Monday, December 31, 2018

वो कोई बरहमन तो नहीं था फिर भी..


कोई साल कहीं नहीं जाता कोई याद कभी नहीं बीतती. जो बीत जाती होतीं यादें तो दिल में कुछ कसकता सा क्यों रहता. हर्ष के उल्लास के शोर में क्या छुपाना चाहते हैं सब. क्या यह महज कैलेंडर बदलने का शोर है या सचमुच कुछ बदल रहा है. क्या कल के सूरज में कुछ नया होगा, क्या हर दिन के सूरज में कुछ नया नहीं होता. नया क्या होता है आखिर. मुझे नहीं मालूम. ये सब बहुत बड़े बड़े सवाल लगते हैं मुझे. मैं सवालों मेंं उलझना नहीं चाहती, बस जीना चाहती हूँ. पिछले बरस कुछ यूँ चाहा था अपना नए कैलेंडर वाला बरस...

खुद के लिए लम्हे चुराउंगी
बनूँगी थोड़ी और मुंहफट
जिंदगी को गले लगाकर खिलखिलाऊँगी
करुँगी खूब सारी यात्राएं
दोस्तों से और करुँगी झगड़े
बिखरे हुए घर को मुंह चिढ़ाऊंगी
नींदों से ख्वाब चुरा लूंगी
समंदर किनारे दौड़ लगाउंगी
नदी की बीच में धार में खड़े होकर
पुकारूंगी तुम्हारा नाम
इस बरस... 

और सचमुच किया यही सब. मुन्नार की यात्रा से शुरू हुआ नए कैलेंडर का सफर तो कोच्चि के समन्दर से होते हुए गोवा के समन्दर तक ले गया. दोस्ती ने नये मुकाम हासिल किये, खोलीं कुछ और गिरहें जो अवचेतन में पैबस्त थीं कहीं. बरसों एक टुकड़ा नींद को तरसी आँखों पर नींद की रहमत हुई. कुछ दोस्तों के पास न पहुँच पाने का अफ़सोस है कि उन्हें मेरी जरूरत थी, या मुझे होना था उनके मुश्किल वक़्त में. फिर भी मन रहा उन दोस्तों के पास ही. इस बार के कैलेंडर पर कोई इंतजार नहीं लिख रही, सिर्फ बहार लिख रही हूँ. कुछ जंगल, कुछ नदियाँ लिख रही हूँ, ढेर सारा प्यार थोड़ी सी तकरार लिख रही हूँ. बहुत सारी नींद लिख रही हूँ बस कि अब मुझे नींद आने भी लगी है. जिसने कहा था कि ये साल अच्छा है वो बरहमन तो नहीं था...लेकिन यकीनन अच्छा था ये साल...

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

नये साल कि ढेर सारी शुभकामनाऐ