Monday, February 11, 2019

राजनीति से दूर रखने की राजनीति


- प्रतिभा कटियार

नई बहू आई थी घर में, गाँव में. बच्चों में बहू को देखने का चाव था कि जरा घूँघट हटे और एक झलक मिले. बडी-बुजुर्ग महिलाओं और जवान ननदों की यह चिंता कि घूँघट कहीं हट न जाए. नयी बहू का उत्साह रसोई में तरह-तरह के व्यंजनों में, साज-श्रृंगार में छलकता रहता. इसी बीच आ गए चुनाव और नयी बहू का वोट इसी गाँव में पड़ना तय हुआ. घर में ही नहीं पूरे गाँव में एक पार्टी, एक नेता की लहर थी. सोचने-समझने की कोई गुंजाईश किसी के लिए थी ही नहीं. महिलाएं भी वोट डालने के उत्साह में थीं. उसी जगह वोट डालने के उत्साह में जहाँ डालने को घर के मर्दों ने कहा था. नयी बहू ने अपनी ननद से पूछा, ‘दीदी आप किस पार्टी को वोट दोगी?’ ननद ने इतराते हुए कहा, ‘जहाँ सब घर के लोग डालेंगे.’ ‘सब लोग यानि सब आदमी?’ बहू ने पूछा, ‘हाँ, तो और क्या? अम्मा, चाची, ताई सब वहीँ डालते हैं.’ ‘लेकिन क्यों? वो पार्टी महिलाओं के लिए क्या करने वाली है?’ ‘ऐ भाभी, इत्ता न सोचते हम, ये सब सोचना हमारा काम नहीं. भैया, चाचा लोग कुछ गलत थोड़ी न कह रहे होंगे.’ भाभी कुछ समझती इससे पहले देवर जी पर्ची लेकर आ गये और सबको समझाने लगे किस तरह वोट देना है, कौन से खाने में मुहर लगानी है. नई बहू ने कुछ कहना चाहा तो उसको समझाया गया ‘तुम नयी हो अभी, यही कैंडीडेट ठीक है यहाँ के लिए. सवाल न करो, जल्दी चलो वोट देने.’ बहू ने सोचा कि उसका वोट तो उसका है, वो तो वहीँ डालेगी जहाँ उसे डालना है. लेकिन जब वो पोलिंग बूथ पर पहुंची तो पता चला उसका वोट पड़ चुका था.

यह किस्सा 2014 के चुनाव का है और एकदम सच्चा है कि मैं उस बहू को करीब से जानती हूँ. यही वजह है कि कितने प्रतिशत महिलाओं ने वोट डाला इन आंकड़ों को देख मैं खुश नहीं हो पाती. आंकड़ों में शामिल वो बहू भी तो है हालाँकि उसने तो वोट भी नहीं डाला था, आंकड़ों में वो ननद और सास भी हैं जिन्होंने घर के मर्दों की मर्जी से वोट दिया, जहाँ वो चाहते थे. उदाहरण भले यह एक हो लेकिन ऐसी महिलाएं बहुत हैं.

राजनीति पर बात करना महिलाओं को क्यों पसंद नहीं होता होगा, क्यों साड़ी, चूड़ी और व्यंजन की बात करना उन्हें पसंद होता होगा. क्योंकि दूसरों की बात मान लेने की आदी महिलाओं की पसंद नापसंद भी एक ख़ास ढांचे में ढाला गया. उन्हें जानबूझकर राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर रखा गया. उस वक्त जब उनके सौन्दर्य की प्रशंसा, पकवान के स्वाद की तारीफ की जा रही थी, उन्हें समर्पण की देवी कहकर भरमाया जा रहा था ठीक उसी वक़्त देश दुनिया की राजनीति के दाँव-पेच चले जा रहे थे.

उन्हें सवाल न करना सिखाया गया और सवाल न करने, बात मानने वाली महिलाओं के लिए तमगे गढ़े गए और बदले में उन्हें एक कम्फर्ट जोन भी परोसा गया. घर में होने वाले राजनैतिक डिस्कशन्स के दौरान चाय देकर सीरियल देखने का या सब्जी बनाने का, होमवर्क कराने का कम्फर्ट. कभी तो घर के किसी सूने कोने में रो लेने का कम्फर्ट भी. कितनी गहरी राजनीति थी यह महिलाओं को राजनैतिक चर्चाओं से, भागीदारी से दूर रखने की. ‘तुम परेशान मत हो, मैं संभाल लूँगा सब’ कहकर कितनी ही महिला सीट के लिए चयनित ग्राम प्रधानों की मुश्किल हल की है उनके घर के पुरुषों ने. उस वक़्त भी चुपचाप हर बताई गयी जगह पर हस्ताक्षर करती जाती स्त्रियाँ क्या सच में कुछ नहीं सोचती होंगी.

महिलाएं अब भी सॉफ्ट टारगेट हैं, उनसे (सबसे नहीं) वो लिखवाया जा रहा है जो लिखवाया जाना पहले से तय है, वो बुलवाया जा सकता है, जो सबको सुनना अच्छा लगता है, उनसे वो करवाया जा सकता है जिसकी पितृसत्ता को जरूरत है. महिलाओं का अपनी चुनौतियाँ, अपना गुस्सा, अपना सुख-दुःख साझा करने वाला कोई समाज बनने ही नहीं दिया गया.

वोटर होना उनकी राजनैतिक भागीदारी की शुरुआत बने यह होना अभी बाकी है. पति के नाम उसकी राजनैतिक सत्ता सँभालने के लिए रबर स्टैम्प बनने से इंकार करना बाकी है, पंचायतों में सिर्फ महिला सीट होने की वजह से उनके नाम का इस्तेमाल हो जाने और खुद को कठपुतली की तरह काम करने से रोकना अभी बाकी है. बाकी है अपनी डिग्रियों को किनारे रख अपनी शिक्षा को असल शिक्षा में तब्दील करना और सोचना खुद से, खुद के लिए. बाकी है हिम्मत से सामना करना बाहर निकलने पर आने वाली मुश्किलों का सामना करना. बाकी है धता बताना है उन तमाम चालाकियों को जो सुरक्षा और सुविधा के नाम पर उनका रास्ता रोके हैं.

राजनीति में शामिल होकर ही राजनीति का शिकार होने से बचा सकता है. सिर्फ वोट देने, इलेक्शन लड़ने से, ऊंचे पद हासिल करने भर की बात नहीं है यह, महिलाओं को अपनी शक्ति और अपनी जरूरत को महसूस करना होगा और उसके लिए लड़ना भी सीखना होगा.

इसकी शुरुआत आने वाले चुनाव से की जा सकती है सिर्फ वोटर बनने की नहीं जागरूक वोटर बनने की जरूरत है. राजनैतिक विमर्श में शामिल होना, तमाम पार्टियों के घोषणापत्रों को ठीक से पढ़ना, उनके इरादों को भांपना और तय करना एक ठीक उम्मीदवार. अगर नहीं है कोई उम्मीदवार मन मुताबिक तो ‘नोटा’ है न? लेकिन अब महिलाओं की भागीदारी के आंकड़ों को असल में महिलाओं की भागीदारी में ही बदलने का वक़्त आ गया है. महिलाओं को राजनीति से दूर रखने की राजनीति को अब समझना भी होगा और उस राजनीति का शिकार होने से खुद को बचाना भी सीखना होगा.

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