Thursday, December 13, 2018

अभिनय-अंतिम किश्त


दिन भर उज्ज्वला अतिरिक्त उत्साह से भरी रही. जैसे उसे उसके पंख मिल गए हों. कितना सुखी और हल्का महसूस कर रही थी. जब संभावनाओं पर हल्की सी पकड़ कासी, तब उज्ज्वला को महसूस हुआ कि क्या था जिसकी खोज निरंतर जारी थी भीतर. सब कुछ होते हुए भी क्यों अनजानी सी असंतुष्टि घेरे रहती थी उसे. थोड़ी सी नर्वस भी हो रही थी. जाने कर भी पाएगी या नहीं.
'सुषमा तुझे यकीन है मैं कर पाऊंगी.'
सुषमा मुस्कुरा दी. 'हाँ, जरूर कर पाओगी. लेकिन पहले प्रणय से तो पूछ लो. क्या पता उसे पसंद न हो तुम्हारा अभिनय करना.'
'तुम प्रणय की फ़िक्र न करो. प्रणय मुझे खूब समझते हैं. आज तक कभी किसी काम के लिए मना नहीं किया. जो चाहती हूँ करती हूँ.' उज्ज्वला की आवाज में आत्मविश्वास था.
'ठीक है, तो मेरे साथ चलने की तैयारी कर लो.'
'पता है सुषमा, मुझे बहुत रोमांच हो रहा है यह सब सोचकर. लग रहा है मैं खुल रही हूँ. अब तक कैद थी जैसे कहीं.'
'मैं समझ सकती हूँ उज्ज्वला. खुद पर भरोसा करना और अपनी तरह से जीना गर आ जाए तो बहुत ख़ुशी होती है.'
लेकिन न जाने क्यों सुषमा को उज्ज्वला की ख़ुशी से डर लग रहा था. सुषमा के अनुभव का कैनवास ज्यादा बड़ा है. और उसके वही अनुभव उसे डरा रहे थे. अब तक की जिन सहमतियों की बातें सोचकर उज्ज्वला इतनी खुश है उनमें से एक भी उसके लिए कहाँ थी. घर के पर्दे अपनी पसंद के लगाना और अपनी पसंद के रास्तों पर जीवन को ले जाना बिलकुल अलग बाते हैं. फिर भी सुषमा अपने आप को सांत्वना दे रही थी. हो सकता है प्रणय की सोच थोड़ी फर्क हो. हो सकता है सचमुच वह उज्ज्वला के अरमानों की कद्र करता हो. वह प्रणय को जानती ही कितना है. यही सब सोचते हुए ख़ामोशी के साथ उज्ज्वला की खुशियों में शामिल रही सुषमा.

उज्ज्वला प्रणय से पुनः अभिनय शुरू करने के बारे में बात करना चाहती थी. उसे पूरा यकीन था  कि प्रणय बहुत खुश होगा यह सुनकर. वह प्रणय को अपनी यह इच्छा बताकर चौंका देना चाहती थी.

एक रोज प्रणय ने उसके  चेहरे पर छाए उत्साह और आत्मविश्वास को लेकर जब टोका तो उज्ज्वला को लगा यही मौका है प्रणय को चौंकाने का. मुस्कुराते हुए उज्ज्वला ने कहा, 'प्रणय तुम्हें, एक अच्छी खबर बताती हूँ. तुम तो जानते हो कॉलेज टाइम में मुझे अभिनय का कितना शौक था. सुषमा से बातें करते हुए मेरे भीतर दबा पड़ा अभिनय का बीज फिर से पल्लवित होना चाहता है. मैं दोबारा अभिनय शुरू करना चाहती हूँ. सुषमा मेरी मदद करेगी. वैसे भी दिन भर घर में खाली रहती हूँ. मैं बहुत एक्साइटेड हूँ प्रणय, लेकिन डर भी लग रहा है. जाने कैसे होगा यह सब ? उत्साह उज्ज्वला की आवाज से छलका जा रहा था, प्रणय के किसी भी जवाब या प्रतिक्रिया का इंतजार किये बगैर वह बोलती रही.

'जरा सोचो प्रणय, लोग मुझे मेरे नाम से पहचानेंगे, मेरा काम, मेरी क्षमता और भी निखरेगी. सब कुछ कितना अच्छा होगा. उन दिनों तो लगता था कि अभिनय तो जीवन है. इसके बगैर जी ही नहीं पाऊंगी. अब इतने वर्षों बाद फिर से मंच पर जाने की सोचकर ही अच्छा लग रहा है. सुषमा कह रही थी कि वो मुझे किसी सीरियल में भी रोल दिलवाएगी. पता नहीं कर भी पाऊंगी या नहीं.'

उज्ज्वला बोले जा रही थी. आखिर प्रणय ने ही उसके अतिरेक को लगाम लगाते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, 'तो अब आप सुपर स्टार बनना चाहती हैं. घर घर स्क्रीन पर आपका चेहरा चमकेगा. लोग आपकी तारीफ करेंगे. भई, हम आपकी तारीफ करें, आपको पसंद करें इससे भला संतुष्टि कैसे हो सकती है?'
'क्या बात कर रहे हो प्रणय. मैं सीरियस हूँ और तुम्हें मजाक सूझ रहा है.' उज्ज्वला के स्वर में थोड़ी सी नाराजगी आ मिली थी.
'उज्ज्वला, अच्छा है मैं तुम्हारी बात को मजाक में ले रहा हूँ वरना तो इस बात पर या तो क्रोध आ सकता है या रोना.'
'क्यों भला?'उज्ज्वला कुछ अप्रत्याशित सुनकर चौंक सी गयी थी.
उज्ज्वला देखो, हमारा छोटा सा परिवार है, बच्चे हैं. हम खुश हैं. तुम्हें क्या जरूरी है, यहाँ-वहां धक्के खाने की, काम करने की.'
'क्या तुम संतुष्ट नहीं हो अपने परिवार से, मुझसे?' प्रणय ने उज्ज्वला को भावुकता में बाँधना चाहा.
'बात संतुष्ट होने की नहीं है प्रणय. बात यह है कि मुझे लगता है कि मुझे अभिनय करना चाहिए. मेरा 'मन' होता है  वैसे भी दिन भर खाली रहती हूँ. बच्चे बड़े हो गए हैं, मेरे पास वक़्त है, मैं इस वक़्त को जीना चाहती हूँ. तुम्हारी बात से सहमत हूँ मैं. परिवार से, तुमसे संतुष्ट भी, लेकिन खुद से नहीं शायद. लगता है मेरे भीतर कुछ है जो बाहर आना चाहता है. मुझे समझने की कोशिश करो प्रणय, प्लीज़.'
उज्ज्वला का आग्रह लगतार मनुहार बनता जा रहा था. लेकिन प्रणय का संयम छूट रहा था.
'इस उम्र में तुम्हें यह नाटक नौटंकी का कौन सा भूत चढ़ा है. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है.'
'मैं मानती हूँ प्रणय कि मेरी उम्र काफी हो गयी है लेकिन एक कोशिश करने में क्या बुराई है. वैसे भी अभिनय का उम्र से ज्यादा सरोकार नहीं होता है फिर मैं तो पहले भी खूब एक्टिंग करती रही हूँ.'
'मैं तुम्हे समझा कर थक गया हूँ. तुम अपने सर स यह अभिनय का भूत उतार दो. मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं. आज के बाद इस विषय पर कोई बात नहीं होगी. समझी. सो जाओ अब.'

प्रणय की आवाज में खासी तल्खी घुल गयी थी. वह करवट बदलकर सोने का उपक्रम करने लगा. प्रणय निश्चिन्त सो रहा था. अपनी सारी हसरतों, उत्साह और आत्मविश्वास की किरचें बीनती उज्ज्वला सिसकियों के बीच सोच रही थी कि उसे लगता था कि वो अभिनय करती थी कभी लेकिन अभिनय तो कबसे चल रहा था उसके आस पास.

समाप्त.

3 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

कहानी का अंत लेखक/लेखिका के हाथ में होता है। यहाँ लग रहा है सच का अंतिम पैरा लिखा गया है। सुन्दर पटाक्षेप।

Manish said...

बहुत ही सुंदर लेख कहानी दिल को छु गयी. इसे प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद

priya said...


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