Monday, March 16, 2020

प्रेम, तुम ही तो उम्मीद हो!



जब नेटफ्लिक्स पर 'लैला' सिरीज देखी थी तो कई दिनों तक ठीक से नींद नहीं आई थी. जो कभी आ गयी तो सोते से जाग पड़ती थी चौंक के. कोई अतिशियोक्ति नहीं लगी थी फिल्म में न फैंटेसी कोई बस कि लगा जैसा देश का हाल चल रहा है यही होने वाला है कुछ सालों बाद. उस वक़्त नहीं जानती थी कि कुछ सालों में नहीं यह तो अभी हो रहा है. 'जय आर्यवर्त' 'दूषित रक्त', 'प्रयश्चित के उपक्रम' 'गुरु माँ' सब कुछ तो आसपास ही है...माँओं के सीने से आगे बच्चे छीनकर उनके ही सामने क़त्ल किये जाने दृश्य, स्त्रियों को निक्रष्टतम प्राणी समझने वाला समाज, सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट समझने वाली सोच सब तो है. कोई सुरक्षित नहीं, कहीं नहीं. न घर में, न रास्ते में, न स्कूल कॉलेजों में. सुरक्षित पुरुष भी नहीं, वो भी नहीं जो जय आर्यवर्त के नारे लगा रहे, वो भी नहीं जो आर्यवर्त के रक्त पिपासु राजा के लिए तैयार करते हैं खुनी साजिशें. पानी महंगा खून सस्ता होने का दौर है यह. न्याय एक कल्पना है, सुख टहनी से उड़कर जा चुकी वो चिड़िया है जिसकी तलाश में शिकारी भटक रहे हैं.

सबकी बारी आएगी यकीनन अगर सब एक साथ समय रहते नहीं चेते. यह बारी दाहिने से भी आएगी और बाएं से भी...

मौसम हमेशा की तरह खिल रहा है लेकिन मन उदास है. कल ही प्रेम का उत्सव मना है सोचती हूँ काश यह उत्सव रोज मने और तमाम नफरतों को अपनी जद में ले ले. हत्यारों को फूलों से प्यार हो जाय, बच्चों की खिलखिलाहटों से प्यार हो जाय...खोये हुए लाल माँओं की गोद में लौट आयें.

ओ प्रेम जाओ पूरी दुनिया को नफरत से मुक्त करो न. तुम ही तो उम्मीद हो!

(न लेफ्ट न राइट बस इंसानियत के साथ खड़े होने का वक़्त है यह.)

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