Thursday, December 7, 2017

और आखिरी बार भिलंगना- गीता गैरोला


जिन महिलाओं के साथ मैंने कई वर्षों तक काम किया, अपने दिन रात गुजारे, दुःख—सुख लगाया, उनके आँसुओं के साथ रोये और उनके सुखों के साथ हँसे। वो महिलाएँ जिन्हें लोग अशिक्षित, अनपढ़ गंवार बोलते हैं और जो मेरा असली स्कूल है। इन्हीं गंवार निरक्षर औरतों ने मुझे जीने का सलीका सिखाया। जीवन के असली अर्थों को मेरे सामने रखा। मुझे भिलंगना ब्लॉक की इन्हीं बहनों की बहुत याद आ रही थी। इन बहनों से अलग हुए मुझे पाँच साल हो रहे थे। महिला समाख्या कार्यक्रम ने 1995 में मुझे पौड़ी जिले में महिलाओं को संगठित करने की जिम्मेदारी दी थी। इसीलिए मैं अपने शुरूआती दौर के काम के दौरान जुड़ी इन बहनों से मिल नहीं पा रही थी।

ये अक्टूबर 1998 की बात हैं। मैं टिहरी के भिलंगना विकास खण्ड जाने के लिए साथ ढूंढ रही थी। गाँव को समझने, उसकी बदली परिस्थितियों को जानने के लिए कमल जोशी से अच्छा कोई साथी नहीं था। सो मैंने बीना के पास अपने बेटे गोलू को छोड़ा, घर की व्यवस्थाएँ की और कमल के साथ टिहरी की तरफ चल दी। ये वही समय था जब टिहरी बाँध को बनाने के लिए टिहरी को खाली किया जाना शुरू हो गया था। टिहरी को बार—बार देखना और वहाँ रह कर उस शहर को महसूस करने का लालच भी साथ ही बना हुआ था। हम कोटद्वार से चल कर ऋषिकेश पहुँचे और टिहरी जाने की बस में बैठ गये। सोचा थोड़ी देर टिहरी में रूक कर भिलंगना की बस मिल ही जायेगी। टिहरी पहुँच कर हमने पिट्ठू बस स्टैण्ड में एक प्रैस में रखे और विघासागर नौटियाल जी से मिलने चल दिये। इत्तेफाक से नौटियाल जी घर पर नहीं मिल पाये। हमने अपने आने का सन्देश पर्ची में लिख कर उनके घर में छोड़ा और बस स्टैण्ड आ गये। वहाँ पर घनसाली जाने के लिए बस लगी थी। ये तय था कि जहाँ तक भी जा सकेंगे, वहीं पर रात को रूक जायेंगे।
घनसाली से एक ट्रक सामान ले कर बूढ़ा केदार जा रहा था। कमल ने ट्रक वाले से बात की और वो हमें बूढ़ा केदार तक छोड़ने को तैयार हो गया। टिहरी से चलते ही बाँध का डूब क्षेत्र शुरू हो गया जो उन दिनों और आज भी हमारी संवेदनात्मक कमजोरी रही है। ये डूब क्षेत्र का पूरा इलाका टिहरी जिले का सबसे उपजाऊ खेती वाला इलाका था। गडोलिया के सेरे, गडोलिया से नीचे थुनगुली गाँव के सेरे सब डूब जायेंगे, सोच के दिल भर गया। नदी आर—पार के जंगल सब डूब जायेंगे। गडोलिया से लगे असेना गाँव की गाड से पत्थर निकालने के कारण पूरा वातावरण धूल से भरा था। पत्थर ढोते ट्रकों ने सड़क में इतने गड्ढे बना दिए थे कि घनसाली चमियाला जाते हुए हमारा ट्रक में बैठना मुश्किल हो रहा था। थाती पहुँचते हमें रात के 7ः30 बज गये। सरजू का घर तो अपना ठिकाना था ही, उसके अलावा बालमी दीदी या धर्मानन्द नौटियाल जी के घर भी आराम से रह सकते थे पर हमें रास्ते में सरजू मिल गई और हमने तय किया कि सरजू के घर ही रहेंगे।
अगले दिन से हमारी पैदल यात्रा शुरू होने वाली थी। सोचा सुबह नहा—धोकर निकल जायेंगे, तो बाकी दिन जैसे भी गुजरे। सरजू और मैं साथ ही काम करते थे। वो हरिजन परिवार की अविवाहित महिला है और पता नहीं क्यों उसने किसी साधू से दीक्षा लेकर सन्यास ले लिया था। उस इलाके में सरजू का बड़ा सम्मान है। ऐसे ही बालमी दीदी भी है जिन्होंने सन्यास ले लिया है। बालमी दीदी महिला समाख्या की सखी (गाँव की समन्वयक) थी। जैसे ही गाँव की महिलाओं को पता चला कि मैं आई हूँ, धीरे—धीरे सब मुलाकात के लिए आने लगी। पहाड़ के आम गाँवों में हरिजनों के घर पर ठाकुर, ब्राह्मण परिवार के लोग नहीं जाते पर इस गाँव की तो बात ही कुछ और है। यहाँ पर लोक जीवन विकास भारती नाम की संस्था काम करती हैं जिसको बिहारी लाल जी संचालित करते हैं। बिहारी लाल जी के पिताजी भरपूरू नागवान, धर्मानन्द नौटियाल जी और थाती के ही बहादर सिंह जी सर्वोदयी थे। भरपूरू नागवान, धर्मानन्द नौटियाल और बहादर सिंह जी ने थाती में एक सर्वोदय परिवार बनाया था। एक ठाकुर, एक ब्राह्मण और एक हरिजन परिवार एक साथ एक घर में रहते थे। बच्चे एक साथ खाते—पढ़ते, थाती गाँव उपजाऊ सेरे वाली खेती के लिए आज भी प्रसिद्ध है। तीनों परिवार की महिलाएँ एक साथ खेती करती, अनाज एक साथ रखा जाता। तीन परिवार एक चूल्हे में खाना बनाते—खाते। ये कहानी मुझे 1994 में असकोट—आराकोट अभियान के दौरान जब हम इसी क्षेत्र में पदयात्रा कर रहे थे तब कमल ने सुनाई थी।
अभियान के सभी यात्री उस समय भी इन तीनों परिवारों से मिल कर गये थे। तब तक ये सर्वोदय परिवार के लोग पुनः अपने—अपने परिवारों के साथ अलग रहने लगे थे। सर्वोदयी संस्था लोक जीवन विकास भारती के अध्यक्ष लस्याल गाँव के दिलीप सिंह जी थे। बूढ़ा केदार मन्दिर में हरिजन प्रवेश के लिए हुए सत्याग्रह में धर्मानन्द नौटियाल जी, बहादर सिंह जी और सुन्दरलाल बहुगुणा जी ने पुरोहितों की मार खाई थी। नौटियाल जी के सिर पर चोट आई थी। सर्वोदयी प्रभाव के कारण ही इस गाँव में हरिजन परिवार के घर में महिलाओं का आना—जाना होता रहता है।
सरजू की बहन और माँ हमारे लिए भोजन की व्यवस्था करने लगी। मैं और कमल तो महिलाओं के साथ बतियाने ही आये थे इसलिए खूब गप्पें लगने लगी। महिलाओं ने ट्टवैष्णव जन तो तैने कहिये’ गाया और साथ ही ट्टजब बन ही गया बहनों का संगठन’ भी गाया। 1989 से 1998 तक के समय अन्तराल के बाद महिलाओं के साथ बात करके बहुत मजा आ रहा था। हम सब लोगों ने मिल कर ट्टन काटा न काटा, त्यौं डाल्यूं न काटा’ गीत गाया। तभी बालमी दीदी हमारे लिए पिण्डालू के पत्तों के पत्यूड़ बना कर ले आई।
उस दिन पता नहीं कितने दिनों के बाद बहुत ही गहरी और चैन की नींद आई। कमल बोला ऐसे ही गाँवों में घूमते मौत आ जाये तो मेरी जिन्दगी सफल हो जायेगी। दूसरे दिन सुबह ही बालमी दीदी के साथ हम आगर की तरफ चल दिये। इन दिनों पहाड़ों में खेत फसलों से खाली हो जाते हैं। ककड़ी पीली—लाल हो कर सूखी बेलों से लटकती रहती है। छतों, खल्याणों(खलिहान) में धान—झंगोरा, मण्डुवा, दालें, मिर्चे सूखती रहती हैं। छतों की धुरपली में लाल कद्दू की कतारें लगी रहती हैं। महिलाएँ जाड़ों के लिए सूखा घास और लकड़ी काट कर जमा करती हैं। पहाड़ी गाँवों में काम हमेशा से जरा कम हो जाता है। घर—घर में पीले नींबू, नारंगी लगे दिखाई देते हैं। आगर गाँव में कमल हमारे साथ 1991 के भूकम्प में तथा 1994 में असकोट—आराकोट अभियान के दौरान भी आ चुका था। 1991 के भूकम्प में आगर गाँव में बहुत नुकसान हुआ था और प्रधान जी की किशोरी बेटी की मलबे में दबने से मृत्यु हो गई थी। उसी साल रामलीला में प्रधान जी की बेटी सीता बनी थी। उस इलाके में ये पहली बार हुआ था कि सीता की भूमिका एक लड़की ने निभाई थी। 1991 तक भिलंगना ब्लॉक के गाँवों में हमें साक्षरता शिविर चलाने के लिए आठवीं पास लड़की मिलनी मुश्किल थी। और प्रधान जी की बेटी नवीं में पढ़ती थी।
थाती से आगर तक की चढ़ाई चढ़ते कमल जोशी ने अपनी ट्रैकिंग की भरपूर योग्यता दिखाई और लमालम चढ़ाई चढ़ गये। बालमी दीदी भी आदी थी पर मैं हाँफती—कांपती धीरे—धीरे चढ़ती रही। पीठ में पिठ्ठू तो था ही। गाँव के नीचे ही कमल हमारा इन्तजार करता मिल गया। घास काटती महिलाएँ मुझे पहचानने की कोशिश कर रही थी। मैं सबसे नमस्ते बोलती जाती आओ दीदी घर आओ हमें भूख लगी हैं। खाना तुमने ही खिलाना है ट्टमैं मजाक करती पर वास्तव में ये मजाक नहीं होता’ हम अपने रात्रि निवास और भोजन की व्यवस्था के लिए माहौल बना रहे होते। प्रधान जी को अपना परिचय दिया तो वो पहचान गये। सात साल बीत जाने के बाद भी उनकी पत्नी मुझे और बालमी दीदी को देखते ही अपनी बेटी की याद में रो पड़ी। हमें देख कर गाँव के अन्य लोग भी प्रधान जी के घर में जमा हो गये। हमने भूकम्प कि बात करते हुए काम का जायजा लेने की कोशिश की। जो घर टूट गये थे वहाँ पर टीन की छत वाले घर खड़े थे। जिन घरों में दरारें छोटी थी मरम्मत के बाद भी दरारें चौड़ी दिखाई दे रही थी। लोग सरकार द्वारा किये गये राहत के कार्यों से बहुत असन्तुष्ट थे। गाँव के स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ गई थी। गाँव की युवा बहुएँ मुझे देख कर प्रभावित थी और बुजुर्ग महिलाओं को मैं आज भी पहले जैसे बेचारी लग रही थी। मुझे उनका खुद के लिए बेचारी शब्द कहना अन्दर तक गुदगुदा देता है। सच में उन कर्मठ महिलाओं के सामने हम शहरों में रहने वाली औरतें बेचारी तो हैं ही। कुछ घरों में छोटे बच्चे चुलू के ढेले (बीज) फोड़ रहे थे। चुलू की गिरी का तेल इस इलाके में खाने के काम भी लाते हैं। यहाँ चुलू के पेड़ों से जंगल भरे पड़े हैं। तेल के लिए ये बहुत अच्छा संसाधन हैं। गाँव में अभी लोगों का पलायन नहीं दिखाई दे रहा था। पुरुष, युवक नौकरी करने जाते हैं पर वापिस गाँव लौट आते हैं। इस पूरे इलाके में मुख्य दीवाली के ठीक एक महीने बाद वाली बग्वाल (जिसे रिख बग्वाल कहतें हैं) धूमधाम से मनाई जाती है। सारे गाँव के नौकरी पेशा उसी बग्वाल में घर आते हैं। बातचीत के दौरान कमल ने खाने की फरमाइश कर दी। मैंने आँख दिखाई तो बोला यार भूख लगी है तो माँगने में क्या बुराई है। प्रधान जी बोले सही बात है भ्ौजी।
हमारे लिए फौरन भोजन की व्यवस्था हो गई, दाल—भात के साथ घी से भरा कटोरा देख कर मेरे होश उड़ गये। इतना सारा घी खाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। उधर जोशी जी ने आधी कटोरी घी अपने भात पर पलट दी। अपने चिर परिचित अन्दाज में हाथ मलते हुए बोले यार खा ही लेता हूँ, आगे चलने के लिए ताकत बनी रहेगी। गाँव की बहनें बहुत जिद करने लगी कि आज की रात हम उनके गाँव में ही रुकें, पर हमें तो अगले गाँव भी जाना था सो सबसे गले मिल कर बहनों को भरी आँखों से विदा दी और चल दिए। कमल ने मुन्डी के साथ ही हाथ भी हिलाया और बोला यार दुनिया में औरतें ही हैं जो कहीं भी एक दूसरे से जुड़ जाती हंै और रो कर एक दूसरे को विदा करती हंै। इन्हीं के स्नेह और सम्वेदनाओं से दुनिया जिन्दा है। मैं और बालमी दीदी कमल के मुँह से एक सही बात सुनकर एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्करा दिये।

हमारी ये यात्रा लोगों के साथ मिलने—जुलने और अपने पहाड़ों को जीने के लिए थी इसलिए हम बिना कोई अतिरिक्त काम का बोझ लिए गाँवों के साथ, वहाँ के लोगों के स्नेह के साथ, जंगलों, खेतों, पहाड़ों के साथ खुल कर जी रहे थे। रास्ता कहीं उतार, कहीं चढ़ाई, कहीं सीधा था। जंगल में हरे पेड़ों के पत्ते हल्के पीले हो कर झड़ने को तैयार थे। घास कहीं हरी कहीं पिंगलाई मन को मोह रही थी। जहाँ धूप नहीं थी वहाँ पर पाले से गीला और ठण्डा भी था। बालमी दीदी ने मुझे तेजी से कदम बढ़ाने की सलाह दी। उनका कहना था कि हमें उजाले—उजाले गाँव में पहुँच जाना चाहिए। मेड़ मारवाड़ी और निबाव गाँव भिलंगना ब्लॉक के अन्तिम गाँव हैं। यहाँ के लोग गर्मी शुरू होते ही अपने जानवरों को लेकर छानों में चले जाते हैं और ठण्ड शुरू होते ही वापस गाँव लौट आते हैं। ठण्ड की शुरूवात हो रही थी इसलिए गाँवों में चहल—पहल मिल सकती थी। हमने तय किया कि आज टिहरी के अन्तिम गाँव मेड़ में रहेंगे। इस गाँव की अधिकांश छाने गंगोत्तरी से केदारनाथ जाने वाले पुराने पैदल मार्ग में पंगराणा तथा बेलक नामक जगहों में है। बेलक के एक तरफ टिहरी तथा दूसरी तरफ उत्तरकाशी जिलों के गाँव है। खेतों का काम खतम हो गया था। दिन ढलने को तैयार था इसलिए खेतों में महिलाएँ घर जाने की तैयारी में थी।

कमल ने रास्ते में चलती महिलाओं को नमस्कार दीदी बोला और गढ़वाली में बात करने लगा। पहाड़ों में हर पाँचवें किलोमीटर पर बोली का फर्क हो जाता है। यहाँ तो कमल चमोली में बोली जाने वाली गढ़वाली बोल रहा था। वो दोनों महिलाएँ हँसने लगी। उन्हें ये तो लगा कि ये अंग्रेज जैसा दिखाई देने वाला आदमी पहाड़ी बोल रहा है पर बोली समझ में नहीं आई। यही हाल मेरा भी था। मैं पौड़ी में बोली जाने वाली गढ़वाली बोलती हूँ। फिर भी टिहरी—पौड़ी की बोली मिलाकर समझाने लायक बात कर लेती थी। मैंने बोला दीदी आज रात को हम आपके घर रहेंगे। ये सुनकर एक महिला तो चुप हो गई पर दूसरी बहुत खुश हुई और बोली हाँ हाँ चलो—चलो। कमल को लगा चलो इतनी बातें बनाने के बाद रहने खाने की व्यवस्था हो गई तो खुश होकर लबर—लबर बातें बनाने लगा।
बालमी दीदी ने उस बहन से नाम पूछा तो बोली पुलमा नाम है मेरा। मुझे ये नाम बहुत ही अच्छा लगा, इत्तेफाक ऐसा हुआ कि हम जिस छेणी दीदी के घर रहने वाले थे ये महिला उनकी पड़ोसी निकली। छेणी देवी इस पूरे इलाके के महिला मंगल दलों की अध्यक्ष थी और उनका इलाके में बड़ा सम्मान था। लोक जीवन विकास भारती संस्था जो भी काम महिलाओं के साथ करती उसमें छेणी दीदी का ही नेतृत्व रहता था। एक बार दीदी ने इस पूरे इलाके में अखरोट के पेड़ों का रोपण करवाया था। गाँव तक पहुँचते—पहुँचते हम तीन से आठ हो गये। इतने लम्बे अन्तराल के बाद वो बहनें मुझे पहचान नहीं पाई थी और कमल तो हर जगह कौतुहल का विषय रहता ही है। चश्मे की दोनों कमानी पर लटकती डोरी, दाड़ी से भरा मुँह, गले में लटकता कैमरा पता नहीं कितनी जेबों वाली पैन्ट, जैकेट और पीठ पर पिट्ठू बाँधे दुबला—पतला सा लमा—लम लम्बे—लम्बे डग भरता पहाड़ों को चढ़ता ये अजूबा लोगों को बहुत आकर्षित करता, खास तौर पर महिलाओं और बच्चों को। जब वो कमल के मुँह से गढ़वाली सुनते तो उन्हें यकीन ही नहीं होता कि ये व्यक्ति गढ़वाली है।
रात गहराने से पहले झुटपुटे उजाले में हम मेड़ गाँव पहुँच गये। पूरे गाँव के घरों से उजाले की झिरियाँ झांक रही थी। बिजली के बारे में उतनी दूर दराज बात करने का कोई अर्थ नहीं था। घरों से धुएँ की लकीरों के साथ साग छौंकने की अलग—अलग खुशबुएँ आ रही थी, जो पूरे वातावरण को जीवन्त कर रही थी। कुत्ते भौंक कर अपने होने को सिद्ध कर रहे थे। बच्चों के रोने चिल्लाने की आवाजें अंधेरे के साथ घुल मिल रही थी। हम छेणी दीदी के घर पहुँचते इससे पहले ही उन तक सन्देशा पहुँच गया था कि कुछ देशी लोग आपके घर आ रहे हैं। कितनी अजीब बात है न आप पहाड़ों में कहीं भी चले जाइये आपको रहने खाने का ठिकाना आराम से मिल जायेगा और चार छह लोग बातचीत करने वाले हमेशा मिल जायेंगे। महिलाएँ और बच्चों के आकर्षण का केन्द्र अजनबी होते ही हैं।
ठण्ड बढ़ गई थी। हमें बाँज के कोयलों से दहकती अंगीठी के पास बैठने में मजा आ रहा था। होंठ को चिपकाने वाली चीनी डली चाय जिसमें पानी कम और दूध की बहुतायत थी, कमल को डरा रही थी। उसे कम चीनी वाली चाय पीने की आदत है। पर मुझे वो चाय अमृत की तरह लग रही थी सो मैंने सड़ासड़ पूरी गिलास चाय झट से पी ली। आस—पास के घराें से तीन लोग हमें देख कर बैठने आ गये। छेणी दीदी बुजुर्ग महिला थी पर मुझे एकदम पहचान गई और गले लगा कर प्यार किया। बालमी दीदी का तो वो इलाका अपना ही था। दीदी ने मेरे बेटे की खुश खबर ली। खूब बड़ा हो गया होगा न, तब तो छोटा सा था— कहा, और प्रताप नगर, जाखणीधार, जखोली की ढेर सारी बहनों के नाम लेकर, उनको याद करती रही। इसी बात की तो मुझे खुद लगी थी। यही लगाव मुझे खींचकर यहाँ लाया था। मैंने दीदी से कहा कि इस बार केवल आप लोगों से मिलने आ गई हूँ, आपकी याद आ रही थी। दीदी मेरा सिर सहला कर रोने लगी। कमल जोशी जी हमारा स्नेह लगाव और बात—बात पर आँसू ढरकाने को देखकर अभिभूत से बैठे थे। रात को ढेर सारी बातें होती रही अब मेड़ गाँव की लड़कियाँ स्कूल जाती हैं। स्कूल में दो मास्टर हंै पर स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के लिए रहते अब भी एक ही हैंं। एक महीने बहन जी रहती हैं और अगले महीने मास्टर जी। 1994 में भी यही बात कही थी गाँव वालों ने। टिहरी जिले के उस अन्तिम गाँव में आज भी शहर में रहने वाली औरतों के बारे में जानने की जिज्ञासा थी। आज भी वो मुझे ट्टहे राम तुम बेचारी त’ बोल कर गुदगुदा रही थी। रात, ठण्ड और थकान हमें सोने को उकसा रहे थे।

कमल ने इस बीच हुए पंचायत चुनावों के बारे में बात की और उसमें महिलाओं को मिले 33 प्रतिशत आरक्षण के फायदे पूछे। छेणी दीदी को इस बात की जानकारी थी पर बोली ट्टद भुला हमन तब भी यूँ बणूं म घास लाखड़ू काटी और गोर बाछरू धन चैन चराई’, अब भी वही कर रहे हैं। गाँव पलायन से बचा था। नौ लोग बाहर नौकरी करते थे पर बग्वाल में घर लौटने वाले थे। आजीविका भी खेती—पशु और जंगल पर आधारित थी। सड़क बन रही है ऐसा सुना जा रहा था पर कब बनेगी, कौन बनायेगा ये नहीं पता था। औरतों बच्चों का टीकाकरण (जिसे वो लोग धोक्का कह रही थी) करने एक देशी महिला आती हैं कभी चार छः महीनों बाद। जब कोई बहुत बीमार पड़ जाता है तो डॉक्टर उन्होंने घनसाली में ही देखा है। वो किसी बडूनी डॉक्टर की दुकान की बात कर रहे थे। दो दिन पहले ही गाँव में जोंक लगने (डिहाइड्रेशन) से एक छः महीने के बच्चे की मौत हुई थी। ढेर सारी बातें जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं जब गाँव की महिलाओं के साथ बहुत प्यार और लगाव से बातें करती तो कमल मन्द—मन्द मुस्कराता रहता, और हमारी बातों का आनन्द लेता रहता। इस तरह की छोटी—छोटी बेमकसद की गई यात्रायें मुझे जीवनी शक्ति से भर देती हंै और मैं अपने रोज—रोज के कामों से हुई थकान और ऊब से निकल जाती हूँ। गाँवों के हालातों की वास्तविक तस्वीर भी पता चल जाती है। कमल हमेशा कहता— चाहे हम कुछ कर पायें या नहीं पर अपने लोगों तक पहुँचना और उनकी बात सुनना—समझना भी हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है।

दूसरे दिन हम वापस थाती आये और बूढ़ा केदार के प्राचीन ऐतिहासिक मन्दिर में भी गये। इसी मन्दिर में हरिजन प्रवेश करवाने के लिए ये गाँव, ये पत्थर, ये रास्ते, ये लोग एक बड़े आन्दोलन के गवाह रहे हैं। यहाँ पर सर्वोदय परिवार बना कर रहने वाले वो लोग आज भी मौजूद हंै जिन्होंने समाज—जात से बाहर किये जाने की त्रासदी झेली है। मैं इस गाँव की धरती को बड़े प्यार से छूती हूँ और मेरी आँखें भर आती हैं। लोगों के प्रयासों से समाज के अन्दर कोई परिवर्तन हुआ या नहीं ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है, पर प्रयास और जुनून हमेशा जारी रहना चाहिए जो आज भी मौजूद है और जुनून भी बना हुआ है। कमल जोशी गम्भीरता से कहते हैं। उस जुनून के साक्षी हम दोनों उन सभी लोगों को पलट—पलट के देखते हैं कि शायद फिर आना होगा भी या नहीं और लोक जीवन विकास भारती में बिहारी भाई जी से मिलने चल देते हैं और सचमुच वो हमारी भिलंगना ब्लॉक की अन्तिम यात्रा थी। भिलंगना का पानी तब भी पत्थरों से टकराता बह रहा था, आज भी बह रहा होगा। अब तो यात्राओं में कमल का साथ भी नहीं रहा।

हम अजनबियों के पैरों के निशान कहीं मिट्टी में दफन हो गये होंगे, पर हम कभी वहाँ गये थे उन रास्तों पर चले थे। हमने उन्हें जिया, यही हमारे जीवन की शाश्वत सच्चाई है। वहाँ के लोगों का प्यार आज भी आँखों को नम कर देता है.

- जारी 

2 comments:

कविता रावत said...

भरपूरू नागवान, धर्मानन्द नौटियाल और बहादर सिंह जी ने थाती में एक सर्वोदय परिवार बनाया था। एक ठाकुर, एक ब्राह्मण और एक हरिजन परिवार एक साथ एक घर में रहते थे। बच्चे एक साथ खाते—पढ़ते, थाती गाँव उपजाऊ सेरे वाली खेती के लिए आज भी प्रसिद्ध है। तीनों परिवार की महिलाएँ एक साथ खेती करती, अनाज एक साथ रखा जाता। तीन परिवार एक चूल्हे में खाना बनाते—खाते। .............. काश ही ये सिलसिला हमेशा चलता रहता
दुनिया में औरतें ही हैं जो कहीं भी एक दूसरे से जुड़ जाती हंै और रो कर एक दूसरे को विदा करती हंै। इन्हीं के स्नेह और सम्वेदनाओं से दुनिया जिन्दा है .................बिलकुल सच है
घरों से धुएँ की लकीरों के साथ साग छौंकने की अलग—अलग खुशबुएँ आ रही थी, जो पूरे वातावरण को जीवन्त कर रही थी। कुत्ते भौंक कर अपने होने को सिद्ध कर रहे थे। बच्चों के रोने चिल्लाने की आवाजें अंधेरे के साथ घुल मिल रही थी.............वाह क्या सटीक चित्रण है, एक पल लगा जैसे गांव की गलियारों में खो गयी हूँ
........................

जीवंत चित्रण, मन में आया काश कब ऐसा समय आएगा धूमने-फिरने का अपने गांव घर पहाड़ में

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर रिपोर्ताज। कलम जी की यादें फिर ताजा हो गयीं।