपन से भर दिया है?

हम ऐसे हालात में हैं जिसकी किसी ने कल्पना में भी कल्पना नहीं की थी. हममें से किसी को कुछ पता नहीं है कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए. ये किसी को की जद में दुनिया भर की सरकारों, डाक्टरों समेत हर व्यक्ति आता है. मैं भी आती हूँ, इसे पढ़ते हुए आप भी आते हैं.

त्रासदी का समय है. हम सबकी मेंटल हेल्थ एकदम डिस्टर्ब है. लेकिन हम इसे समझ नहीं पा रहे हैं. कभी खुद को खुश रखने के लिए गार्डनिंग करने लगते हैं, गाने सुनने लगते हैं. वर्क फ्रॉम होम में खुद को पहले से ज्यादा झोंककर महसूस करते हैं कि भला हुआ काम ने हमें बचा लिया. कभी रसोई में एक्सपेरिमेंट करने लगते हैं, कभी योगा, एक्सरसाईज, पढ़ना-लिखना. दोस्तों से बात करते हैं. उन दोस्तों के हाल चाल पूछते हैं जो स्लीपिंग मोड में पड़े थे. किसी का टूट रहा था हौसला तो उसे हिम्मत बंधा रहे होते हैं. फिर...अचानक...सब बिखरने लगता है. और शाम तक आते आते फूट फूट कर रो पडते हैं. सब लोग तो हैं आसपास फिर भी एक अजीब सा अकेलापन काटने को आता है.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं यह बिलकुल अलग अनुभव है. हर किसी के भीतर बहुत से बदलाव हो रहे हैं. बहुत मंथन चल रहे हैं. लोग बाहर के काम, व्यवहार, सेहत आदि पर तो काम कर रहे हैं लेकिन भीतर की दुनिया में चल रही इस हलचल को दुनिया में कभी स्पेस नहीं मिला, आज भी नहीं मिल पा रहा. हमारी समझ ही नहीं है कि इस बात की कि अगर व्यक्ति के भीतर की दुनिया ठीक नहीं होती तो टेक्निकली तो सब ठीक हो भी जाता है लेकिन असल में कुछ भी ठीक नहीं होता. यह टेक्निकली ठीक होना है किसलिए, इंसानों के लिए ही न, इंसानों के स्वस्थ रहने और खुश व शांत रहने के लिए, एक दूसरे को महसूस करने के लिए. लेकिन ऐसा हो क्यों नहीं रहा? जब हम किसी से पूछते हैं ‘तुम ठीक हो न? सब ठीक है न?’ तो उत्तर में प्रतीक्षा होती है कि सामने वाला हाँ ही कहे, कहीं दुखड़े लेकर न बैठ जाए. और उस हाँ में सैनिटाइज़र होना, तबियत ठीक होना, घर में रहना, घर में पर्याप्त राशन होना भर होता है.

एक रोज मुझसे किसी ने पूछा, ‘सब ठीक है न?’ और ‘हाँ’ कहने के बाद मैं फफक कर रो पड़ी. जानती हूँ सुनने वाले को सिर्फ हाँ में दिलचस्पी थी. भीतर ही भीतर हम सब टूट रहे हैं, जैसे कुछ खो रहा है. हम सबको सबसे पहले एक दूसरे के प्रति संवेदनाएँ बढानी थीं, महसूस करना बढ़ाना था लेकिन हमने तकनीकी तौर पर हालचाल भर लेकर काम चला लिया.

काम तो हो जाते हैं सारे, घर के भी बाहर के भी लेकिन हम जो लगातार अकेले पड़ते जा रहे हैं उसका क्या? हम जो एक दूसरे को महसूस नहीं कर पा रहे हैं उसका क्या? बस कि एक आवाज की दूरी पर तो थे हम लेकिन यह जो हमारे बीच सदियों का सा फासला गहराता जा रहा है इसका क्या? बुखार होता तो बता देती लेकिन इस उदासी को कैसे बताऊँ, किसे बताऊँ? कैसे बताऊँ कि नींद खुल जाती है रात में, कि काम करते करते रोती जाती हूँ. काम वक्त पर पूरा हो जाता है, मैं टूटकर बिखर जाती हूँ.

जिस समाज में लोग भूख से बिलख रहे हों, जिस दौर में पूरी दुनिया मौत के एक वायरस से लड़ने की खातिर घरों में कैद हों उस दौर में कोई भी व्यक्ति सामान्य मनस्थिति में तो नहीं होगा...क्या हम अपने होने से एक दूसरे को हील (भर) कर पा रहे हैं. क्या बिना किसी को जज किये कह पा रहे हैं एक दूसरे से कि जरा तुम अपना हाथ देना...कि हम साथ हैं परेशान न हो.

इतिहास है इस बात का कि ऐसी महामारियों के दौर में लोगों की टूटन बढ़ी है, अकेलापन बढ़ा है. जब टूटन बढती है तो बढती है असुरक्षा, अविश्वास. शायद इस दौर में सबसे पहले और सबसे ज्यादा हमें अपनेपन को बढ़ाने पर, एक-दूसरे को महसूस करने पर काम करना चाहिए. सोचन चाहिए कि क्या हम इतने निर्मल, इतने मीठे हो सके हैं कि हमारा होना ही हमारे आसपास के लोगों को अच्छा महसूस कराये, राहत दे. हम सबको ज्यादा मनुष्य होने की जरूरत है... अभी यह लम्बी लड़ाई है. लॉकडाउन खत्म भी हो जायेगा लेकिन जंग जारी रहेगी.

तकनीक ने तो हमें जोड़ रखा है लेकिन एक-दूसरे से मन से जुड़ने की तकनीक तो हमें खुद ही ईजाद करनी होगी.
(आज द क्विंट में- https://hindi.thequint.com/readers-blog/coronavirus-lockdown-effect-on-mental-health-anxiety-loneliness)

सुनना सीख रही हूँ


इन दिनों कुछ भी नया पढने में मन रुच नहीं रहा. पुराने की ही फिर-फिर पलट रही हूँ. रिल्के, निर्मल वर्मा, लोर्का और वॉन गॉग ज्यादा साथ रहते हैं. गॉग अपने भाई को लिखे खत में कहते हैं, क्या हम पढ़ना जानते हैं? सचमुच हमेशा यही तो सोचती रही कि क्या हम पढ़ना जानते हैं? क्या हमने सुनना सीखा है? क्या हमने देखना सीखा है? सब कुछ तो सीखना बाकी ही है. हम जिन चीज़ों को पढकर खुश हुए, उनमें रम गये, आहलादित हुए, दिल दे बैठे उन्हें खोलकर देखा तो पाया कि इसमें तो हजार दिक्कतें थी. दिक्कतें दिखीं क्यों नहीं? जिन बातों से प्रभावित हुए जिन लोगों से उनमें भी हजार दिक्कते थीं. जिन बातों को सुन-सुनकर बड़े हुए, जो रगों में लहू के साथ दौड़ने लगीं उनको कभी परखा ही नहीं. ये सब देखना, सुनना, पढना जो जो बचपन से जारी है जिसने हमें गढा है उसमें हजार दिक्कतें रहीं. बस दिखी नहीं. क्योंकि हमें तो सिर्फ आँख भर देखना, शब्द भर सुनना, और पढना सिखाया गया था. वो भी वैसे,जैसे बताया गया है.

हम खुद से सवाल करने वाले लोग नहीं हैं, अपने कार्य, व्यवहार को पलटकर देखने और उसे तराशने के लिए कोशिश करने वाले लोग नहीं हैं. हम खुद को खुदा समझने वाले लोग हैं. व्यक्ति के तौर पर, समूह के तौर पर. पिछले दिनों कुछ साथियों से पढने लिखने ख़ासकर साहित्य पढने को लेकर बात कर रही थी. और सोच रही थी कि अभी तो पढने की बात भर है कि साहित्य पढना हमें निखारता है, संवेदनशील बनाता है. वो बात तो हुई ही नहीं कि साहित्य में भी काफी घपलेबाजी है. उसे अलग से देख पाने के लिए बहुत पैनी नजर और नाजुक नजरिया चाहिए. कि अभी तो सवाल वहीं तक पहुंचे कि क्या कुछ भी जो छप गया वो साहित्य है, सेल्फ हेल्प किताबें भी साहित्य हैं क्या? कितनी लम्बी है वो यात्रा जब सवाल आएंगे कि देवदास हीरो क्यों था? शरतचन्द्र, रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानियों की नायिकाएं ऐसी ही क्यों हैं? कविताओं में स्त्रियाँ दुःख और करुणा की इमेज में ही क्यों कैद हैं. समर्पण का सुख ही क्यों है स्त्री का सुख और क्यों नायिकाओं के सौन्दर्य पर इतना ध्यान दिया गया है. क्यों प्रेमिकाओं और पत्नियों के बीच एक जंग छिड़ी रहती है कहानियों में और पाठकों को जोड़े रखती है. क्यों नख शिख वर्णन इतना स्पेस घेरता है, जुझारूपन क्यों नहीं जगह घेरता.

हमें क्या पढ़ाया जा रहा है, क्या दिखाया जा रहा है, कैसा साहित्य, कैसा सिनेमा और उसे अलग से पहचान पाना हम कब सीख पायेंगे आखिर? बहुत दूर लगता है यह सब. सोचती रहती हूँ लेकिन शायद मैंने अब तक अपनी बात को ठीक से कहना सीखा नहीं.

इन दिनों मोनिका कुमार को पढ़ रही हूँ. मोनिका मेरे मन की वो सारी बातें लिख रही हैं जिन्हें मैंने अब तक कहना सीखा नहीं. जितना मैं सोचती हूँ, सोच पाती हूँ उससे भी आगे की बात लिख रही हैं मोनिका. लिखे हुए को, पढ़े हुए को, देखे हुए को वो उधेड रही हैं. हमें यह उधेड़ना सीखना है. हाँ जरूर है किसी बात को ख़ारिज करने के लिए उस बात को तफसील से जानना बहुत जरूरी है.ऐसा मालूम होता है जिन्दगी की कक्षा में पहले दर्जे की विद्यार्थी हूँ. हूँ ही. 

मुझे चिड़ियों की आवाज सुनना अच्छा लगता है. मैं उनकी आवाज में आवाज मिलाना सीखना चाहती हूँ. मुझे झरने की आवाजें पसंद हैं मैं झरने की आवाज को झरने के संग पीना चाहती हूँ. इन आवाजों से हमें भिड़ना नहीं पड़ता, सवाल नहीं करने पड़ते. ये प्रकृति की पवित्र आवाजें हैं. काश हम प्रकृति जैसे हो पाते.

पता है, आज पूरे 32 दिन बाद घर के बाहर कदम रखे. सड़क पर. खामोश सड़क पहले कब देखी थी याद नहीं. हैवलॉक की याद आई. ऐसी ही ख़ामोशी थी वहां. हरियाली और खुशबू में लिपटी हुई सड़कें. पीले, गुलाबी, बैंगनी और लाल फूलों से सजी हुई सड़कें. एक पेड़ के नीचे से गुजरते हुए मेरी पलकें भीग गयीं. जानते हो क्यों...धरती पूरी लाल फूलों से पटी पड़ी थी. मैं कुछ फूल चुनने लगी. कुछ फूल मेरे ऊपर भी गिरे. मैंने आज फूलों के गिरने की आवाज सुनी.

तुमने कभी सुनी है आवाज? फूलों के गिरने की आवाज? मैं सुनना सीख रही हूँ इन दिनों...

Monday, April 27, 2020

दृश्य बदलने से दृश्य बदलते हैं.


हालात बदलने के लिए
बदलना पड़ता है खुद को

दृश्य बदलने से
तो सिर
दृश्य बदलते हैं.
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भूख पेट में थी
खाना मदद के इश्तिहारों में
और रास्ता लम्बा

भूख ने दम तोड़ दिया
इश्तिहार चमकते रहे.
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अनाज उगाने वाले हाथों का
अनाज मांगने वाले हाथों में बदलना
इतिहास की त्रासदी है

अगर उनके हाथों तक
पहुंचाते हुए राशन
अकड़ती है गर्दन
तो लाजिम है टूटना
मनुष्यता का..
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लॉकडाउन में खोलनी थीं
मन की गांठे
लेकिन हमने कसे ही
अपने पूर्वाग्रह
और भी मोटे ताले डाले अपनी अक्ल पर

कि वायरस से ज्यादा बड़ी थी
जाहिलता की मार.

पढ़ने की आदत से क्या होता है



- मोनिका भंडारी

दैनिक जीवन मे पढ़ने लिखने की आदत निजी और पेशेवर तौर पर आज की टेली कान्फ्रेंस की बातचीत इसी पर आधारित थी और इस बातचीत को हमारे बीच रखने के लिए दो उम्दा शख्सियतें आई थी. प्रतिभा कटियार जी और रेखा चमोली जी. बातचीत की शुरुआत अशोक जी ने की तथा आज की बातचीत का संदर्भ रखा. इसके बाद श्वेता जी ने दोनों लेखिकाओं का स्वागत किया. श्वेता ने कहा कि पढ़े लिखे शिक्षक होने के साथ साथ पढ़ते लिखते शिक्षक होना जरूरी है. इसके बाद दोनों लेखिकाओं के परिचय के लिए जाने माने साहित्यकार एवं शिक्षक मनोहर चमोली मनु को आमंत्रित किया गया. मनु सर ने प्रतिभा जी का परिचय देते हुए बताया कि ये गंगा जमुनी संस्कृति को जीने वाली लेखिका हैं. वर्तमान में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से जुड़ी हुई हैं. ये हिंदी, इंग्लिश दोनों भाषाओं की कलम कार हैं. ये डायरी, ब्लॉग लिखती हैं तथा संपादन भी करती हैं. ये विचारवान हैं तथा दुनिया को संवारना चाहती हैं.
वहीं रेखा जी का परिचय देते हुए मनु सर ने कहा कि वे कर्णप्रयाग में जन्मी हैं तथा इनकी लेखनी मे मिट्टी, पानी, पहाड़ का यथार्थ झलकता है. ये वर्तमान में नौनिहालों के बीच उत्तरकाशी मे बहुत बढ़िया काम कर रही हैं.
परिचय को समेटते हुए मनु सर ने कहा कि दोनों ही अपने क्षेत्र में संवैधानिक मूल्यों के साथ खड़ी हैं बराबरी और समानता के सपने बुनती हैं और साकार करना चाहती हैं.
परिचय सत्र के बाद प्रतिभा जी सबसे मुखातिब हुईं. लगभग 92 लोग इस कॉन्फ्रेंस मे शामिल थे.4:30 बजे से शुरू हुई ये बातचीत अब प्रतिभा जी आगे बढ़ा रही थी. प्रतिभा जी ने अपनी बातचीत आज के चुनौती पूर्ण समय को लेकर शुरु की. उन्होंने कहा कि आज के लॉक डाउन के समय में पढ़ने लिखने पर बातचीत करना एक अच्छा विषय है. लेकिन वो कहती हैं की पढ़ने लिखने की बातचीत अलग से क्यों की जाए? यह तो हमारे जीवन का हिस्सा होना चाहिए. सबसे जरूरी है कि हम क्या और कैसे पढ़ते हैं? उन्होंने कहा कि आजकल उन्होंने फिर से पहले पढ़ी हुई किताबें पढ़ी हैं और हर बार उन्हे पिछली बार से अलग लगता है अपना पढ़ा हुआ. उनका मानना था कि पढ़ने से हर बार कुछ नया महसूस होता है. प्रतिभा बड़ी गहरी बात कहती हैं कि पढ़ना हर बार खुद को जानने और तराशने जैसा है. प्रतिभा की विशेषता है कि वो बहुत गहरी बात भी सहजता से कह जाती हैं. कहती हैं कि हर शब्द की एक अलग यात्रा है. उन्होंने जोड़ा कि आजकल मदद, परोपकार, संवेदना जैसे शब्द प्रचलन मे बहुत हैं लेकिन इसका अर्थ सिर्फ एक हाथ देने वाला तथा एक हाथ लेने वाला सा लगता है. यह सिर्फ आर्थिक मसला नही है, क्यों नहीं हम उनके साथ खड़े हो जाते? प्रतिभा कहती हैं ये संवेदना भी साहित्य पढ़ने से आती है. साहित्य हमें बदलना सिखाता है. पाठक के तौर पर साहित्य हमे समृद्ध करता है. प्रतिभा का मन प्रकृति मे भी रमता है जब हम उनको पढ़ते हैं तो हम महसूस कर सकते हैं कि वो प्रकृति के बहुत करीब हैं. नदी, बारिश, पेड़, सब उनके दिल से होकर गुजरता है. वे कहती हैं कि हमारे अंदर जो नदी है साहित्य उसे सूखने नहीं देता. कहती हैं साहित्य और प्रकृति कभी भेद nhi करती. शिक्षा मे भी भेद नहीं होने चाहिए. उन्होंने लाल बहादुर वर्मा जी का जिक्र करते हुए कहा कि उनकी एक बात उन्हे बड़ी अच्छी लगी कि धरती उन शिक्षकों को ज्यादा प्यार करती है. जो धरती से प्यार करते हैं क्योंकि जो बच्चे इन शिक्षकों के बीच से होकर गुजरेंगे वो सही मायनों मे मनुष्य होंगे.
साहित्य पढ़ने की आदत कैसे हो इस बात पर प्रतिभा जी ने कहा कि आजकल कई लोगों को फेसबुक और whatsaap पर पढ़ना पसंद होता है लेकिन वो कहती हैं कि ये पसंद का क्षेत्र होता है. कुछ और कहीं पढ़ने मे मजा आता है कहीं नहीं भी आता.ये चस्का लगने जैसा है कहती हैं मुझे विरासत मे अपने पापा से पढ़ना लिखना मिला है और कई लोग हैं जिनको पढ़ने की आदत मे शामिल करने के लिए हाथ बढ़ाने की जरुरत है. उन्होंने अपना अनुभव बताया कि उनके पापा किताबें घर पे लाया करते थे. कोई रूसी किताब और पिता के पत्र पुत्री के नाम जैसी किताबें बचपन में पढ़ ली थी और उनके पिता उन किताबों पर बातचीत किया करते थे. वो मानती हैं कि यही बात जरूरी है कि बच्चों के साथ बातचीत करें, सवाल जवाब करें.पढ़ने के बाद यदि बच्चे हमें कहीं पर गलत साबित करते हैं तो ये बहुत अच्छा है. वो कहती हैं कि किताबों से प्यार करना जरूरी है. उनको साहित्य से प्यार था और आज तक चल रहा है.
वो ये भी कहती हैं कि किताबें हमें बदलती है. साहित्य हमें नजरिया देता है. चित्रलेखा किताब का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ये सबको पढ़नी चाहिए. यदि हम किसी चीज को नहीं मानते तो उसको ना मानने के जो कारण हैं उसको जानने के लिए हमें और ज्यादा उसे पढ़ना पड़ेगा.उन्होंने उन शिक्षकों के बारे मे भी बात की जो अपनी कक्षाओं मे साहित्य के साथ शिक्षण कर रहे हैं. और बच्चों को प्यार के साथ सिखा रहे हैं. यहीं पर प्रतिभा जी ने अपनी बात समाप्त की और रेखा जी को अपनी बात रखने के लिए कहा.

रेखा जी ने अपनी बात शुरु करते हुए कहा कि प्रतिभा को सुनना किसी लंबी "प्रेम कविता "को सुनने जैसा है. उन्होंने अपनी चिर परिचित अंदाज में संवाद से जुड़ने के लिए सबका शुक्रिया अदा किया और कहा कि उन्हे प्रतिभा की बातों से सहमति है.. रेखा जी ने कहा कि एक शिक्षिका होने के नाते मै शिक्षकों के पढ़ने लिखने की बातें करूँगी.रेखा जी भी बहुत सहज शब्दों मे अपनी बातें रखती हैं जो कि हमें अक्सर अपने दिल के करीब लगता है. उन्होंने कहा कि जैसे किसी दुकान या व्यवसाय को सजाने सँवारने के लिए कुछ टूल्स की जरूरत होती है उसी तरह कक्षा शिक्षण मे भी नई चीजें, आनी चाहिए जैसे किताबें, साहित्य, जो कुछ भी देश, दुनिया मे लिखा या बुना गया है उसे बच्चों के बीच मे आना जरुरी है. वो कहती हैं कि मैं किसी विषय विशेष की नहीं बल्कि व्यापक रूप से इस बात को देखती हूँ. बच्चा हमारे पास आता है और कुछ समय बाद जब वो जाता है उस पूरी प्रकिया मे उसके बीच हम क्या करते हैं ये जरुरी है.रेखा बच्चों के साथ बहुत शिद्दत से जुड़ी हुई हैं उनकी छोटी सी बात को भी महसूस करती हैं. उन्होंने कहा कि जिस शिक्षक ने तोतोचान पढ़ी होगी, यदि उसकी कक्षा मे कोई ऐसा अलग सा बच्चा आता है तो वो उसको शरारती और बिगड़ा हुआ घोषित करने से पहले रुककर सोचेगा कि ये बच्चा क्या कहना चाहता है?. इसी तरह जिसने पहला अध्यापक पढ़ी है वो खुद से सवाल करना सीखता है. वो सीखता है कि क्या नये तरीके हैं सीखने और सिखाने के? वो सहजता से कहती जाती हैं कि जरुरी नही कि 100 लोगों द्वारा किया जाने वाला काम सही है और 10 लोगों द्वारा किया जाने वाला गलत.
कहती हैं कि आज की शिक्षा प्रणाली सही नही है कहीं ना कहीं इसमें गड़बड़ है वरना आज हम ऐसी दुनिया ना तैयार कर रहे होते. साहित्य के बारे मे उनका कहना था कि कोई शिक्षक जब पढ़ता है तो वह सवाल करना सीखता है. पढ़ना सीधे हाँ या ना को नही उसके बीच की तमाम बातों को जगह देता है. फेसबुक और सोशल मीडिया की सामग्री को एकदम से आत्मसात करने पर उन्होंने असहमति जातायी. कहा कि इस तरह की सामग्री पर सोच समझ कर विश्वास करने की जरुरत है.. वो कहती हैं की यदि हम पढ़ते लिखते शिक्षक होंगे तो कक्षा मे हमारा नजरिया बिल्कुल अलग होगा. हम चीजों, लोगों और घटनाओं को लेकर पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं होंगे.
अपनी बेबाक शैली मे उन्होंने अपने अनुभव भी सुनाए. अपनी 9 वी कक्षा में पढ़ी गयी किताब अपने अपने राम का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि किसी किताब की कहानी, पात्र, कथानक का प्रभाव आपको बदल देता है. और आप पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाते हैं. कोई आपके बारे मे क्या सोचता है फिर आपको कोई फर्क नहीं पड़ता. आप खुद पर भरोसा करने लगते हैं. कुल मिलाकर आप एक स्वतंत्र व्यक्तित्व वाले शिक्षक बन जाते हैं. यह बात मुझे भी महत्वपूर्ण लगी. बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि हमारे बच्चों को पढ़ने की सामग्री और अवसर कम मिलते हैं. घरों में कोई ऐसी छपी हुई सामग्री नहीं होती जिसे वो पढ़ सकें. ऐसे में हमारी और जिम्मेदारी बन जाती है कि बच्चों को पढ़ने लिखने से जोड़ा जाए. हमें ऐसा माहौल बनाना होता है कि बच्चे खुद पढ़ने लग जाएं. बच्चों के साथ चित्र, चित्रकथा अनुभव खेल पर बात करना जरुरी है.
एक अनुभव सुनाते हुए कहा कि एक बच्ची चीनी के लिए दस रुपए ले कर आई है पर वो चुप है कि पैसे लाने पर डांट ना पड़े. लेकिन जब उससे इस बारे मे बात की तो उसे महसूस हुआ कि उसकी दस रुपए की चीनी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी किसी और की. कविता छह साल की छोकरी पर भी उन्होंने अपनी बात रखी. बोली कि बच्चों को चयन का अधिकार होना चाहिए. बच्चों को स्वतन्त्र छोड़ना जरुरी है लेकिन पहले उनसे बात करना जरूरी है. फिर वे चीजों को अपना समझते हैं और तोड़ फोड़ नहीं करते. पढ़ने के बाद प्रस्तुतिकरण भी जरूरी है. बच्चों ने क्या पढ़ा कितना पढ़ा उसे अपने साथियों से साझा करना भी जरूरी है. पढ़ने की खुशी बच्चे बांटना चाहते हैं और ये टीचर के लिए प्रेरणा हो सकते हैं. इसके बाद रेखा जी ने दीवार पत्रिका पर भी बात की. कहा कि विषय का चयन चित्र बनाना लिखना यदि बच्चे सीख गए तो बड़ी बात है. अंत मे उन्होंने अपनी बात को समेटा और कहा कि शिक्षक के काम मे निरंतरता जरूरी है.रेखा जी की बात समाप्त होने के बाद सवाल जवाब का दौर शुरू हुआ.
शिक्षक साथियों की तरफ से आये सवालों को मुदित जी ने रखा. एक प्रश्न था कि बच्चों मे पढ़ने की आदत कैसे डालें? जवाब मे रेखा जी ने कहा कि यदि हमारे घर मे खूब सारी किताबें हैं तो बच्चों को उनके साथ जोड़ा जा सकता है. उनसे बात करके किताबों के कुछ पन्ने पढ़के किताब के प्रति रुचि जगाई जा सकती है.
दूसरा प्रश्न था कि एक ही तरह का साहित्य पढ़ना सही है या नहीँ ? उत्तर था कि नही हमे अलग अलग तरह का साहित्य पढ़ना जरुरी है. प्रतिभा जी ने कहा कि हमें एक ही विचार का साहित्य ना पढ़कर बहुत तरह का पढ़ना चाहिए. जैसे यदि मुझे धर्म मे विश्वास नही तो उसको सिद्ध करने के लिए मुझे और ज्यादा पढ़ना होगा जिससे हम उन चीजों को और अच्छे से जान पाएँ. अगला प्रश्न था कि बहुत से लोग पढ़ने को एकाकी प्रक्रिया मानते हैं जबकि ये समाज मे सीखा जाता है. और हमारी जिम्मेदारी है कि हम सीखे हुए को समाज को वापिस करें तो कैसे ये समाज का हिस्सा ban सकता है? यह एक महत्वपूर्ण सवाल था लेकिन रेखा जी ने अपने धैर्य वान सहज शब्दों मे उत्तर दिया कि भले ही हम स्वयं की रुचि से एकांत में पढ़ना पसंद करते हैं लेकिन पढ़ने के बाद हम जैसे मनुष्य बनते हैं उसी सोच और समझ के साथ हम समाज मे व्यवहार करते हैं. फिर एक प्रश्न था कि पढ़ने लिखने में कैसे सब्जेक्विटी और जजमेंटल होने से बचा जा सकता है? तो रेखा जी ने जवाब दिया कि हमारी सजगता ही हमें इनसे बचा सकती है.. इसके बाद समूह मे शिक्षण पर प्रश्न पूछे गए जिनका जवाब रेखा जी ने अपने कक्षा शिक्षण के अनुभव और उदाहरण दे कर दिया. इसी रोचक बातचीत के साथ समय सीमा भी खत्म होने पर थी. सभी साथी ध्यान से संवाद सुन रहे थे. पूरी बातचीत कहीं ना कहीं दिल के करीब थी क्योंकि हम ऐसी शिक्षिकाओं को सुन रहे जो हम जैसे ही बच्चों के बीच काम कर रहीं थीं और उन्हीं चुनौतियों को बीच जो हम सबके सामने होती हैं.. आज के इन दोनों मेहमानों को सुनना बहुत सुखद रहा. पढ़ते लिखते रहना क्यों जरुरी है एक शिक्षक के तौर पर ये जान पाना मेरे और मेरे ही जैसे अनेक शिक्षकों के लिए महत्वपूर्ण रहा.
पूरी बातचीत को अंत मे जगमोहन कठैत जी ने समेकित किया.6:15 बजे तक पूरी वार्ता चली और सबने सुनी.
कठैत सर ने सबका धन्यवाद किया और कहा कि कक्षा के ये अनुभव बहुत काम के रहे.
इसी के साथ सबने विदा ली.

26 अप्रैल 2020.

Sunday, April 26, 2020

किताबें बदलती हैं हमारे जीवन को

ऑनलाइन सेमिनार: प्रतिभा कटियार एवं रेखा चमोली के साथ*********************
-मनोहर चमोली ‘मनु’
आज की बातचीत की औपचारिक शुरूआत अशोक प्रसाद जी एवं जगमोहन कठैत जी ने की । जैसे-जैसे साथी जुड़ते रहे, साथी सभी का स्वागत करते रहे। आरम्भ से पहले ही 64 साथी जुड़ गए थे। श्वेता जी ने सन्दर्भ रखा। कहा, ''दैनिक जीवन में पढ़ने-लिखने की आदत को विकसित करने और बच्चों में कैसे पढ़ने की आदत विकसित करें? इस पर बात करेंगे। पढ़े लिखे शिक्षक और पढ़ते-लिखते शिक्षक दोनों की आवश्यकता है।''

दोनों के परिचय के बाद प्रतिभा जी हमारे सामने आई। प्रतिभा जी ने कहा,‘‘यह माध्यम हमें एक अवसर के साथ मिला है कि हमारे भीतर सीखने की ललक रहे। मैं आज भी बहुत कुछ सीखकर जाऊँगी। पढ़ना क्यों जरूरी है? जब इस सवाल को साझा करती हूं तो पता चलता है कि जवाब ऐसे आता है। पढ़ा है। पर ज़रूरी तो नहीं कि साहित्य सभी पढ़ें। हर दिन लगता है कि क्या पढ़ना है? कैसे पढ़ना है? सालों से पढ़ रहे हैं पर क्या हमें पता है कि हमें कैसे पढ़ना है? यह भी क्या हमें सुनना आता है? क्या हम अच्छे पाठक हैं? जब मैं अठारह-उन्नीस साल की थी तब शेखर एक जीवनी पढ़ा। अब दोबारा पढ़ रही हूं तो लगता है कि जाने हुए को और जानना है। फिर से पढ़ना लगता है कि नए तरीके से पढ़ना हो रहा है। मैं जो सोचती हूँ क्या मैं लिख पाती हूं। आजकल हम देख रहे हैं कि हम खूब मदद करते हैं। कृपा, मदद खूब हो रही है। क्या हैं ये शब्द। साहित्य को बरतना ज़रूरी है। मदद करना,कृपा करना होना चाहिए कि साथ में खड़ा होना चाहिए? मैं फिर कह रही हूं कि क्या हम पढ़ना जानते हैं। मैं तो पढ़ना सीख रही हूं। हम सबके भीतर एक नदी है। साहित्य हमें सूखने नहीं देता। साहित्य हमारे भीतर के जंगल को,हरे-भरे को सूखने नहीं देता। हमें मरने नहीं देता। साहित्य जो करता है, प्रकृति जो करती है शिक्षा जो करती है उनका स्वभाव क्या है? पूरी दुनिया का साहित्य क्या करता है? सबके लिए है न? कोरोना के समय में पूरी दुनिया इस बीमारी से लड़ रही है। पूरी दुनिया एक हो गई है। साहित्य भी भेद नहीं करता।''
कवयित्री प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘हम मनुष्य होंगे। समाज को क्या चाहिए? साहित्य और शिक्षा क्या करती है। शिक्षक खास है। वह सबको जोड़ता है। पढ़ने की आदत कैसे हो? हमें समझना होगा कि जहां मज़ा आता है तो क्यों? नहीं आता है तो क्यों? मुझे घर में पढ़ने की आदत मिली। जिन्हें घर से यह आदत नहीं मिली उन्हें हाथ बढ़ाना पड़ता है। यह स्वाद है। लत है। चस्का है। यदि इसकी शुरुआत हो जाए तो फिर छूटेगी। हमें यह आदत नहीं मिली तो हम बच्चों को यह आदत तैयार कर सकते हैं। ऐसे में शिक्षक की बड़ी जिम्मेदारी है। वह इसे करते हैं। कर सकते हैं।’’ प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘मैं बचपन को याद करती हूँ तो पाती हूं कि पापा बहस कराते थे। सवाल करने और जूझने की आदत बढ़ाई उन्होंने। क्या हम बच्चों के साथ कर सकते हैं। बच्चों से बात करें। बहस में शामिल हों। बच्चों से सवाल-जवाब करने चाहिए। हमें बच्चे गलत साबित करते हैं तो समझिए कि वे सही जा रहे हैं। घर में बच्चे जब टोकते हैं तो समझिए कि सही जा रहा है। यही तो चाहते हैं हम। घर में भी और स्कूल में भी। हिन्दी की किताबें देखें तो वह बहुत खूबसूरत हैं। भाषा की किताबों के सारे पाठ इतने खास हैं। यदि इसे ही बरत लें,सहेज लें तो बात बने। शिक्षक को ही यदि किताबों से प्रेम नहीं है तो कैसी विरासत बना रहे होंगे हम? क्या स्कूल में बच्चे संवाद करते हैं? सवाल उठाते हैं? मैंने साहित्य में ज़्यादा पढ़ाई नहीं की। पीजी के समय में मैंने देखा कि साहित्य को पढ़ाने वाले शिक्षक मुझे रुला देते थे। ऐसे साहित्य पढ़ा जाता है? पढ़ाया जाता है? एक शिक्षक के पास कितने बच्चे आते हैं। वे बच्चे यदि मनुष्य हो जाएं तो दुनिया कितनी खूबसूरत हो जाए। मैं कक्षा 4 में पढ़ती थी। पुस्तकालय में एक किताब मिली। सार यह है कि नक्सली मूवमेंट में युवक पड़ गया। पकड़ा जाना और पुलिस की कार्रवाई में 5 साल निकल गए। मैंने इसे पढ़ा। कैसे किताब हमारे जीवन को बदलती है? साहित्य हमें नज़रिया देता है। परखने का अवसर देता है। चित्रलेखा पढ़ी। जिन शिक्षकों को साहित्य से प्रेम है उनकी कक्षाओं में कुछ अलग होता है। यू ंतो सभी शिक्षक अपनी कक्षाओं में कुछ न कुछ होता है। शिक्षक का व्यवहार कक्षाओं में जाएगा। बच्चों के जीवन में जाएगा।''

प्रतिभा कटियार जी ने कहा,‘‘शिक्षक होना, बच्चों से प्यार करना। बच्चों को सवालों को तैयार करना अपने आप में अनूठा है।’’ पांच बजकर दस मिनट पर रेखा चमोली जी ने अपनी बात शुरू की। रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘प्रतिभा को सुनना लंबी प्रेम कविता को सुनना जैसा है। प्रतिभा जी से सहमति ज़ाहिर करते हुए मैं यह कहना चाहती हूँ कि यह मेरी ही बात है। मैं जानती हूं कि जो इस संवाद में शामिल हैं वह भी अपनी कक्षा में खूब बेहतर काम कर रहे हैं। शिक्षकों के पढ़ने-लिखने की बात पर बात आगे बढ़ाते हैं। मुझे लगता है कि हर व्यवसाय में कुछ खास होता है। शिक्षा में भी किताबें ज़रूरी हैं। हमें किताबें एक औजार के तौर पर दिखाई देती हैं। विषयवार शिक्षक और विषय की किताबों से नहीं पूरी प्रक्रिया में हमें बच्चों के सारे पढ़ाई के दिनों के तौर पर देखना होगा। जैसे जिस शिक्षक ने तोत्तोचान पढ़ी होगी। वह किसी भी तरह का शिक्षक है किसी भी विषय का शिक्षक है। वह बच्चों की उलझनों को समझेगा। पहला अध्यापक किताब भी शिक्षक के व्यवहार को दिखाती है। किताबें सवालों को सुनने-समझने का माध्यम बनती हैं। किताबों और किताबों में निहित शिक्षा प्रणाली के बारे में हम सही-गलत पर सवाल किए जा सकते हैं। मतलब यह है कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है। जो भी गड़बड़ हो रही है हमारी कक्षाओं में कुछ गड़बड़ है। देखा जाए तो अब तो नियमित कक्षाएं चल रही हैं। यदि कोई शिक्षक किताबें पढ़ता है तो उसके भीतर का मनुष्य सवाल करता है। हां या नहीं वाला नहीं होता। शिक्षक का पढ़ना जरूरी है। व्हाट्स एप या फेसबुक में चीजें जो आ रही हैं। जिसे एक तरह से पढ़ना माना जाए तो क्या हम उस पर सवाल करते हैं। सही-गलत पर विचार करते हैं? हम फाॅरवर्ड कर देते हैं। यदि हमने किताबें पढ़ी हुई होती तो शायद हम सोचते। क्या करना है क्या नहीं करना चाहिए। हमें पढ़ना चाहिए। देर से ही सही पर पढ़े। यदि हम शिक्षक हैं। पढ़ते-लिखते शिक्षक है तो हमारी कक्षा कैसी होगी। मुझे लगता है कि ऐसे शिक्षक के पूर्वाग्रह नहीं होंगे। मैं अपना उदाहरण देती हूं। अपने-अपने राम। ये भगवान सिंह जी किताब है। बचपन में पढ़ी थी। मुझे वह तर्कपूर्ण किताब लगी। पाठकों का नजरिया बदल देती है किताब। आप जो पढ़ने से पहले होते हैं पढ़ने के बाद बदलते हैं। शिद्दत से पढ़ाने वाला शिक्षक संकोची नहीं होता। उसकी कक्षा में वह निडरता से पढ़ा रहा होता है। वह सवालों का जवाब देता है। घर में यदि बच्चों को माहौल मिलता है तो असर होता ही है। हमारे स्कूलों में जो भी बच्चे आ रहे हैं उनके पास घर में पढ़ने के लिए स्कूली किताबों से इतर बहुत कुछ नहीं होता। छपी हुई चीज़ों से वे दूर हैं। ऐसे माहौल में हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। उन बच्चों को खुद से पढ़ने के लिए तैयार करने के लिए किताबें चाहिए। जिन बच्चों को पढ़ने के लिए किताबें मिलती हैं तो उन्हें घर में अलग से पढ़ाना सिखाना नहीं करता। हम शिक्षक कक्षा में चित्रों में बात कर रहे होते हैं। घरेलू बातें होंगी। घर जैसी बातें होंगी।’’


रेखा चमोली ने कहा,‘‘एक ओर हम कहते हैं कि बच्चे रुपए लेकर नहीं आने हैं। एक बच्ची के बैग में दस रुपए निकलते हैं। बच्चों को सुना जाता है तो पता चलता है कि बच्ची घर के लिए 10 रुपए की चीनी लेकर जाएगी। जब यह पता चलता है तो कितनी बातें,अनुभव मिलते हैं। एक शिक्षक की बात और एक बच्ची की बात दोनों महत्वपूर्ण है। इसी तरह जब हम किसी कक्षा में कुछ पढ़ा रहे होते हैं तो हम सिर्फ भाषण नहीं होता। कहानी नहीं होता। कहानी के चित्रों,चरित्रों पर बात होती है। हमारे व्यवहार करने पर भी बहुत सारे मूल्य स्वतः आ जाते हैं।’’

रेखा चमोली जी ने छःह साल की छोकरी कविता पर खूब बात की। बहुत सारी सामग्री यानि छपी सामग्री जब बच्चों को पढ़ने के लिए दी जाती है तो बात आगे बढ़ती है। कक्षा के नियम होते हैं। पर यदि हम बच्चों से अच्छे बात करते हैं तो सामग्री बच्चे संभालते हैं। बच्चे अपने मन से चयन करते हैं। पढ़ते हैं। पढ़ने के मौके देते हैं। हम स्वयं भी पढ़ें। बच्चों को समय देना पड़ता है। बच्चे पढ़े हुए या सुने हुए पर बात करें। उन्हें मौका दिया जाना चाहिए। बच्चों का पढ़ा हुआ सुना जाए। वे खुश होते हैं। सुनना,बोलना और पढ़ना का अवसर देते हैं और हम बच्चों को लिखने के लिए प्रेरित करते हैं तो उसके लिखे हुए पर रुचि दिखाते हैं तो अलग बात है। बच्चों का रुझान बढ़ता है। प्रातःकालीन सभा में वह बोलते हैं तो बात ही अलग होती है। दीवार पत्रिका में उनके साथ शामिल होना बड़ी बात है। दीवार पर चिपकने के बाद नहीं। दीवार पत्रिका के शुरू होने,बनाने में तो वह प्रेरित करने वाला काम है। बच्चे मिलकर जो खोजते हैं,पढ़ते हैं लिखते हैं। यह बड़ा काम है। समझकर पढ़ना-लिखना आ गया तो बच्चे भूलते नहीं हैं। शिक्षक को भरोसा हो जाए कि वह सही दिशा में काम कर रहा होता है तो वह करता है। वह अपना काम करता रहता है।


5 बजकर 38 मिनट पर सवालों का सिलसिला आरम्भ हुआ। अशोक जी ने मुदित जी की सहायता से सवालों का समेकन किया। कक्षा कक्ष से जुड़े हुए सवालों से इतर भी सवाल आए। सवालों के जवाब में पहले रेखा जी ने कहा,‘‘यदि घर में बहुत सारी किताबें हैं तो बच्चों को पढ़ने के लिए कहा जा सकता है। बच्चों को प्रेरित किया जा सकता है। बच्चों के साथ पढ़ी जाएं तो बच्चे पढ़ते हैं। अभिभावक किताबें ले आएं। बच्चे खुद पढ़े। सहजता से हो। दबाव में नहीं पढ़ाया जा सकता। माहौल दें बस। पढ़ने-लिखने से तार्किकता का जो मामला है तो किताबें जगाती हैं। जब हम देखते,सुनते और समझते हैं। माना किसी गांव का उपन्यास पढ़ रहे हैं तो हमें गांव का जीवन,रहन-सहन समझ में आता है। किताबें हमारा भ्रम भी तोड़ती हैं। जब हम बहुत सारे संदर्भों को पढ़ते हैं तो एक ताना-बाना बुनते हैं। फिर हम किसी एक पक्ष पर ही अपनी समझ नहीं बनाते। हमारे अनुभव और दूसरो के अनुभव से हम अपना रास्ता खोजते हैं। सोचने का नया आयाम मिलता है। फिर हम किसी का कहा हुआ यूं ही नहीं मान लेते। हमारा सोचना और मानना बनता है।’’


अन्य सवाल के जवाब में रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘एक ही तरह का पढ़ना संकुचित बना सकता है। लेकिन एक ही विषय पर अलग-अलग किताबें पढ़ंे तो समझ विस्तारित हो सकती है। लेखन के लिए कोई सलाह क्या हो सकती है? जब भीतर से सलाह आती है कि अब लिखना ही है तो लिखना हमारे विचार,भावानाएं और दर्द सामने आते हैं। शिक्षक के तौर पर लिखना तो अलग है। हम अपने शिक्षण को लिखें। हमारी सोच और समस्याएं रेखांकित हो सकती है। वह काम आती हैं। मुझे लगता है कि बच्चों को उनकी उम्र और रुचि के हिसाब से किताबें देनी चाहिए। फिर धीरे-धीरे चयन का अधिकार बच्चों को मिलना चाहिए। बच्चे बड़े की किताब भी पढ़ सकते हैं। पढ़ने की ललक पैदा हो चुकी है तो बड़ों की किताबें पढ़ी जा सकती हैं। पढ़ना-लिखना एकाकी प्रक्रिया भले ही है पर पढ़ने के बाद जब हम खुद में बदलाव महसूस होता है। हमारा पूरा बना हुआ इंसान जब सामने आता है तो समाज में हम जाते हैं तो हमारा व्यवहार बदला हुआ होगा। सकारात्मक होगा। फर्क तो आएगा ही। पढ़ते-लिखते हैं तो समाज के साथ व्यवहार में परिलक्षित होता है।’’

एक घण्टा पैंतीस मिनट के बाद भी आ रहे सवालों के जवाब देने की प्रक्रिया चलती रही। रेखा चमोली जी ने कहा,‘‘शुरू में लेखन में पढ़े हुए से प्रभाव रहता है लेकिन जैसे-जैसे हम पढ़ते जाते हैं तो हमारे लेखन में स्वतंत्रता आती है। समूह में पढ़ने की बात करते हैं तो हम कक्षा में इसलिए भी करते हैं कि बच्चे जब समूह में पढ़ते हैं तो वे एक-दूसरे की मदद करते हैं। पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में कक्षा में छूना,देखना क्यों प्रतिबंधित है? यदि समूह में वे बच्चे काम करें तो उसकी बात ही कुछ ओर है। बच्चे दो में छोटे-छोट समूह में पढ़ सकते हैं। चीज़ें बनाते हैं। समूह में पढ़ने के कई तरीकों से वह तेजी से पढ़ना और पढ़कर अपनी बात सुनाने की गति तेजी से सीखते है। अभिभावकों की गलतफहमी है कि साहित्य बच्चों की कोर्स को बाधित करता है। साहित्य कहीं न कहीं बच्चों की समझ को बढ़ाता है। पाठ्यक्रम को सीखने-समझने और विस्तार देने में मदद ही करता है साहित्य। किसी भी बच्चे का जो व्यक्तित्व बनता है तो स्कूली किताबों से ही नहीं बनता। किताबों का महत्व नकारा नहीं जा सकता।’’

एक घण्टा बयालीस मिनट की बातचीत के बाद रेखा जी ने अपनी कक्षाओं के अनुभव भी साझा किए। सवालों के जवाब में रेखा जी ने कहा,‘‘एकांत में मौलिक लेखन नहीं होता। हम जो बोलते,सुनते,लिखते हैं वह समाज का ही हिस्सा होता है। किसी बात को अपने तरीके से लिखना शायद मौलिक है। मैं निडरता के साथ जो लिखती हूं वह मौलिक कहलाया जाएगा। बच्चों को जानवरों से प्यार होता है। बच्चे अपनी प्रकृति को जानते हैं। कल्पनाशीलता में खिलौनों से बात होती है। जमीन को चोट कैसे लगती है। बाल मनोविज्ञान कल्पना के घोड़े दौड़ाने को सही मानता है। बच्चों को साहित्य में भी वह सब देना चाहिए जो उसके समाज में है। डायरी में बच्चों की मात्र दिनचर्या कैसे बदली जाए? लगातार और धीरे-धीरे प्रयास किए जाएं तो डायरी में दिनचर्या के साथ भाव भी आएंगे। यह बड़ों के साथ भी होता है। निरन्तर अभ्यास से यह आएगा।

अंत में प्रतिभा जी कनेक्ट हुई। उन्होंने जोड़ा,‘‘यह बात सही है कि एक ही विचार का साहित्य नहीं पढ़ना चाहिए। किसी के विरोध में या असहमति में जाने के लिए ज़्यादा पढ़ना होगा वह भी किसी पूर्वाग्रह के। हमें खुलेपन से चीज़ों को पढ़ना चाहिए। समझना चाहिए। हर तरह के साहित्य को पढ़ने से हम और खुलते हैं। माना कि मैं धर्म पर विश्वास नहीं करती तो मुझे समझना होगा कि मुझे धर्म की कितनी जानकारी है? तभी हम मुक्त होते हैं। किताबें अन्तिम नहीं होतीं। हम जीवन को भी तो पढ़ रहे होते हैं। हम सही साहित्य की ओर बढ़ते हैं हमारा जीवन भी तो है जिससे हम समझ रहे होते हैं।’’ 1 घण्टा 54 मिनट की बातचीत में अंत तक 94 साथी लगातार बने रहे। अंत में जगमोहन कठैत जी ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

Saturday, April 25, 2020

बस जरा सर पर हाथ रख देना...



 प्रतिभा कटियार
स्कूल से लौटते हुए उस रोज मेरा मन इतना बेचैन था कि कुछ सूझ ही नहीं रहा था. बेचैनी इतनी ज्यादा थी कि सोचा साथियो से साझा करुँगी तो शायद कुछ कम होगी लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ. वो दिन बीते आज महीनों बीत चुके हैं लेकिन अब तक वह बेचैनी जस की तस है. हाँ, इस बीच उस बेचैनी में कुछ नए आयाम जुड़े जरूर हैं. उस रोज जो हुआ वो कुछ भी अनोखा नहीं था, रोज जैसा ही था फिर भी बेचैनी क्यों हुई इस कदर.

वाकया कुछ यूँ है कि उस रोज मैं एक ऐसे स्कूल से लौट रही थी जहाँ मैं पहले भी चार-पांच बार जा चुकी थी. स्कूल के लगभग सभी 22 बच्चे मुझे और मैं उन्हें नाम से जानने लगे थे. हममें दोस्ती हो चुकी थी. पक्की वाली दोस्ती. मैं उन्हें कहानियां सुनाती, बदले में वो भी मुझे कहानियां सुनाते. बातें करते. उस रोज कक्षा 5 में कुछ समय बिताया. कक्षा 5 में 9 बच्चे हैं. सभी बच्चे पोटली की किताबें पढ़ते हैं, पोटली लाइब्रेरी का रजिस्टर बच्चे ही मेनटेन करते हैं. वो कहानियों को सिर्फ पढ़ते नहीं समझकर पढ़ते हैं और उस पर बातचीत भी करते हैं. उस रोज उन पढ़ी हुई कहानियों में उन्हें क्या अच्छा लगा इस पर लिखने वाला खेल हमने खेला. अनुभव यह है कि इस तरह अपनी मर्जी से लिखने को कहने पर बच्चों को अच्छा लगता है, खासकर तब जबकि उन्हें पता हो कि उनके लिखे को जांचा नहीं जायेगा. सभी बच्चों ने लिखना शुरू किया. फिर एक-एक कर बच्चों ने अपना लिखा हुआ पढ़ना शुरू किया. कक्षा के 3 बच्चे भुवन, सोमाली और रूद्र कॉपी से सर नहीं उठा रहे थे. ऐसा मालूम हो रहा था कि वो बहुत गंभीर होकर कुछ लिख रहे हैं. जब सारे बच्चों ने अपना लिखा पढ़कर सुना दिया तब भी ये 3 बच्चे कॉपी में ही सर घुसाए बैठे थे. मैंने प्यार से पूछा, जितना लिखा है उतना ही दिखा दो...तो उनके पास बैठे बच्चों ने कहा इनो लिखना नहीं आता मैडम. ऐसा कहने वाले बच्चे के चेहरे पर उपहास का हल्का भाव था, उन बच्चों ने सर और कॉपी में छुपा लिया. मैंने मैडम की ओर देखा. मैडम ने बहुत सहजता के साथ कहा, ‘इनको नहीं आता.’ ऐसी सहजता और वो उपहास मिलकर मुझे बेचैन करने के लिए काफी थे. लेकिन इससे ज्यादा मुझे फ़िक्र थी उन बच्चों की कि उन्हें कैसा महसूस हो रहा होगा. उन्हें सहज करने के इरादे से मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं, नहीं आता लिखना तो तुम ऐसे ही बताओ तुमने जो कहानी पढ़ी वो तुम्हें कैसी लगी.’ बच्चे खड़े तो गए लेकिन बोले कुछ नहीं. उनके हाथ में किताब थी लेकिन वो चुप थे. थोड़ी देर बाद भुवन ने कहा, ‘मैडम हमें पढ़ना भी नहीं आता.’

मेरे लिए यह समझना मुश्किल था कि इन बच्चों को अपना नाम तक लिखना नहीं आता था और न ही वे किताब का शीर्षक पढ़ पा रहे थे. जबकि अपनी पिछली 5 स्कूल विज़िट के दौरान मैंने इन बच्चों को काफी सक्रिय और सीखने को उत्सुक पाया था. ये हर गतिविधि में बराबर शरीक होते थे खासकर भुवन. वो तो क्लास का मॉनिटर भी है. मैंने उसे किताबें पढ़ते हुए भी देखा है और एक बार तो उसने किताब को पलटते हुए पूरी कहानी भी सुनाई थी. मैंने जब पूछा कि ‘तुम तो उस दिन कहानी सुना रहे थे न किताब से,’ तो भुवन ने इत्मिनान से कहा ‘वो तो मैं साथ वाले बच्चों को पढ़ते हुए सुनता हूँ तो समझ जाता हूँ कि किस पेज पर किस जगह क्या लिखा है इसलिए.’ अब भुवन मुस्कुरा रहा था. उसने और बाकी दोनों बच्चों ने, कक्षा के बाकी बच्चों ने और शिक्षकों ने यह मान लिया है कि ये तीनों पढ़ना लिखना नहीं सीख सकते. मैडम का कहना था कि ‘कुछ बच्चे नहीं ही सीख सकते, ये वही बच्चे हैं. सारे बच्चे सीख जाएँ जरूरी तो नहीं है न?’ ऐसा मैडम मुझसे कह रही थीं या खुद से पता नहीं लेकिन मैं परेशान थी यह सोचकर कि जो बच्चा दोस्त को पढ़ते देखकर यह समझ जाता है कि किस पेज पर क्या लिखा है वो खुद क्यों पढना लिखना सीख पा रहा है. ये बच्चे अनुपस्थित रहने वाले बच्चे भी नहीं हैं. भुवन की बड़ी-बड़ी आँखे और मुस्कुराकर आत्मविश्वास के साथ कहना कि ,’मैडम हमको पढ़ना भी नहीं आता, लिखना भी नहीं आता’ जैसे आत्मा को घायल कर रहा था. उसे स्कूल की व्यवस्था ने यह अच्छे से समझा दिया था कि कुछ बच्चे नहीं ही सीख पाते हैं और वो उन बच्चों में से हैं. सच कह रही हूँ महीनों बाद भी यह सब लिखते हुए भुवन की आँखें मेरे सामने हैं. ये हर उस बच्चे की आँखें हैं जो पढ़ना लिखना सीख पाने से दूर हैं, जो शिक्षा की रेल में एक अलग डिब्बे में सफर कर रहे हैं, कहीं भी कभी भी उतर जायेंगे. कोई कक्षा 3 के बाद कोई 4 के बाद कोई 5 के बाद. व्यवस्था भी इनके यूँ उतर जाने से बेचैन नहीं है क्योंकि ये बच्चे आंकड़े बिगाड़ते हैं. उसी स्कूल में भुवन ने कक्षा 1 में दाखिला लिया था. आज उसी स्कूल से कक्षा 5 पास करके जाने वाला है बिना लिखना पढ़ना सीखे. हालाँकि कि लिखने-पढने से इतर भुवन हिसाब का पक्का है, हर काम ठीक से करता है, नाटक, कविता, कहानी सबमें शामिल होता है.

अजीब मन मिला है कि हमेशा ही हार गये, पिछड़ गए, हाशिये पर छूट गए लोगों के करीब जाकर बैठ जाता है. मैंने क्या किया, कितना कर पायी और आज भुवन कुछ महीनों में अपना नाम और दोस्तों का नाम लिखने लगा है की यात्रा पर बात करना बेमानी है क्योंकि सवाल तो इससे काफी बड़ा है. ठीक इसी वक़्त मुझे राजस्थान के एक साथी द्वारा सुनाया गया ऐसा ही अनुभव याद आता है. बच्चे का नाम दिलखुश था, खूब शैतान इतना कि कक्षा में किसी को पढने लिखने न दे, सब सामान बिखेर दे, झगड़ा करे सबसे और पढ़े लिखे बिलकुल न. शिक्षक बार-बार उसके अभिभावकों को बुलाकर कुछ कहें तो अभिभावक भी उसे ही पीटना शुरू कर दें कि घर पर भी यही करता था वो. फिर कुछ महीनों तक जब फाउंडेशन की साथी ने उसके साथ काम किया तो पाया कि बच्चे का दिमाग बहुत तेज़ है और गणित में तो वो बेमिसाल है. फिर अल्मोड़ा की वो बच्ची याद आ गयी जो नीरू मैडम का पल्ला-पकडे पकड़े घूमती थी और किसी से बात नहीं करती थी, उसे भी पढने लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. फिर एक और बच्चा दिनेशपुर का याद आया जिसका स्कूल में आना व्यवस्था को खराब करने जैसा होता था. सिर्फ झगड़ा और गाली गलौज करना ही उसका काम था. वो पढता भी नहीं था और पढ़ना चाहता भी नहीं था इसलिए बाकि बच्चों की कॉपी फाड़ता था पेन्सिल छुपा देता था. बाद में उस बच्चे के शिक्षक ने पाया कि उस बच्चे को भूख भर खुराक ही नहीं मिल रही है न घर पर न स्कूल में. उसकी भूख अन्य बच्चों से ज्यादा थी और खाना उसे सबके बराबर मिलता था. फिर एक एक कर न जाने कितने उदाहरण आँखों के सामने तैरने लगे. एक बच्ची जिसे दीखता कम था, एक जिसकी माँ की मृत्यु हो गयी थी, एक जिसके पिता रोज माँ को शराब पीकर पीटते थे, एक जिसका भाई उसकी किताबें फाड़ देता था.

ये सब बच्चे स्कूल जाकर भी सीख नहीं पा रहे थे. दिक्कत तलब यह कि एक व्यवस्था के तहत यह मान लिया गया था कि ये कुछ बच्चे होते ही ऐसे हैं जो सीख नहीं पाते. या स्कूलों में इतना कम शिक्षक स्टाफ है और ऐसे हालात हैं कि अलग से इन बच्चों पर काम करने की सोचना भी मुश्किल है. तर्क सही हो सकते हैं, शायद होंगे भी, आंकड़ों में दर्ज सत्तर या अस्सी प्रतिशत बच्चों के सीख जाने से संतुष्ट भी हो लेंगे लेकिन वो आँखें पीछा करती रहेंगी जो सीखने की इच्छा से स्कूल में दाखिल हुई थीं.

सरकारी स्कूलों में जो बच्चे आते हैं व्यवस्था को उनके और उनके परिवेश के प्रति संवेदनशील होना कितना जरूरी है यह बात समझ में आती है. किसी भी तरह के सीखने की शुरुआत उसी संवेदना के बिंदु से होती है जहाँ सीखने की इच्छा और सिखाने में स्नेह का मिलन होता है. अपने ही एक साथी की कही बात मुझे किसी भी तरह के सीखने-सिखाने को लेकर बताया गया मन्त्र लगता है कि पहले बच्चों के सर पर हाथ रखो प्यार से, उनकी आँखों में देखो तो सही कितने सपने हैं वहां, उनसे दोस्ती तो करो फिर आ जायेया लिखना भी पढ़ना भी. सोचती हूँ कि शिक्षा का इतना बड़ा तन्त्र ऐसी भावुक बातों से तो नहीं चलने वाला तो पाती हूँ कि हमारे शिक्षा के दस्तावेजों में भी इस संवेदना की पूरी स्पेस है. यूँ ही नहीं सभी के लिए न्यायोचित शिक्षा, बच्चे पर केन्द्रित उसकी जरूरत पर आधारित शिक्षा, सीखने की प्रक्रिया में हर बच्चे की प्रतिभागिता की बात कही गयी होगी. चाहे नेशनल एजुकेशन पॉलिसी हो या एनसीएफ 2005 या नेशनल करिकुलम फॉर एलीमेंटरी एंड सेकेंडरी एजुकेशन. अभी हाल ही में, 2005 के राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (एनसीएफ) ने एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान किया है, जिसमें सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण समावेशी शिक्षा प्रदान करने के तरीके शामिल किए गए हैं। वह शिक्षकों द्वारा निम्नलिखित कामों को करने की जरूरत को स्पष्ट करती है:

· हर बच्चे की अनोखी जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना
· बच्चे पर केंद्रित, सामाजिक रूप से प्रासंगिक और न्यायोचित पढ़ाने/सीखने की प्रक्रिया प्रदान करना
· उनके सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में विविधता को समझना।

यानि मामला सिर्फ भावुक होने का नहीं है उस मर्म को समझने का है जहाँ ये बातें सिर्फ दस्तावेजों में दर्ज होकर न रह जाएँ कक्षा में हर बच्चे के जीवन से संवेदना के धरातल पर जुड़ सकें. बच्चों की जरूरतों को समझे बिना, उनके और उनके परिवेश को समझे बिना, उसके प्रति सम्मान का भाव लाये बिना इसे अमल में लाना मुश्किल है.

इसलिए जब कोई शिक्षक यह कहते हैं कि इन बच्चों के अभिभावक इन पर ध्यान नहीं देते, तो मुझे ‘इन बच्चों’ से और प्यार हो जाता है. और मैं शिक्षक साथियों से कहती कि सबका सीखना जरूरी है क्योंकि सीखना हक है सबका. ठीक उसी तरह जैसे जीवन पर हक है सबका. इसकी शुरुआत की पहली पैडागौजी है कक्षा में आये हर बच्चे से मन का रिश्ता बना पाना, उनका सम्मान करना और अपनी प्रक्रियाओं में थोड़ा अतिरिक्त चौकन्नापन शामिल करना कि कहीं कोई छूट तो नहीं रहा...

बीती रात की बारिश और तुम



कल रात बारिश हुई...रात भर...तेज़ नहीं मध्धम बारिश. मैं रात भर भीगती रही...कांपती रही. सुबह को उठी हूँ तो धरती सूखी है, पत्तियों पर, फूलों पर, तितलियों पर कहीं बारिश के नामो निशान नहीं हैं. लेकिन मैं खुद को भीगा हुआ ही महसूस कर रही हूँ. काँप रही हूँ. ज्यादा चाय बनायी है. धूप के करीब बैठकर चाय पी रही हूँ. यूँ कांपना बुरा नहीं है, ठिठुरना भी नहीं अगर धूप के कुछ टुकड़े मेहरबान हो जाएँ. जो थोड़ा सुखा भी दें और थोड़ी नमी रहने भी दें.

जीवन किसी राग सा होता है. उनहू...जीवन तो वैसा ही होता है जैसा होता है. इच्छाएं किसी राग सी होती हैं. कौन सा स्वर कोमल लगना है कौन सा मध्धम, कौन सा स्वर वर्जित है किस राग में और किस पहर में गाना है कोई राग...ऐसा ही तो है इच्छाओं का संसार. कि बस एक जरा सी, बहुत मामूली सी बात से सुख तर-ब-तर कर देता है और उससे भी बेहद मामूली, बेहद जरा सी बात पे हजारों टुकड़ों में बंटकर चकनाचूर भी हो जाता है मन.

राग साधना आसान नहीं...

चिड़ियों की आवाज इन दिनों बड़ा भरोसा बनी हुई हैं. क्या तुम्हारे शहर की चिड़ियाँ भी ऐसा ही मीठा गाती हैं? तुम भागते फिरते थे हमेशा कि तुम्हारे जीवन में स्मृतियों के लिए समय नहीं था. इन दिनों कैसे टालते होगे तुम स्मृतियों को वो आती तो होंगी ही, तुम 'अभी बिजी हूँ बाद में आना' कहकर अब जा तो न पाते होगे.

जब समूची दुनिया एक साथ मृत्यु के भय से दुबककर घरों में कैद है ऐसे में क्या तुम्हारा मुझे याद करना बढ़ गया है? बीती रात बारिश क्या तुमने भेजी थी ? क्या यह बारिश हमारे भीतर की नमी को सहेजने की बारिश थी...इस भरोसे की जल्द ठीक होगा सब और हम मिलेंगे ज्यादा प्यार से भरकर. क्या इस बारिश ने समूची धरती के लोगों को भिगोया होगा?

Thursday, April 23, 2020

तुम सपने में क्यों आये....


ध्यान हटाने से ध्यान नहीं हटता. उदासी झाड़ने से उदासी झड़ती नहीं. कुछ देर को भ्रम भले हो कि हम मुक्त हुए हैं. आजकल हर दिन खुद से मुंह चुराती फिरती हूँ. हर कुछ वो करने की कोशिश करती हूँ जिसमें मन लगे, लेकिन कोई दिन ढेर सारा रुदन दिए बिना नहीं जाता. जानती हूँ रोना बुरा नहीं लेकिन कहीं कुछ गहन क्षरित हो रहा है लगातार. हर रोज असहायता महसूस होती है, शर्मिंदगी महसूस होती है. हम खाए अघाए लोग हैं. उदास होते हैं फिर खुश भी हो लेते हैं.

कुछ वक्त की उदासी पर कोई सुखकर दृश्य कब्जा जमा लेता है. हम भूखे लोगों के बारे में खबरें देखकर काँप न उठें कहीं इसलिए या तो खबरें छुपा दी जाती हैं या हम चैनल बदल लेते हैं. हम रामायण, महाभारत देखने की लक्सरी जीते लोग हैं. कविताओं कहानियों में गोते लगाते लोग हैं. हम इतिहास के अपराधी हैं. हम अश्लील दृश्यों के गवाह हैं. कई बार उस तस्वीर का हिस्सा भी हैं.

देह में हरारत होना इस गहरी उदासी का हिस्सा भी हो सकती है. सांस भारी सी मालूम होती है. कुछ अच्छा नहीं लगता. इस वक़्त तुम्हें याद करना, सुबह की चाय पीते हुए खिलते हुए फूलों को देखना, पंछियों से बातें करना भी जाने क्यों दिन के किसी न किसी हिस्से में शर्मिंदगी में डुबो जाता है.

जानती हूँ तुम यही कहोगे कि 'तुम्हें सोचने की बीमारी है.' हाँ है तो सही. सोचने की भी महसूसने की भी. क्या करूँ. क्या तुम्हें भी यह बीमारी नहीं है?

क्या तुमने कोई खबर पढ़ी पिछले दिनों में किसी ग्रुप फोरवर्ड में, किसी ट्विट्टर, फेसबुक पर...कि इस विषाद काल में और गाढ़ी हो रही है मोहब्बत, जिन्हें कम जानते थे पहले उनसे बढ़ने लगा है प्यार. वो जो अनजान थे चेहरे वो तो बहुत प्यारे इन्सान थे...वो जिन्हें हम कम ही अपना समझते थे उन्हें अब गले लगाने का जी करता...कि यह काल मनुष्यता की मिसालें रख रहा है. पढ़ी हों तो, भेजना मुझे. और सुनो न पढ़ी या सुनी हों न ऐसी कोई खबर तो रो लेना थोड़ा सा...

मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, तुम्हें याद करना भी नहीं. हालाँकि कल तुम अरसे बाद सपने में आये थे और तुम्हारे अचानक सपने में आने के कारण मुझे देर हो गयी आज जागने में....

Wednesday, April 22, 2020

रोटी होती तो कोई बात थी- किशोर चौधरी

लिखना असल में अपनी पीड़ा से छुटकारा पाने के उपाय ढूंढना है. पढ़ना असल में ढूंढना है कुछ ऐसा लिखा हुआ जो हमारे भीतर उतरता जाए और हमारी बेचैनी को गले लगाकर रो ले. लिखने से दुनिया नहीं बदलती, लिखने से हम खुद कुछ बदल सकें काश.किशोर चौधरी को बरसों से पढ़ते आ रही हूँ. वो बहुत प्रिय लेखक हैं. कल से उनकी कुछ कवितायें लगातार साथ हैं. मैं इन कविताओं को बहुत बार पढ़ चुकी हूँ...सबको पढ़नी चाहिए.पाठ्यक्रम में पढ़ाई जानी चाहिए.- प्रतिभा 


सब पकवान लाइव थे
भूख पर अंधेरा छाया था।

* * *
पकवानों ने
खिड़की से झांक कर
सड़क पर चलती भूख को कोसा।

भूख ने ईश्वर से कहा
मरने से पहले घर पहुंचा देना।

* * *
तस्वीरें डालकर
अघाये हुए पकवान
इस सोच में गुम थे
कि नया क्या किया जाए।

भूख के पास दिखाने के लिए
ठीक ठीक एक शक्ल न थी।
* * *
पकवान झांक कर देख रहे थे
कि वे बीस की उम्र में कैसे थे।
भूख को झांकने की ज़रूरत न थी
वह तब भी ऐसी ही दिखती थी, 
जैसी अब है।
* * *
पकवानों ने 
एक दूजे को चैलेंज दिया।
भूख के मुँह से
एक शब्द भी न निकला।
* * *
जीवन को एक्सप्लोर करने को 
पकवान चित्र उकेरने,
नाचने, गाने और वीडियो बनाने लगे।
भूख अपने दोनों हाथों से
अंतड़ियों को चुप कराती रही।।
* * *
पकवानों ने कहा
कि घर से बाहर निकलते ही
किस के साथ दावत उड़ाएंगे।
भूख ने कहा
एक रोटी मिल जाये तो कितना अच्छा हो।
* * *
बड़ा पकवान
छोटे पकवान से मिलने आता है।
भूख कहीं नहीं जाती।
* * *
पकवान
कवि थे
लेखक थे
सम्पादक थे
चिंतक थे
कलाकार थे
मीडियाकर्मी थे
सलाहकार थे
युगदृष्टा थे।

भूख
बस भूख थी।
* * *
पकवानों ने कहा
ये कविताएं नहीं हैं।

भूख ने कहा
कविता हो तो भी इनका क्या करें।
रोटी होती तो कोई बात थी।
* * *

Tuesday, April 21, 2020

जीवन जिया मैंने

जीवन जिया मैंने
कहूँगी नहीं यह मरते हुए
अफ़सोस नहीं, न ही किसी पर आरोप लगाने की जरूरत
उन्माद के तूफानों और प्यार के कारनामों से अधिक
और भी हैं जरूरी चीज़ें इस दुनिया में

तुम जो पंखों से
दस्तक देते थे मेरी छाती पर
अपराधी हो मेरी युवा प्रेरणा के
तुम मान लो जिन्दा रहने का मेरा आदेश
मैं भी मानती रहूंगी तुम्हारी हर बात.

30 जून 1918




धैर्य चुकने लगा है

चुकने लगा है राशन 
तेल, मंजन
गैस सिलेंडर भी चुकने ही वाला है
न नहीं ले सके थे हम दो सिलेंडर
ऐसे ही चल रहा था काम
चुकने लगी हैं दवाइयाँ
जो बिना प्रिस्क्रिप्शन के मिलती नहीं
और प्रिस्क्रिप्शन देने वाले डाक्टर
व्यस्त हैं कहीं और

चुकने लगी है हिम्मत
धैर्य चुकने लगा है
रोजमर्रा के जिन कामों में झोंककर
खुद को संभाल रहे थे जरा
वो काम थकाने लगे हैं
न न आईना देखने को जी नहीं करता
उसमें उदासी दिखती है

सूखने लगी है वो बेल
जिसमें झमक के आने थे
मोहब्बत के फूल
उसकी जड में
जाने कौन डाल गया नफरत का मठ्ठा

नदियाँ ज्यादा मीठी हो चली हैं
और हम ज्यादा कड़वे...
(फोटो- साभार गूगल)

Monday, April 20, 2020

फ्रेंड रिकवेस्ट


पहले कुछ सौ के करीब थीं,
फिर हजारों हो गयीं
कुछ कुम्हलाने लगीं
बैठे बैठे
शायद उन्हें था इंतजार
कि एक रोज
स्वीकारा जायेगा उन्हें
कुछ में धैर्य था
कुछ में आवेग
कुछ ने तंज किये
कुछ ने गर्वीला समझा
कुछ चुपचाप बनी रहीं
इंतजार में

कुछ भूल चुकी थीं
कि वो हैं
भेजने वाले भी भूल चुके थे
भेजकर उन्हें
वो नहीं जानते थे
कि मैं दुनिया की तमाम मित्रताओं पर
आँख मूंदकर करना चाहती हूँ भरोसा
चाहती हूँ हर बढे हुए हाथ को
थाम लेना
हर पुकार की राह पर
दौड़ जाना चाहती हूँ

लेकिन बड़ा गन्दला किया है दुनिया ने
मित्रता के भाव को
खुद को बचाने की खातिर
कम ही थाम पाती हूँ बढे हुए हाथ
मित्रता सूची की सफाई
न करने पड़े इसलिए
सजग रहना चाहती हूँ
यूँ सजग होना भी क्या होता है
कि जानने के अर्थ कितने विशाल हैं
जिन्हें जाना उन्हें कितना कम जाना
और जो अनजान थे
उनसे मिलकर जाना खुद को भी कई बार
फ्रेंडरिक्वेस्ट की भीड़ में मिले
कितने नायाब दोस्त भी
और कितनों की दुनिया में
मेरी रिक्क्वेस्ट ने भी किया लम्बा इंतजार

जो मुझ तक पहुंची फ्रेंड रिक्वेस्ट
वो सब मुझे प्रिय हैं
लेकिन दोस्त बनने का सलीका
महज एक क्लिक या लाइक कमेन्ट भर नहीं
इनबाक्स में सेंधमारी तो हरगिज़ नही... 

यह दुनिया क्या हम बदल पायेंगे...?


हल्की हरारत सी महसूस हो रही है. बदलते मौसमों की आहट है. देह से होकर तो गुजरेगी ही हमेशा की तरह. सामान्य है सब लेकिन कहाँ सामान्य रह गया है कुछ भी. पिछले दिनों एक खबर देखी थी. एक सज्जन को कुछ भी नहीं हुआ था बस जरा हरारत थी, उन्होंने सतर्कता और जिम्मेदारी के चलते सोचा जांच करा लें...उसके बाद उन पर क्या क्या न बीती...15 माह की बच्ची को घर छोड़कर टेस्ट कराने गये थे लेकिन कहाँ कहाँ न धक्के खाते फिरे...7 दिन बाद रिपोर्ट मिली. हालात ऐसे कि जिस प्रक्रिया में जहाँ जहाँ और जिनके साथ उन्हें रखा गया न होता तो भी हो ही जाना था विषाणु से सामना.

कैसा तो समय है, कैसे मनुष्य हैं हम और कैसे हैं हमारे इंतजामात?

मनुष्यता की तो क्या ही कहें, कुछ रोज पहले एक दोस्त ने बताया कि उसके मोहल्ले में कुछ संस्थाएं आयीं राशन बांटने. उन्होंने मोहल्ले के कुछ रसूख वालों को दे दिया राशन और खुश होकर दान देने वाले सुकून को लेकर, मदद कर दी इसका सुख लेकर चले गये. दोस्त ने बताया कि राशन मोहल्ले के कुछ घरों में आपस में ही बंट गया. जरूरतमंदों को तो महक तक न पहुंची.

हालात यहाँ तक आ पहुंचे कि देने वालों में देने की होड़ लगी है लेकिन भूख तक खाने के पहुँचने का रास्ता इतना लम्बा है कि लोग दम तोड़ रहे हैं. हालाँकि उनके बीमारी से भूख से गरीबी से मरने की ख़बरें भी छुपा दी गयी हैं.

प्रकृति चिल्ला चिल्ला कर बता रही है कि कमीनों अब तो सुधर जाओ, इन्सान बन जाओ, इन्सान के भेष में हैवान न हो, ये जो गरीब हैं न इनका कोई धर्म नहीं है, इनकी कोई जाति नहीं है...कमरों में बैठकर चैनल बदलते हुए, लाइव होते हुए थोड़ा बहुत दान करके आप इस पीड़ा को समझ नहीं सकते जब तक दिल की धडकनों को थोड़ा गौर से नहीं सुनेंगे.

एक खबर पढ़ी थी कुछ दिन पहले, एक गरीब ने दान लेने से इनकार कर दिया. वो विकलांग था. उसने कहा मुझे ऐसा दान नहीं लेना जिसे देकर लोग अपनी छाती चौड़ी करके दान का सुख लेते दिखें. आज मुझे दान की जरूरत इसलिए पड़ी कि आपके इंतजाम ठीक नहीं थे...इसलिए मेरे कामगार हाथ बढे हुए हाथों में बदल गए. लेकिन मुझे दान नहीं चाहिए. सम्मान से दीजिये. हक की तरह भीख की तरह नहीं...

मुझे इस इन्सान से प्यार हो गया. कितनी ताकत चाहिए न अपने हक और सम्मान के लिए विपरीत हालात में भी भिड जाने के लिए. लेकिन कितनी विनम्रता चाहिए...अहंकार को छोड़ मनुष्य बनने के लिए...हम फूलों की, पत्तों की, नदियों की बात तो करते हैं...इनसे सीखते कुछ नहीं...हम कुछ क्यों नहीं सीखते?

मैं चाहूं तो तुम्हें एक फोन भी कर सकती हूँ कि चिठ्ठियाँ कौन लिखता है आजकल. लेकिन तुम शायद नहीं जानते कि तुम्हारा होना तुम्हारे होने को खंडित करता है. इन चिठ्ठियों को लिखते समय यह सुख है कि तुम हो और मैं भी हूँ...तुमसे बात करना खुद से बात करना ही तो है...मेरे भीतर की उदासी कहीं नहीं जाती...मेरे ही भीतर रह जाती है कहीं...कुछ फूल हैं जो हर रोज खिलते हैं और ज़िन्दगी के प्रति आश्वासन से भरते हैं, कुछ पत्ते हैं जो सर पर हाथ फेरने को डालें छोड़ देते हैं...और एक तुम्हारी स्मृति है...जो सुबह की चाय में हर रोज घुल जाती है.

यह दुनिया क्या हम बदल पायेंगे...?

Sunday, April 19, 2020

वो मिले मुझे


एक पत्ती मिली
उसके हरे में थोड़ा कत्थई घुलने लगा था
डाल मजबूती से पकड़ी हुई थी उसने
वो पत्ती मेरी उम्र की होगी शायद

एक तितली मिली
वो फूलों के ऊपर चक्कर काट रही थी
खुश लग रही थी,
उदास तितली कभी मिली नहीं मुझे
या मुझे तितलियों की उदासी
पढनी आती नहीं

एक पंछी मिला
वो मुझसे मिलने आया था
उसने शायद पढ़ी थी विनोद कुमार शुक्ल की कविता
और वो मुझसे मिलने आया
क्योंकि मैं उससे मिलने नहीं गयी
वो अपने साथ नदी क्यों नहीं लाया?

एक सडक मिली मुझे
जो कहीं नहीं जाती थी
एक मौसम मिला
जो अपने तमाम वैभव के बावजूद
मुस्कुराहट गुमा आया था कहीं

एक बच्चा मिला जो
जिसका बचपन खो गया था
वो उसे ढूंढ भी नहीं रहा था

एक आईना मिला
जिसने झूठ बोलना सीख लिया था...

जो स्वप्न मुझे नहीं आते...


आज एक याद के साथ आँख खुली. उंहू तुम्हारी याद के साथ नहीं, पुराने घर में आने वाले पंछियों की याद के साथ. वो अब भी आते होंगे न टेरेस पर. उन्हें कोई दाना देता होगा न? तोतों के उस झुण्ड में शरारतन इंट्री लेने वाला कबूतर अब भी शरारत करता होगा शायद. और वो बुलबुल का जोड़ा जो सामने वाले आम के पेड़ पर आता था...तब मुझे लगने लगा था वो मुझसे मिलने ही आता था... वो सारे तोते, कबूतर, बुलबुल सब मेरे दोस्त थे...मुझे उनकी याद आती है. क्या उन्हें भी मेरी याद आती होगी?

ओह...उन्हें नहीं आती होगी क्या मेरी याद? क्या वो मेरे बिना भी उतने ही खुश होंगे, वैसे ही चहकते होंगे? मेरे मन में उठा यह सवाल मेरी पोल खोल रहा है. हम क्यों चाहते हैं कि जिसे हम प्यार करते हैं वो भी हमें प्यार करे, क्यों हम ही किसी की ख़ुशी और किसी का दुःख बनना चाहते हैं? यह एक किस्म का आधिपत्य भाव है. पजेसिवनेस. अभी कुछ दिन पहले एक दोस्त ने पूछा था प्यार में पजेसिव होने के बारे में. कोई कुछ पूछे तो हम कुछ न कुछ कह ही देते हैं. लेकिन वो कुछ न कुछ असल में कुछ नहीं होता.

पजेसिवनेस को खूब जिया है मैंने, चाहा भी है कि कोई हो पजेसिव मेरे लिए. 'मुझे अपनी पलकों में छुपा लेना, दिल में कैद कर लेना, दुनिया से छुपा के रखना' ये सब कहाँ से आया प्रेम में. और प्रेम इन सबसे दूर बैठा मुस्कुरा रहा होता है...वो पंछी बन उड़ जाता है...हम उसकी राह तकते रहते हैं. फिर वो कभी लौटता है, बैठता है पास, पूछता है हाल फिर उड़ जाता है. कभी वो नहीं भी लौटता...हम इंतजार करते रहते हैं...प्रेम पंछी नहीं है, इंतजार है...क्योंकि जब वो उड़ जाता है तब कितना सारा रह जाता है, उससे भी ज्यादा जब वो था...

छोड़ो न ये सब. आज इतवार की सुबह है...इसमें कुछ इत्मिनान है. इस इत्मिनान में मैंने आज रुस्तम जी की कुछ कवितायें पढ़ी हैं. उनकी कवितायेँ पढ़ते हुए लगता है पानी पिया हो....कुँए का पानी बिसलरी का नहीं, फ्रिज का भी नहीं. अजब सा सलोनापन है इन कविताओं में. मध्धम सी आवाज है इन कविताओं में. यह आवाज हमसे बात करती है. हमारे साथ रहती है...'जो स्वप्न मुझे नहीं आते, वो कहाँ जाते होंगे...'. दो पन्ने वॉन गॉग के भी पढ़े. पढ़े हुए को फिर से पढ़ना आराम दे रहा इन दिनों.

कितना कुछ होता है इन दिनों कहने को...लेकिन कहना क्यों है. शांत रहना भी एक ढब है...देर तक खिड़की के उस पार टंके आसमान को देखना भी एक ढब है...

सोचना उनके बारे में जो अचानक ख़बरों में आते हैं किसी जलजले की तरह और फिर गायब हो जाते हैं मुसलसल जारी रहता है. हमेशा से ख़बरों के उस फौलोअप के बारे में सोचती हूँ जो अख़बारों में आता नहीं कभी. खबर से गायब होना या कर दिया जाना 'सब ठीक' हो जाना नहीं है, ठीक महसूस करवाए जाने का वहम क्रियेट करना है. हम क्रियेट किये हुए समय में जी रहे हैं, भावनात्मक स्तर तक इस क्रियेटेड, क्राफ्टेड के शिकार हैं...तभी तो जब सामने है जीवन हमें वो दिख ही नहीं रहा. हम जीवन नहीं सहेज रहे, खबरों में गुम हो रहे हैं. क्राफ्टेड और क्रियेटेड भावनाओं के संसार में गुम हो रहे हैं हम. मैंने लॉकडाउन डेज़ की शुरुआत होते ही सचमुच फिजिकल के साथ सोशल मीडिया डिस्टेंसिंग भी की है. इस दौरान सबको याद किया उन सबको जिनकी याद ठिठकी हुई थी जेहन के दरवाजे पर.

इधर नए पंछियों से दोस्ती हुई है. पहले वो खिड़की तक भी मुश्किल से आते थे इन दिनों घर के भीतर भी मजे में टहलने लगे हैं. आहट से घबराते नहीं हैं...जैसे पुराने घर के पंछी ढीठ हो गए थे कि प्लेट में रखा सैंडविच साथ में खाने लगे थे ये भी उसी राह पर हैं...ये पंछी उन पंछियों की याद लेकर आये हैं. ये उन लोगों की याद लेकर भी आये हैं जो दृश्य से बाहर कर दिए गए हैं. दृश्य सिर्फ सुनहरे क्यों होने चाहिए? जागना तो बताना जरूर...फिलहाल चाय बनाती हूँ फिर से...तुम्हारी भी बना लूं ? 

Saturday, April 18, 2020

ये मेरे शहर की धूप है


चाय पीना बढ़ गया है इन दिनों. यह सोचना बढ़ने की निशानी है. बस एक ही बात ठीक है इन दिनों कि नींद आ जाती है लेकिन इसमें एक बात बुरी भी है कि नींद में सपने बहुत भयावह आते हैं. सपनों में तुम क्यों नहीं आते?

वैसे अच्छा है तुम नहीं आते. वरना तुम सपने में भी हम लड़ते ही. ऐसा लगता है तुम्हें मुझसे प्यार है, तुम्हें मेरी फ़िक्र है यह जताने का एक ही तरीका सीखा है तुमने 'डांटना'. इसमें भी तुम्हरा पुरुषोचित अहंकार ही होगा.

इतना अहंकार कहाँ से आता है पुरुषों में. इतने बरसों का साथ है या कोई दमित इच्छा कि अब तुम्हारा यह अहंकार बुरा नहीं लगता. सोचती हूँ कितनी ताकत लगानी पड़ती होगी तुम्हें खुद को रोकने के लिए यह कहने से कि तुमको प्यार है...

प्यार कहाँ नहीं था. कब नहीं था का हिसाब लिखने बैठती हूँ तो चारों तरफ बुलबुले से उड़ने लगते हैं जैसे फिल्मों में होता है न ड्रीम सीक्वेंस में...हंसो मत. सुनो, धूप सरककर करीब आ गयी है. इस वक्त जब मैं तुमसे बात कर रही हूँ धूप लैपटॉप में झाँक रही है मानो कह रही हो 'मेरे बारे में भी लिखो न...' धूप तुम्हें याद कर रही है. यह मेरे शहर की धूप है, यह तुम्हें जलाएगी नहीं, ठंडक देगी. उदासी पोछेगी तुम्हारी.

देर तक सोना बंद करोगे न जिस दिन उस दिन तुम्हारी सुबह की धूप से दोस्ती कराऊंगी. इस धूप में हल्की सी ठंडक है. कल रात बारिश हुई थी, पत्तों पर बीती रात की बारिश के निशान हैं ठीक वैसे ही जैसे मेरे चेहरे पर होते हैं निशान तुम्हारी स्मृति के.

कभी-कभी सोचती हूँ स्मृति न हो तो क्या हो....फिर डर जाती हूँ. सोचना मुश्किल हो जाता है. इन स्मृतियों ने ही तो संभाल रखा है. क्या स्मृतियाँ सबको संभाल लेती हैं. क्या प्रेम सब कुछ ठीक कर देता है? क्या प्रेम भूख से लड़ सकता है, गरीबी से लड़ सकता है? जिन्हें रोटी चाहिए उन्हें अगर प्रेम से चूम लिया जाय तो क्या उनकी भूख कुछ कम होगी? क्या उस बच्चे को उसकी माँ ने बार-बार चूमा नहीं होगा जिसने भूख से दम तोड़ दिया. क्या उस पिता ने अपने बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए प्रेम से नहला न दिया होगा जो दर्द से तडप रहा था और जिसके इलाज का कोई इंतजाम नहीं था पिता के पास, क्या उस पुत्र ने अपने बीमार पिता को कम प्यार किया होगा जिसे ऑटो
वाले ने किसी वायरस के डर से बीच सडक पर उतार दिया था और बेटा पीठ पर लादकर पिता को अस्पताल लेकर दौड़ा होगा...?

नवाज़ुद्दीन की फिल्म याद है जो हमने साथ में देखी थी' salt and pepper'. प्रेम सचमुच भूख के बाद आता है, बीमारी से बचने के बाद आता है, रोजगार पाने के बाद आता है, और अक्सर इन सबमें भटकता हुआ खो भी जाता है. लेकिन ऐसे ही वक़्त में प्रेम सबसे ज्यादा याद आता है कि सदियों से भरी गयी नफरत को अगर हरा पाए होते तो हालत इतने बुरे न होते. काश कि हम प्रेम से भरे मनुष्य होते पहले बाकी कुछ भी बाद में...

दोस्त मोहन गोडबोले ने बांसुरी एक टुकड़ा भेजा है उदास मौसम से लड़ने के लिए...तुम्हें भी भेज रही हूँ...

Wednesday, April 15, 2020

भूख अब पेट में नहीं रहती


बरसों बरस चलते जाने से
पैरों में छाले उभर आये हैं
बिवाईयां चटखकर खाई बन गयी हैं
ये खाई सदियों पुरानी है
यह सूखी रोटी और पिज़्ज़ा के बीच की खाई है
ये एसी के बिना न रह पाने और
लाठियों से पिटकर भी जीने की आस में
चलते जाने की खाई है
ये 99 प्रतिशत नम्बरों की चिंता
और भूख से तड़पकर मर जाने वाले
बच्चों के बीच की खाई है

जानते हैं, लाठियां सिर्फ गरीब की पीठ पर पड़ने के लिए बनी हैं
लाठी खाकर भी मिले खाना तो बुरी नहीं लाठी
लेकिन सिर्फ लाठी खाकर
पानी पीकर सोना मुश्किल होता है
खुद भूखा रहना आसान होता है
बच्चों को भूख में देखना मुश्किल होता है
बरसात में टपकती, छप्पर वाली छत
और बिना दरवाजे के गुसलखाने वाले एक कोने को
घर कहना बुरा नहीं लगता
बुरा लगता है
उस घर तक पहुँच न पाना तब
जब सारे देश को घर पर रहने को हों निर्देश
जब विदेश में रहने वालों को
लौटा लाया गया हो अपने देश

हम बिदेश तो नहीं गए न साहब
हम तो आपकी सेवा में थे
हम ड्राइवर थे, धोबी थे, रसोइया थे
हम घर की साफ़ सफाई वाले थे
सडकें, गटर साफ़ करने वाले थे
इत्ती बड़ी बीमारी तक हमारी कहाँ थी पहुँच
कि हम तो भूख से ही मरते आ रहे हैं सदियों से
क्यों हम गरीबों की घर पहुँचने की इच्छा को
लाठी मिलती है
और चुपचाप जहाँ हैं वहीं रुक जाने की मजबूरी को
भूख, बेबसी और मौत...

रोना नहीं आता अब
कि आंसू सूख चुके हैं
नींद नहीं आती कि उसकी जगह नहीं बची आँखों में
वो अब पाँव में रहती है
कि पाँव बेहिस हैं चलते जाते हैं
भूख अब पेट में नहीं रहती
वो रहती है चैनलों में
एंकरों के मुंह से झाग उगलती नफरत में...

Monday, April 13, 2020

स्याह सन्नाटे के दौर में गुब्बारों की आमद


- प्रतिभा कटियार

लॉकडाउन का चौथा दिन था. सड़को पर सन्नाटा पसरा हुआ था. वही सड़कें जो किसी वक़्त ट्रैफिक जाम से कराहा करती थीं. इतनी शांति चारों ओर जैसे किसी और ही जहाँ में आ गए हों. लेकिन इस शांति में उदासी है. अफरा-तफरी वाली, भागमभाग वाली जिन्दगी से कुछ पलों को निजात तो चाही थी लेकिन वो ऐसे मिलेगी सोचा नहीं था. उदासी से घिरे मन के साथ उस रोज जब खिड़की से खाली सडक को देख रही थी तब अचानक साइकल पर एक गुब्बारे वाला आता दिखा. सुबह नौ बजे का वक़्त था. मुझे उस गुब्बारे वाले का चेहरा नहीं दिखा लेकिन गुब्बारों में उम्मीद दिखी जैसे रोज खिलते फूलों में दिखती है. वो गुब्बारे वाला जानता तो होगा कि कितना भला होगा उसका कुछ गुब्बारे बेचने से. जब लोग राशन सब्जी लेने को परेशान हों ऐसे में भला गुब्बारों के बारे कौन सोचता है फिर भी वो निकला है गुब्बारे लेकर. कुछ घंटो की छूट में उसे यही सूझा? उसे नहीं सूझा राशन की दुकान तक दौड़ जाना, उसके मन में क्या होगा…क्या जाने. गुब्बारे वाला चला गया लेकिन मुझे उम्मीद से भर गया. जब एक गुब्बारेवाला अपने लिए रास्ते बना रहा है तो हम क्यों सिर्फ उदासियों को ओढ़े बैठे रहें.

उसी रोज उदासी को किनारे लगाकर बच्चों को फोन लगाती शिक्षिका के चेहरे पर चमक लौट आई. बहुत सारे शिक्षक साथियों के पास वक़्त नहीं है दिया और थाली पर फेसबुक पर विमर्श करने का. उनके पास अब पहले से ज्यादा काम है. वो बच्चों से फोन पर सम्पर्क में हैं. उनके परिवारीजन की खैरियत ले रहे हैं. और यथासंभव मदद करने की कोशिश कर रहे हैं. उत्तराखंड के सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले बहुत सारे शिक्षकों से बात करते हुए महसूस हुआ कि असल में शिक्षक होना असल में होता क्या है. शिक्षक न सिर्फ समुदाय की मदद के लिए रास्ते निकाल रहे हैं, उस मदद में प्रशासन को सहयोग कर रहे हैं बल्कि बच्चों को चारों तरफ छाई नकारात्मकता से बचाने की कोशिश ही कर रहे हैं.

चूंकि ये बच्चे जिस समुदाय से आते हैं वहां ज्यादातर रोज कमाने और रोज खाने जैसे हालात हैं और शिक्षकों से ये लोग सीधे सम्पर्क में होते हैं इसलिए इनके लिए आसान होता है सही व्यक्ति तक पहुँच पाना. कुछ शिक्षकों ने बच्चों से रोज बात करने का और उन्हें फोन पर कहानियां सुनाने, कवितायेँ सुनाने का काम शुरू किया है. कुछ शिक्षकों ने उन्हें फोन पर कुछ काम देना शुरू किया है. स्मार्ट फोन सबके पास नहीं होते हैं यह जानते हैं शिक्षक इसलिए शिक्षक साथियों ने टेक्स्ट मैसेज के जरिये, पहेलियाँ, सवाल आदि भेजकर उन्हें हल करने को बच्चों को प्रेरित किया है. शुरू-शुरू में तो बच्चों और उनके अभिभावकों को यह समझ में नहीं आया लेकिन टीचर्स ने जब फोन करके उन्हें इस प्रक्रिया के बारे में समझाया तो उन्हें अच्छा लगा. सबसे ज्यादा उन्हें अच्छा लगा कि मैडम, सर लोग उन्हें याद कर रहे हैं. अपनेपन के रिश्तों में ढले बिना भला कौन सी शिक्षा हुई है यही वो वक़्त है जब शिक्षक और शिक्षार्थी के रिश्तों को निखरना है. इसी समय में शिक्षक बच्चों से कह पा रहे हैं कि हम सचमुच आपके साथ हैं, सिर्फ कहने के लिए नहीं.

हमने जिन भी शिक्षकों से बात की, जो समुदाय के लिए मदद की और बच्चों के साथ शिक्षा को लेकर कुछ कर रहे हैं सभी ने उनके कामों का जिक्र न करने की बात कही. इसमें उतरकाशी, चमोली, बागेश्वर, देहरादून समेत कई जगहों के शिक्षक शामिल हैं. यह उनके काम का जिक्र न करने की बात उन शिक्षकों के प्रति सम्मान को और बढ़ा देता है.

कौन कहता है कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक सिर्फ आराम पसंद होते हैं. कम से कम उत्तराखंड के शिक्षक तो उनसे की जा रही तमाम अपेक्षाओं से कहीं आगे तक करने की सोच भी रहे हैं और कर भी रहे हैं.

कहीं औनलाइन क्लासेस चल रही हैं, कहीं फोन पर इमला बोला जा रहा है, कहीं आधी कहानी सुनाकर उसे पूरा करने को कहा जा रहा है और कहीं बच्चों को कुछ मजेदार सवालों में, पहेलियों में उलझाया जा रहा है. मुहावरों और कहावतो को ढूंढकर लाने को भी कहा जा रहा है, पहेलियों में मम्मी पापा को भी शामिल करने को कहा जा रहा है.

इस बुरे वक्त से लड़ने का यह तरीका भी तलाश रहे हैं उत्तराखंड के कुछ शिक्षक साथी. शिक्षक संगठन भी समुदाय की सहायता में पूरी तैयारी और सकारात्मकता से जुटे हैं. यह वक़्त बीत जाएगा, हम काम पर लौटेंगे और जब इस दौर के दिनों को याद करेंगे तो ये कहानियां भी याद आएँगी और वो गुब्बारे वाला भी…

(नैनीताल समाचार में प्रकाशित-https://www.nainitalsamachar.org/corona-aur-gubbare-wala/?fbclid=IwAR2DaaMGmq2Ucac26rdIrZxQa9cJcizPEjDHJl2cBFsbSZipZc4YcdlqiCg)

तेरी खुशबू उगी है...


देखो, खुशबू उगी है...तुम बो गये थे इंतजार के जो बीज वो खिल रहे हैं. महक रहे हैं. ये खुशबू मुझसे हर वक़्त बात करती है. हर वक्त मैं इस खुशबू को ओढ़े फिरती हूँ. बौराई सी रहती हूँ. कल एक चिड़िया खिड़की पर आई देर तक मुझे देखती रही. मैंने उससे पूछा, 'क्या देख रही हो?' वो हंस के उड़ गयी...

वो क्या देख रही होगी, क्यों उड़ गयी होगी भला? क्या उसने तुमसे सीखा है यूँ  देखने का ढब कि जब जी भर के देखने का जी चाहे अपनी नजरें फेर लेना.

तुम्हारे प्यार में प्यार के सिवा सारी बातें होतीं हैं..ये ढब इतना सुन्दर है, इतना नायाब कि सारा कहा फिजूल लगता है. सुनो, तितलियों का एक जोड़ा देर से सूरजमुखी के फूलों पर मंडरा रहा है. वो गुलाब पर क्यों नहीं मंडरा रहा होगा, बोलो? हंसो मत मैं जानती हूँ इन तितलियों ने सीखे हैं ढब सब तुमसे...

धूप और छाया का खेल देखते बनता है. धूप धीरे धीरे जगह बदलती जाती है...टिकती नहीं यह न टिकना
ही तो शाश्वत है. किसी मौसम में धूप की ओर भागना और किसी मौसम में धूप से बचकर भागना. धूप शाश्वत है...प्रेम शाश्वत है, मृत्यु शाश्वत है...बाकि सब नश्वर...

इन दिनों सारी दुनिया मौत के भय से जूझ रही है मैं अपने भीतर और घना प्रेम उगते हुए महसूस करती हूँ. जो प्रेम जी चुका, जो प्रेम में हो उसे मृत्यु का भय नहीं रहता. मुझे भय बस इस बात का है कि उनका क्या जो प्रेम में नहीं हैं, जो धूप को मुठ्ठियों में बांधना चाहते हैं, जो छाया को कसकर बांधकर रख लेना चाहते हैं. जो खुशबू को लॉकर में छुपाकर रख आना चाहते हैं...बिना जिए मर जाने वाले लोग कितने निरीह होंगे न?

आओ चलें, बहुत काम बाकी है...प्रेम का जन्म तो संसार के घावों पर मरहम रखने को हुआ है न? 

Sunday, April 12, 2020

तुम सोते हुए मुस्कुराना मत...


क्या तुमने मुझे अभी-अभी इसी पल याद किया है. मुझे ऐसा क्यों महसूस हुआ? 'मैं तुम्हें कब याद नहीं करता' की तुम्हारी बात मेरी सुबह की चाय में मिठास बनकर घुली हुई है.

क्या तुमने सुबह की चाय पी ली होगी? या चाय पीने की इच्छा को समेटकर करवट बदल कर फिर से सो गये होगे? क्या तुम थोडा और सोकर उस सपने को बचा रहे हो जिसमें हम दोनों साथ में चाय पी रहे थे?

एक बेहद मुक्कमल सुबह को तुम्हारा ख्याल महका रहा है. इस ख्याल में मैं तुमसे झगड़ रही हूँ. तुम कभी कोई काम ठीक से क्यों नहीं करते? कुछ भी नहीं. न आये ठीक से, न गए ठीक से. न याद किया ठीक से न भूले ही ठीक से...तुम मेरे झगड़ने को मुग्ध होकर देखते हो, 'ठीक क्या होता?' तुम पूछते हो?

ह्म्म्मम...जो हथेलियों पर रखा होता है वो अक्सर ठीक नहीं लगता, वो ठीक लगता है जो छिटक कर दूर चला जाता है. तुमने ठीक कहा था, तुम्हारा जिन्दगी में न रह जाना असल में जिन्दगी में तुम्हारा ढेर सारा बिखर जाना ही तो है.

एक रोज तुम्हारी सिगरेट बुझाते हुए थोड़ी सी सुलग भी गयी थी मैं....वही आंच जिन्दगी की आंच बनी है अब तक. जानती हूँ तुमने सिगरेट पीना छोड़ दिया है, सोचती हूँ कभी मिलोगे तो हम साथ में पियेंगे...सिगरेट नहीं जिन्दगी.

'जितना तुम्हारे साथ हूँ, उतना तो खुद के साथ भी नहीं...' कहीं से आवाज आती है. यह तुम्हारी ही आवाज है. फोन की घंटी की बजी नहीं. कोयल जरूर बजे  सौरी बोले जा रही है.

तुम सोते हुए मुस्कुराना मत, पकडे जाओगे मेरी याद के साथ...

तुम चाय पीना कब सीखोगी कहकर जो शक्कर बढ़ा देते थे न मेरी चाय में...वो मीठा जिन्दगी में घुला हुआ है.

Saturday, April 11, 2020

कुछ कह रहा है यह जीवन...


सुबह की चाय के साथ ढेर सारे सवाल लिए लॉन के उस कोने में बैठी हूँ जो मुझे दिन भर ललचाता है. फूलों से भरा कोना. मुझे यहाँ बैठना असीम सुख से भरता है. फूलों से भरी क्यारियों के बीच बैठना, चाय पीना, पंछियों की तस्वीरें खींचना, फिर कुछ देर अख़बार पलट चुकने के बाद वॉन गॉग से गप्पें लगाना. गॉग कहता है 'हमें पढ़ना सीखना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे हमें देखना चाहिए.' वो ठीक कहता है. हमें साँस लेना भी सीखना चाहिए, भूख को महसूस करना भी. जो है के उस पार देखना उसे जो नहीं है...या ठीक इसके उलट भी.

बहुत सारा लालच रहता है इन दिनों ज्यादा जी लेने का. कि जिन्दगी का भरोसा तो कभी नहीं रहा लेकिन इन दिनों अविश्वास बढ़ गया है. हर दिन को आखिरी दिन की तरह जीना चाहती हूँ, जीते हुए सुख से भर उठती हूँ फिर अचानक गालों पर कुछ बहता हुआ महसूस करती हूँ. कुछ पिघल रहा है भीतर.

संगीत सुनने जाती हूँ तो मेहँदी हसन, जगजीत सिंह, किशोरी अमोनकर, कुमार गन्धर्व सबको सुन लेना चाहती हूँ, मालकोश, भैरवी, तिलक कामोद , सारंग सारे राग फिर से जीवन में घोल लेना चाहती हूँ कि अचानक प्रहलाद टिपनिया कबीर गुनगुनाने लगते हैं. सुबह जल्दी से बीत जाती है....इसे न जाने कहाँ जाने की जल्दी है.

पढ़ने की कोशिश में लोर्का, ब्रेख्त, अन्ना अख्मतोवा, फहमीदा रियाज, निर्मल वर्मा, लाल बहादुर वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, वॉन गॉग सब आपस में गुंथ जाते हैं. इन सबके बीच से निकलकर चुपचाप किसी पेड़ के नीचे बैठकर सामने वाले पेड़ पर बैठे शरारती कबूतरों के खेल देखने लगती हूँ.

आजकल दिन के खाने की छुट्टी है. यह बेटी का बनाया हुआ नियम है. उसे बहुत सारे लोगों की भूख महसूस होती है. उसने एक वक़्त का खाना स्थगित किया है. उसका नियम मुझे पसंद है. वो कहती है इसी देश में कितने लोग भूख से लड़ रहे हैं और हम...चारों पहर ठूंस रहे हैं. मैं चुप रह जाती हूँ. यूँ एक वक़्त के खाने का गायब होना काफी राहत लेकर आया है. घरेलू काम घटे हैं और इस बचे हुए समय में जेहनी उथल पुथल बढ़ गयी है.

ज्यादा देख पा रही हूँ अपने ही विचारों पर पड़ी धुंध को. कितनी परतें हैं अभी जो अस्पष्टता बनाये हुए हैं. हमारे विचार भी कहाँ साफ हैं. बस इतना ही समझ सकी हूँ खुद से, ईमानदारी से कि बहुत सीखना, बहुत जानना शेष है, जिन्दगी की पहली कक्षा की विद्यार्थी हूँ...थोड़ी कन्फ्यूज़, थोड़ी बेशऊर...

कितना कुछ कह रहा है यह जीवन...

Friday, April 10, 2020

तो आज मारीना मारीना नहीं होती...

शीला पुनेठा द्वारा लिखी एक समीक्षा। किताब है-मारीना। जीवनीकार हैं- प्रतिभा कटियार। शीला ने न केवल खुद पढ़ी बल्कि पाठ कर मुझे भी सुनाई। मैं तो लिखने की हिम्मत नहीं कर पाया लेकिन उन्होने लिख डाली।किताब बेचैन करने वाली है। पढ़ने वाला प्रतिक्रिया दिये बिना अपने आपको नहीं रोक सकता है। जीवनी को जिस उतार-चढ़ाव के साथ प्रस्तुत किया गया है ,वह पढ़ने वाले को उपन्यास का आस्वाद प्रदान करती है। इस किताब को तैयार करने में निसन्देह प्रतिभा को बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी।सच में उन्होने इस किताब को लिखते हुए मारीना को जिया है। वह खुद रोयी हैं। गहरा आत्मलाप किया है। वह मारीना के बाहर और भीतर, दोनों को उजागर करने में सफल रही हैं। केवल मारीना ही नहीं उन तमाम लोगों ,जो उनके समकालीन थे, को चित्रित कर पाई हैं। जिसके चलते मारीना का पूरा समय और समाज जीवन्त हो उठा है। मारीना के व्यक्तित्व व कृतित्व से हमारा गहरा परिचय कराती हैं। उनको और अधिक पढ़ने को प्रेरित करती हैं। मारीना का बहुत सारा साहित्य है जो अभी तक हिंदी के पाठकों के सामने नहीं आ पाया है।आशा है प्रतिभा इस काम को करेंगी ,उनमें ऐसी प्रतिभा है। एक अच्छी किताब के लिये उनको बहुत-बहुत बधाई। संवाद प्रकाशन का धन्यवाद।-  महेश पुनेठा 


- शीला पुनेठा 
रूस की महान कवयित्री मारीना त्स्वेतायेवा की प्रतिभा कटियार द्वारा लिखी जीवनी इसी वर्ष की शुरुआत में संवाद प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इस बीच, इस किताब को पढ़ना संभव हुआ। प्रतिभा जी ने इतनी अच्छी सामग्री पाठकों तक पहुंचाई जिसके लिए वह साधुवाद की पात्र हैं। इस किताब को पढ़ते हुए ऐसा लग रहा था कि मारीना का जन्म दुःख झेलने को ही हुआ है। जीवन मे इतने संघर्ष कि पढ़ते हुए लग रहा था कि अब ठहराव आएगा लेकिन दुखों का अन्त नहीं हुआ।

उन्नीसवीं सदी में जब रूस के हालात बहुत खराब थे उसी दौर में मारीना का जन्म हुआ। रूस की इस महान कवयित्री ने पूरी उम्र जिंदगी के प्रति आस्था और प्रेम को बचाए रखने के लिए संघर्ष किया। कैसी भी विषम परिस्थिति हो, मारीना का लिखना नहीं छूटा। यह किताब हमें यह दिखाती है कि एक लेखिका जो अपने सारे दायित्वों को निभाते जाती है और उसके बदले वह सबसे प्यार ही तो चाहती है लेकिन एक देश से दूसरे देश भटकते रहने पर भी उसे कहीं स्थायी ठिकाना नहीं मिलता। एक बार ऐसे ही फ्रांस पहुंचने पर मारीना को पता चला कि वहां लेखकों,साहित्यकारों, कलाकारों, को मुफ्त राशन दिया जाता है लेकिन मारीना को वह राशन नहीं मिल पाया। वजह थी उसका नाम रजिस्टर्ड लोगों की सूची में नहीं था। रजिस्टर्ड ना होने के चलते, खाना ना मिल पाने वाली घटना को पढ़ते हुए मुझे लगा कि अभी हमारे देश के हालात भी ठीक वैसे ही हैं।

बचपन में ही मारीना की माँ की मृत्यु हो गई थी। यही से उसके दुखों की शुरुआत हो गई थी।पिता के होते हुए भी वह हमेशा उनकी कमी महसूस करती थी।उसके पिता की गिनती रुस के बौद्धिक लोगों में हुआ करती थी। उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं होता था। इसी अधूरेपन के कारण वह प्रेम के लिये जीवन पर्यंत भटकती रही।

उसके कई लेखकों, कवियों से भी गहरे सम्बन्ध रहे। जो ज्यादा समय नहीं टिक पाए। लेखकों से लम्बा पत्र व्यवहार भी चलता था। अत्यधिक गरीबी के दिनों में ये लोग काफी मदद भी करते थे। कभी कोई रहने की व्यवस्था कर देता। सेर्गेई नाम के युवक से उसने शादी की। जो पहले से ही क्षयरोग से जूझ रहा था। सेर्गेई देशप्रेम से ओतप्रोत था तो मारीना शब्द व कला से। आगे चलकर न पति का पूरा साथ मिला न कोई आर्थिक मदद। तीन बच्चों की परवरिश अकेले अपने दम पर की। भूखमरी की स्थिति में दोनों बेटियों को इस आशा मे अनाथालय में डाल दिया कि वहाँ भरपेट भोजन मिल पाएगा। बड़ी बेटी का स्वास्थ्य खराब होने पर मारीना उसको घर लायी और उसकी देखरेख की लेकिन इसी दौरान उसे खबर मिली कि छोटी बेटी नहीं रही। वह इस स्थिति में नहीं थी कि उसके अन्तिम संस्कार में जा पाए। मारीना उस समय बड़ी बेटी के सिर मे ठण्डी पट्टी रख रही थी।

कवयित्री से इतर मारीना एक माँ भी है और ऐसे समय में उस माँ पर क्या बीत रही थी इस किताब को पढ़ने से पता चलता है। पर इस सबके बावजूद भी मारीना का लेखन बराबर चलता रहा।

वास्तव में यह किताब अपने आप में अलग तरह की है। लेखिका ने काफी लगन और मेहनत से इसको लिखा है। इसे पढ़ने पर कहीं पर भी यह अहसास नहीं होता है कि लेखिका मारीना से नहीं मिली है।
लेखिका ने मारीना के साहित्य को पढ़ा ही नहीं बल्कि जिया है।बिना उसको आत्मसात किए ऐसी जीवनी लिख पाना असम्भव है। लेखिका इसे लिखने में इतना डूब चुकी है कि लगता है आमने- सामने बैठकर बात कर रही है। किताब पढ़ते हुए हमें जगह -जगह इस बातचीत के अंश मिलते हैं । जिसमें लेखिका मारीना से प्रश्न भी करती है तथा कहीँ-कहीं पर अपनी असहमति भी दर्ज करते नजर आती हैं। इस वार्तालाप को बुकमार्क नाम दिया है। इससे किताब में और रोचकता आ गई है।

डॉ. वरयाम सिंह जी द्वारा मारीना की कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया गया है। इस किताब को लिखने में भी उन्होंने सहयोग किया है। प्रतिभा जी ने काफी मेहनत और लगन से इस किताब को लिखा है। यह अपने आप में अलग तरह का काम है । वरयाम जी किताब की भूमिका में लिखते हैं कि 'अनुवाद तो बहुत हुए हैं पर किसी भारतीय ने रूसी लेखक की जीवनी लिखी है। इस तरह का काम आसान नहीं होता है और यह पहला प्रयास है। हो सकता है यह सिलसिला ही चल पड़े।'

किताब पर प्रकाश डालते हुए वह महत्वपूर्ण बात रेखांकित करते हुए कहते हैं कि 'इस किताब में दो कालखण्डों में एक पुल बनता नजर आता है. वह उस युग से चलकर इस युग में आती है,बात करती है और ऐसे में वो समकलीन जैसी लगती है। असल में, किसी से जब हम संवाद करते हैं तो असल में हम खुद से ही संवाद करते हैं, खुद को समझने का प्रयास करते हैं।'

मारीना की जीवनी हमें उस समय के साहित्य के साथ- साथ अलग-अलग समाजों से भी परिचित कराती है जैसे रूस, फ्रांस, जर्मनी। साथ ही, उस समय के समाज में साहित्यकारों की स्थिति से भी अवगत करवाती है। अपने जीवन के इतने कड़े संघर्षों के बाद भी मारीना निरन्तर लिखती रही, कभी पत्र, तो कभी डायरी या गद्य और कभी कविता। जीवन के अन्तिम क्षणों में भी वह तीन पत्र लिखकर रख गई। अगर उन सब मुश्किलों से हारकर बैठ जाती तो आज मारीना मारीना नहीं होती।

Wednesday, April 8, 2020

लॉकडाउन में खुलना भीतर के तालों का


अरसे बाद सुबहों को सुन पा रही हूँ. शामों में जो एक धुन होती है न शांत सी, मीठी सी उसे गुनगुना पा रही हूँ. चाय की मिठास में पंछियों की चहचआहट घुल रही है. वक़्त के पीछे भागते-भागते वक्त को जीना भूलने लगे थे हम शायद. आज वक्त मिला है खुद को समझने का है. अपने आप से बात करने का है. सोचने का कि मशीन की तरह यह जो हम भागते जा रहे थे, उसके मानी क्या थे आखिर. द्वेष, ईर्ष्या, बैर इन सबका अस्तित्व क्या है आखिर. जीवन बहुत कीमती है. इसे प्यार करना, लम्हों को युगों की तरह जीना, लोगों को अपने होने से बेहतर महसूस करवा सकना और क्या?

इससे बात करना पसंद नहीं, उसने ऐसा क्यों कहा, वो ऊंचा है, वो फलां धर्म का है, मैंने तो हमेशा सबके लिए अच्छा किया फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ...जैसे जाने कितने ख्याल हैं जो हमें बेहतर मनुष्य होने से रोकते हैं. जाहिर है ये ख्याल हम लेकर तो नहीं जन्मे थे, ये सब यहीं मिले हमें सामाजिकता, दुनियादारी के वैक्सिनेशन के बाद. हम वो विचार और व्यवहार अपना समझकर ढोने लगे जो न हमारे थे न हमारी च्वायस थे. तो हम अपने भीतर किसी और को जी रहे हैं इतने बरसों से?

यह मुश्किल वक़्त हमसे कुछ कहने आया है. इतना विनाशकारी वायरस भी हमें कुछ सिखा रहा है कि वो हमें सिर्फ मनुष्य के तौर पर पहचानता है. उसके लिए इस बात के कोई मायने नहीं कि आप किस देश के, किस राज्य के, धर्म के, जाति हैं. कौन से ओहदे पर हैं और क्या सामाजिक आर्थिक हैसियत है आपकी? उसके लिए हमारा मनुष्य होना ही काफी है. और हम न जाने कितने खांचों में बंटे हैं. एक पिघलन सी महसूस हो रही है भीतर. जी चाहता है अपने सब जानने वालों से जोर-जोर से बोलूं कि उनसे प्यार है. सबसे माफिया मांग लूं कि कभी दिल दुखाया हो शायद मैंने. कहूँ कि देखो न आज गले भी नहीं मिल सकते और गले मिलने के वो सारे लम्हे जब पास थे, हमने उन लम्हों को झगड़ों में गँवा दिया.

यह वक़्त हमें वो सिखाने आया है जो सीखने को लोग न जाने कितने पुस्तकालयों की ख़ाक छानते रहे, कितने वृक्षों के नीचे धूनी जमाने को भटकते रहे. मनुष्यता का पाठ.

अभी कुछ ही दिन पहले हमने दंगों की आग देखी है, बर्बर हिंसा देखी है. हिंसा बाहर बाद में आती है पहले वो भीतर जन्म लेती है. वो किसी भी बहाने बाहर फूट पड़ने को व्याकुल होती है. यह समय अपने भीतर की उस हिंसा को समझने का है, उसे खत्म करने का है.

यह वक्त गुजर जाएगा. यकीनन हम वापस अपनी जिंदगियों में लौट आयेंगे. सब पहले जैसा हो जायेगा. लेकिन...क्या हमें सब पहले जैसा ही चाहिए? क्या हमें पहले से बेहतर दुनिया नहीं चाहिए. मेरी दोस्त बाबुशा कहती है आपदा का यह समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाएँ, और हम एक बदले हुए मनुष्य न हों तो मरना बेहतर है. सच ही तो कहती है वह.
यह वक़्त अपने भीतर नमी को सहेज लेने का है, उन सबके प्रति प्रेम से भर उठने का जिनके प्रति कभी भी जरा भी रोष रहा हो. क्या होगा इस हिसाब-किताब का कि किसने क्या कहा, किसने क्या किया.
अपने भीतर के विन्रमता के पौधे को, मनुष्यता के पौधे को खूब खाद पानी देने का समय है. जी भर कर रो लेने का, प्यार से भर उठने का समय है. यह समझने का भी कि हमारे ईश्वर, अल्लाह, नानक ने हमें हमारे ही हवाले किया है, हमारी चेतना और संवेदना के हवाले. सोचना है कि हम उनके नाम पर कर क्या रहे हैं.

सामाजिकता ने हमारे भीतर जो खांचे बनाये हैं जिनमें न जाने कबसे हम अनजाने ही लॉकडाउन हैं उनसे खुद को मुक्त करना है. हम बेहतर मनुष्य होकर लौटेंगे और ज्यादा ऊर्जा और सकारात्मकता से काम पर जायेंगे. अपने भीतर पनप रहे नाकारात्मकता के वायरस को खत्म करके हाथ भी मिलायेंगे, गले भी मिलेंगे.

यकीनन इस बार हम पहले से बेहतर मनुष्य होकर मिलेंगे.

Sunday, April 5, 2020

मन, मान और इंतजार

तस्वीर- संज्ञा उपाध्याय 
लड़की को नदियों, पर्वतों, जंगलों, समन्दरों से प्यार था. लड़की को पंक्षियों से प्यार था. जुगनू के पीछे भागते हुए जंगल में खो जाना उसे बहुत अच्छा लगता था. जब वो जंगल में गुम हो जाती तो पीले फूलों की कतारें उसे अपनी उँगली धीरे से थमा देतीं और वो उसे थामे-थामे घर लौटती.

रास्ते में उसे चाँद मिलता जिसे वो साथ लिए हुए घर लौटती. फूलों की कतारें घर के दरवाजे पर ठिठक जातीं लेकिन चाँद नहीं ठिठकता. वो उसके साथ चलते-चलते उसकी रसोई की खिड़की में लटक जाता. वो चाय बनाती तो चाँद मुस्कुराता, वो चाय लेकर अपने कमरे में आती तो वो लडकी की कमरे की खिड़की से झाँकने लगता. लड़की चाँद की शरारतों में पीले फूलों की कतारों को, जुगनुओं की शैतानियों को भूल जाती.

चाँद लड़की के इश्क में था. लड़की लड़के के इश्क में थी. लड़की सारी रात चाँद को लड़के के किस्से सुनाती. लड़का जो उस रात भी उससे मिलने आया नहीं था और इसके पहले कि लडकी उदास हो जुगनुओं ने लड़की का ध्यान भटका लिया था. लड़की भागती जरूर फिरी जुगनुओं के पीछे लेकिन ध्यान उसका हटा नहीं था.

लड़का लड़की के इश्क में तो था लेकिन वो इश्क की गरिमा से अनजान था. लड़की उसके इश्क में थी लेकिन अपने मन और मान को थामना भी उसने अब सीख लिया था. लड़के ने लड़की का मन पढ़ना नहीं सीखा था अब तक. वो दिन में कई बार अपने प्यार का इज़हार करता, लड़की को अपने प्यार का यकीन दिलाता लेकिन लडकी के मान को खंडित भी करता. लड़की मन और मान दोनों लेकर लड़के से मिलने जाती थी लड़का सिर्फ लड़की से मिलता था, उसका मन और मान वहीं कोने में ठिठके रहते. लड़की लड़के से मिलकर लौटती तो उसके साथ लौटती एक उदासी भी.

उस रोज लड़की दूधिया झरने की संगीत में खोयी हुई थी, उसका ध्यान चारों ओर बिखरे हरे पर था, उसके सर पर पीले फूलो का छत्र सा मढ़ा हुआ था उसकी आँखें सुख से भीगी हुई थी. किसी का इंतजार इतना सौन्दर्य लेकर भी आ सकता है सोचकर ही लड़की मुग्ध थी. इंतजार का हर लम्हा उसे इबादत में होने जैसा लग रहा था. फिर...लड़का आया. उसने लड़की की आँखें मूँद लीं. अपनी दोनों हथेलियों से लड़की का चेहरा ढांप लिया. लड़की सुख की सिसकी में डूब गयी. लडकी ने आँखें खोलीं तो लड़के ने मुस्कुराकर कहा , 'एक खुश खबर है'. लड़की ने पलकें झपकाकर पूछा, 'क्या'. लड़की ने पूछ तो लिया था लेकिन उसकी इच्छा जवाब जानने की नहीं थी. वो चाहती थी लड़का चुप होकर उसके साथ इस दृश्य का हिस्सा बने. वो दूधिया झरने का पानी पिए, पीले फूलों की झालर में अपने होने को गूंथ दे... इस जीवन में इस लम्हे में होने से ज्यादा खुशखबर क्या होगी भला?
लड़के ने बताया, 'उसका प्रमोशन हो गया है. उसे अब दूसरे शहर जाना होगा.' बाहर का दृश्य लड़के की खुशखबर और लडकी की आँखों से छलके आंसू से टकराकर टूट गया था.

लड़की लड़के से मिलने अब भी जाती है उन्हीं ठिकानों पर जहाँ वो आया करता था. वो अपने इंतजार की टोकरी लिए लिए ही वापस लौट आती थी.  वो सारी रात चाँद से उन मुलाकातों के बारे में बतियाती है जो हुई नहीं.  वो हो चुकी मुलाकातों के बारे में कभी कुछ नहीं कहती.

पेड़ों पर नयी कोंपले फूटने के दिन फिर से आये हैं. लड़की का इंतजार अब उन कोंपलों में ढलकर खिल रहा है...