Wednesday, May 2, 2018

नए ज़माने की नयी इबारतों के बीच


संवेदनायें बन गयी हैं मैनेजमेंट के कोर्स का चैप्टर
बाज़ार ने हड़प ली है मासूमियत, अल्हड़पन, मातृत्व जैसे शब्दों की नमी
बच्चे जानने लगे हैं कि मदद के बदले मिलते हैं नम्बर
लपकने लगे हैं वो ज़रूरतमंदों की मदद की ओर
मदद के लिए नहीं, नम्बरों के लिए

बचे रहें ज़रूरतमंद हमेशा
इसका इंतजाम करती है राजनीति
ताकि मददगार ऊंचे करते रहें कॉलर
जयकारे लगते रहें महान और दयालु लोगों के नाम के
और वोट बैंक सुरक्षित रहे

गरीबी' अब समस्या नहीं इम्तिहानों में आने वाले नम्बर है
सत्ताओं की झोली भरने वाला वोट है
वाद विवाद, प्रतियोगिता और निबन्ध का विषय है
कविताओं, कहानियों, उपन्यासों की ऊष्मा है
फ़िल्मी कहानियों की बासी पड़ चुकी स्क्रिप्ट है

शिक्षा रह गयी है डिग्रियों का ढेर
स्कूल कॉलेज बन चुके हैं कारखाना
ऊंची नौकरी, रुतबा और पैसा कमाने का

वैज्ञानिक डरते हैं काली बिल्लियों के रास्ता काटने से
गणितज्ञ बचाकर रखना चाहते हैं
गणित के डर से बना बाज़ार
अंग्रेजी ने झुका रखा है अन्य भाषाओं का सर
और हिंदी दिखा रही है अकड़ लोक की भाषाओं को


केबीसी ने हड़प लिया है ज्ञान का अर्थ
कि सूचनाओं का संग्रह नहीं होता ज्ञान
और जो होता वो ज्ञान तो जुए के खेल में न होता तब्दील


प्रेम अब बन गया है फैशन
फेसबुक, ट्विटर का प्रोफाइल स्टेट्स
कॉफ़ी हाउस की मुलाकातों का उबाल
फ़िल्मी दृश्यों में एक-दूसरे को खोजते हुए
सेल्फी से ब्रेकअप तक का सफर

दुःख किसी इश्तिहार सा टंगा है फेसबुक वॉल पर
प्रेम उमड़ा पड़ रहा है उबाऊ कविताओं में
रिश्ते दम तोड़ रहे हैं उफनती तस्वीरों के नीचे
मुस्कुराहटों के भीतर पल रहा है गहरा अवसाद

जेल जा रहे हैं देश और समाज के बारे में सोचने वाले
और देशप्रेम के शोर के बीच
सुरक्षा की मांग के लिए मार खा रही हैं लड़कियां

देश और समाज से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं पार्टियों के झंडों के रंग
कश्मीर अब अपनी खूबसूरती की लिए नहीं धारा 370 के लिए जाना जाता है
गाँव किसानों की समस्याओं, धान की खुशबू, गेहूं की लहक के लिए नहीं
फ़िल्मी दृश्यों या शादियों की थीम के लिए खंगाले जाते हैं


'सब कुछ ठीक है' के चुन्धियाए हुए दृश्यों के बीच
एक बच्चा मिट्टी पर उकेर रहा है कुछ सपने
कोई युवा अपनी जड़ों की तलाश में लौटता है अपने पुरखों के गाँव
कोई स्त्री याद करती है
कुँए पर पानी भरती बुआ और चाचियों के कहकहे
रहट की आवाज़, पुआल के ढेर और ताज़ा बनते गुड़ की खुशबू

(प्रभात खबर में प्रकाशित )

https://l.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fwww.prabhatkhabar.com%2Fnews%2Fnovelty%2Fpratibha-katiyar-prabhat-khabar-literature%2F1086893.html&h=ATNvbDhpgr_6NlhaHuEh_D05nPJby_mtFTVzZYAZ1WE7ejNdgD19JcCuj-pzDxeFWWCDEkMTTpCwpL29MhWrZ5-4Nk3iAvNWGPk-a0ZEdoLTUydWXkYo

4 comments:

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और सटीक शब्द चित्र...

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत कुछ है अपने आस पास और अपने जैसा।

Rohitas Ghorela said...

सारा तन्त्र ही कुछ ऐसा बना दिया है कि अद्देश्य या कर्तव्य समझ कर नही बल्कि अपना काम साधने के लिए कार्य किया जाता है.
सब दिखावा ही दिखावा नजर आता है.
सार्थक रचना.

आपका स्वागत है मेरे यहाँ -----> खैर 

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पहली भारतीय फीचर फिल्म के साथ ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...